2122 1221 2212
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नीर पनघट से भरना, बहाना गया
चाहतों का वो दिलकश जमाना गया
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दूरियाँ तो पटी यार तकनीक से
पर अदाओं से उसका लुभाना गया
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पेड़ आँगन से जब दूर होते गये
सावनों का वो मौसम सुहाना गया
***
आ गये क्यों लटों को बिखेरे हुए
आँसुओं का हमारे ठिकाना गया
***
नाम उससे हमारा गली गाँव में
साथ जिसके हमारा जमाना गया
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गंद शहरी जो गिरने…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 23, 2014 at 10:00am — 25 Comments
2222 2222 2222 222
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देता है आवाजें रूक-रूक क्यों मेरी खामोशी को
थोड़ा तो मौका दे मुझको गम से हम आगोशी को
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कब मागे मयखाने साकी अधरों ने उपहारों में
नयनों के दो प्याले काफी जीवन भर मदहोशी को
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देखेगी तो कर देगी फिर बदनामी वो तारों तक
अपना आँचल रख दे मुख पर दुनियाँ से रूपोशी को
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बेगानों की महफिल में तो चुप रहना मजबूरी थी
अपनों की महफिल में कैसे अपना लूँ बेहोशी…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 20, 2014 at 11:21am — 24 Comments
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जहन की हर उदासी से उबरते तो सही पहले
जरा तुम नेह के पथ से गुजरते तो सहीे पहले
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हमारी चाहतों की माप लेते खुद ही गहराई
जिगर की खोह में थोड़ा उतरते तो सही पहले
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ये मिट्टी भी हमारी ही महक देती खलाओं तक
हमारे नाम पर थोड़ा सॅवरते तो सही पहले
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तुम्हें भी धूप सूरज की बहुत मिलती दुआओं सी
घरों से आँगनों में तुम उतरते तो सही पहले
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गलत फहमी…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 17, 2014 at 9:30am — 18 Comments
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जन्म से ही यार जो बेशर्म है
पाप क्या उसके लिए, क्या धर्म है
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छेड़ मत तू बात किस्मत की यहाँ
साथ मेरे शेष अब तो कर्म है
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बोलने से कौन करता है मना
सोच पर ये शब्द का क्या मर्म है
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चाँद आये तो बिछाऊँ मैं उसे
एक चादर आँसुओं की नर्म है
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शीत का मौसम सुना है आ गया
पर चमन की ये हवा क्यों गर्म है
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( रचना - 30 जुलाई 2014 )
मौलिक…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 11, 2014 at 11:00am — 15 Comments
2122 2122 212
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मयकदे को अब शिवाले बिक गये
रहजनों के हाथ ताले बिक गये
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घर जलाना भी हमारा व्यर्थ अब
रात के हाथों उजाले बिक गये
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जो खबर थी अनछपी ही रह गयी
चुटकले बनकर मशाले बिक गये
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न्याय फिर बैसाखियों पर आ गया
जांच के जब यार आले बिक गये
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दुश्मनों की अब जरूरत क्या रही
दोस्ती के फिर से पाले बिक गये
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सोचते थे नींव जिनको गाँव की
वो शहर में बनके माले बिक गये
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मौलिक और…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 8, 2014 at 10:39am — 15 Comments
2122 2122 2122 212
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एक सरकस सी हमारी आज संसद हो गयी
लोक हित की इक नदी जम आज हिमनद हो गयी
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जुगनुओं से खो गये लीडर न जाने फिर कहाँ
मसखरों की आज इसमें खूब आमद हो गयी
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‘रेप’ को जोकर सरीखों ने कहा जब बचपना
जुल्म की जननी खुशी से और गदगद हो गयी
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दे रहे ऐसे बयाँ, जो जुल्म की तारीफ है
क्योंकि सुर्खी लीडरों का आज मकसद हो गयी
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जुल्म की सरहद…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 3, 2014 at 9:00am — 26 Comments
