तुमने ठीक कहा था
तुम्हारे बिना देख नही पाऊंगा मैं
कोई भी रंग
पत्तियों का रंग
फूलों का रंग
बच्चों की मुस्कान का रंग
अज़ान का रंग
मज़ार से उठते लोभान का रंग
सुबह का रंग....शाम का रंग
मुझे सारे रंग धुंधले दीखते हैं
कुहरा नुमा...धुंआ-धुंआ...
और कभी मटमैला सा कुछ....
ये तुमने कैसा श्राप दिया है
तुम ही मुझे श्राप-मुक्त कर सकते हो..
कुछ करो...
वरना पागल हो जाऊंगा मैं.....
(मौलिक अप्रकाशित)
Added by anwar suhail on September 18, 2013 at 7:00pm — 12 Comments
अजीब विडम्बना है
कि अपने दुखों का कारण
अपने प्रयत्नों में नहीं खोजते
बल्कि मान लेते हैं
कि ये हमारा दुर्भाग्य है
कि ये प्रतिफल है
हमारे पूर्वजन्मों का...
अजीब विडम्बना है
जो मान लेते हैं हम
ब-आसानी उनके प्रचारों को
कि तंत्र-मन्त्र-यंत्र,
तावीजें-गंडे
शरीर में धारण कर लेने मात्र से
दूर हो जाएंगे हमारे तमाम दुःख !
अजीब विडम्बना है
लम्बी-लम्बी साधनाओं का
तपस्या का
मार्ग जानते हुए भी
हम…
Added by anwar suhail on September 15, 2013 at 8:24pm — 3 Comments
एक बार फिर
इकट्ठा हो रही वही ताकतें
एक बार फिर
सज रहे वैसे ही मंच
एक बार फिर
जुट रही भीड़
कुछ पा जाने की आस में
भूखे-नंगों की
एक बार फिर
सुनाई दे रहीं,
वही ध्वंसात्मक धुनें
एक बार फिर
गूँज रही फ़ौजी जूतों की थाप
एक बार फिर
थिरक रहे दंगाइयों, आतंकियों के पाँव
एक बार फिर
उठ रही लपटें
धुए से काला हो…
ContinueAdded by anwar suhail on September 10, 2013 at 8:34pm — 10 Comments
जिसने जाना नही इस्लाम
वो है दरिंदा
वो है तालिबान...
सदियों से खड़े थे चुपचाप
बामियान में बुद्ध
उसे क्यों ध्वंस किया तालिबान
इस्लाम भी नही बदल पाया तुम्हे
ओ तालिबान
ले ली तुम्हारे विचारों ने
सुष्मिता बेनर्जी की जान....
कैसा है तुम्हारी व्यवस्था
ओ तालिबान!
जिसमे…
Added by anwar suhail on September 6, 2013 at 8:14pm — 3 Comments
कोई तोड़ दे
उसका सर
जोर से
मार कर पत्थर
हो जाए ज़ख़्मी वो
कोई दे उसे
चीख-चीख कर
गालियाँ बेशुमार
कि फट जाएँ उसके कान के परदे
घर या दफ्तर जाते समय
टकरा जाए उसकी गाडी
किसी पेड़ या खम्भे से
चकनाचूर हो जाए उसकी गाडी
और अस्पताल के हड्डी विभाग में
पलस्तर बंधी उसकी देह गंधाये...
और एक दिन
सुनने में आया
कि किसी ने उसके सर पर
....मार दिया…
ContinueAdded by anwar suhail on September 5, 2013 at 11:00pm — 5 Comments
जैसे टूटता तटबंध
और डूबने लगते बसेरे
बन आती जान पर
बह जाता, जतन से धरा सब कुछ
कुछ ऐसा ही होता है
जब गिरती आस्था की दीवार
जब टूटती विश्वास की डोर
ज़ख़्मी हो जाता दिल
छितरा जाते जिस्म के पुर्जे
ख़त्म हो जाती उम्मीदें
हमारी आस्था के स्तम्भ
ओ बेदर्द निष्ठुर छलिया !
कभी सोचा तुमने
कि अब स्वप्न देखने से भी
डरने लगा इंसान
और स्वप्न ही तो हैं
इंसान के…
ContinueAdded by anwar suhail on September 2, 2013 at 9:00pm — 14 Comments
तुम मेरी बेटी नही
बल्कि हो बेटा...
इसीलिये मैंने तुम्हें
दूर रक्खा शृंगार मेज से
दूर रक्खा रसोई से
दूर रक्खा झाडू-पोंछे से
दूर रक्खा डर-भय के भाव से
दूर रक्खा बिना अपराध
माफ़ी मांगने की आदतों से
दूर रक्खा दूसरे की आँख से देखने की लत से....
और बार-बार
किसी के भी हुकुम सुन कर
दौड़ पडने की आदत से भी