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दुखों से दोस्ती रख कर सुखों के घर बचाने हैं
मुझे अपनी खुशी के रास्ते खुद ही बनाने हैं
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परिंदों को पता तो है मगर मजबूर हैं वो भी
नजर तूफान की कातिल नजर में आशियाने हैं
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पलों की कर खताएँ कुछ मिटाना मत जमाने तू
किसी का प्यार पाने में यहाँ लगते जमाने हैं
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न जाने कौन सी दुनिया बसाकर आज हम बैठे
गलत मन के इरादे हैं गलत तन के निशाने…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 27, 2014 at 9:43am — 10 Comments
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घाट सौ-सौ हैं दिखाए तिश्नगी ने
कौन छोड़ा इस हवस के आदमी ने
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करके वादा रोशनी का हमसे यारो
रोज लूटा है हमें तो चाँदनी ने
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राह बिकते मुल्क के सब रहनुमा अब
क्या किया ये खादियों की सादगी ने
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रात जैसे इक समंदर तम भरा हो
पार जिसको नित किया आवारगी ने
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झूठ को जीवन दिया है इसतरह कुछ
यार मेरे सत्य को अपना ठगी ने
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पास आना था हमें यूँ भी…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 21, 2014 at 7:46pm — 10 Comments
2122 2122 2122 2122
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चल पड़ी नूतन हवा जब से शहर की ओर यारो
गाँव के आँगन उदासी, भर रही हर भोर यारो
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अब बुढ़ापा द्वार पर हर घर के बैठा है अकेला
खो गया है आँगनों से बचपनों का शोर यारो
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ढूँढते तो हैं शिरा हम, गाँव जाती राह का नित
पर यहाँ जंजाल ऐसा मिल न पाता छोर यारो
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हो गये कमजोर रिश्ते, अब दिलों के धन की खातिर
मंद झोंके भी चलें तो टूटती हर डोर …
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 15, 2014 at 11:08am — 11 Comments
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दोष थोड़ा सा समय का कुछ मेरी आवारगी
सीधे-सीधे चल न पायी इसलिए भी जिंदगी
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हम तुम्हें कैसे कहें अब दूरियों को पाट लो
कम न कर पाये जो खुद हम आपसी नाराजगी
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कल हवा को भी इजाजत दी न थी यूँ आपने
आज क्यों भाने लगी है गैर की मौजूदगी
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रात-दिन करने पड़ेंगे यूँ जतन कुछ तो हमें
कहने भर से दोस्तों ये किस्मतें कब हैं…
ContinueAdded by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 10, 2014 at 11:30am — 22 Comments
2122 2122 2122 212
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सावनों में फिर हमारे घाव ताजा हो गये
रंक सुख से हम जनम के, दुख के राजा हो गये
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साथ माँ थी तो दुखों में भी सुखों की थी झलक
माँ गयी है छोड़ जब से सुख जनाजा हो गये
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कल तलक जिनकी गली भी कर रही नासाज थी
आज क्यों कर वो तुम्हारे दिल के ख्वाजा हो गये ( ख्वाजा - स्वामी )
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कोइ चाहे देह हरना और कोई दौलतें
आज …
ContinueAdded by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 3, 2014 at 11:00am — 8 Comments
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 29, 2014 at 4:34pm — 11 Comments
1222 1222 1222 1222
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भला हो या बुरा हो बस, शिकायत फितरतों में है
वो ऐसा शक्स है जिसकी बगावत फितरतों में है
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रहेगा साथ जब तक वो चलेगा चाल उलटी ही
भले ही दोस्तों में वो, अदावत फितरतों में है
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उसे लेना नहीं कुछ भी बड़े छोटे के होने से
खड़ा हो सामने जो भी, नसीहत फितरतों में है
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हुनर सबको नहीं आता हमेशा याद रखने का
भुलाए वो किसी को क्या, मुहब्बत फितरतों में है…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 26, 2014 at 11:00am — 25 Comments
2122 2122 2122 212
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पाँव छूना रीत रश्में मानता अब कौन है
सर पे आशीषों की छतरी तानता अब कौन है
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जोड़ना आता नहीं पर , बाँटनें की फितरतें
धर्म हो या हो सियासत जानता अब कौन है
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रो रहे क्यों वाक्य को तुम मानने की जिद लिए
शब्द भर बातें सयानों मानता अब कौन है
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सिर्फ दौलत को यहाँ पर रोज भगदड़ है मची
प्यार की खातिर मनों को छानता अब कौन है
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सबको…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 23, 2014 at 11:30am — 31 Comments
2122 2122 2122 212
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एक भी उम्मीद उन से तुम न पालो दोस्तो
रास्ता इन बीहड़ों में खुद बना लो दोस्तो
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बंद दरवाजे जो दस्तक से नहीं खुलते कभी
इंतजारी से तो अच्छा तोड़ डालो दोस्तो
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फुसफुसाहट नफरतों की तेज फिर होने लगी
प्यार का परचम दुबारा तुम उठा लो दोस्तो
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होश में तो कह रहे थे ‘साथ हम तेरे खड़े’
गिर रहा मदहोशियों में अब सॅभालो…
ContinueAdded by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 21, 2014 at 9:30am — 18 Comments
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1222 1222 1222 1222
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हुआ जाता नहीं बच्चा कभी यारो मचलने से
नहीं सूरत बदलती है कभी दरपन बदलने से
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जला ले खुद को दीपक सा उजाला हो ही जायेगा
मना करने लगे तुझको अगर सूरज निकलने से
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हमारी सादगी है ये भरोसा फिर जो करते हैं
कभी तो बाज आजा तू सियासत हमको छलने से
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बता बदनाम करता क्यों पतित है बोल अब…
ContinueAdded by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 16, 2014 at 9:26am — 14 Comments
2122 2122 212
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तन से जादा मन जरूरी प्यार को
मन बिना आये हो क्या व्यापार को
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मुक्ति का पहला कदम है यार ये
मोह माया मत समझ संसार को
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इसमें शामिल और जिम्मेदारियाँ
मत समझ मनमर्जियाँ अधिकार को
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डूब कर तम में गहनतम भोर तक
तेज करता रौशनी की धार को
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तब कहीं जाकर उजाला साँझ तक
बाँटता है सूर्य इस संसार …
ContinueAdded by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 12, 2014 at 9:42am — 21 Comments
2122 2122 2122 212
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शब्द अबला तीर में अब नार ढलना चाहिए
हर दुशासन का कफन खुद तू ने सिलना चाहिए
***
लूटता हो जब तुम्हारी लाज कोई उस समय
अश्क आँखों से नहीं शोला निकलना चाहिए
***
गिड़गिड़ाने से बची कब लाज तेरी द्रोपदी
वक्त पर उसको सबक कुछ ठोस मिलना चाहिए
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हर समय तो आ नहीं सकता कन्हैया तुझ तलक
काली बन खुद रक्त बीजों को कुचलना चाहिए
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फूल बनकर दे महक उपवन को यूँ तो रोज तू…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 6, 2014 at 12:47pm — 31 Comments
2122 112 2 1122 22
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खार हूँ एक ये सोचा है सभी ने मुझको
फूल के साथ जो देखा है सभी ने मुझको
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बंद सदियों से पड़ा था मैं किसी कोने में
खत तेरा जान के खोला है सभी ने मुझको
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भोर सा रास तुझे आज मगर आया क्यूँ
तम भरी रात जो बोला है सभी ने मुझको
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दाद वैसे तो मिली बात बुरी भी कह दी
बस तेरी बात पे कोसा है सभी ने मुझको
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रूह की बात किसे यार लगी सौदों …
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 28, 2014 at 10:30am — 25 Comments
बाद इसके भी बहस कुछ और चलनी चाहिए
सूरतों के साथ सीरत भी बदलनी चाहिए
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चल पड़े माना सफर में बात इससे कब बनी
लौटने को घर हमेशा साँझ ढलनी चाहिए
**
आ ही जायेगा भगीरथ फिर यहाँ बदलाव को
आस की गंगा तुम्हीं से फिर निकलनी चाहिए
**
है जरूरी देश को विश्वास की संजीवनी
मन हिमालय में सभी के वो भी फलनी चाहिए
**
ब्याह की बातें कहो या फिर कहो तुम देश की
हाथ से जादा …
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 22, 2014 at 10:30am — 19 Comments
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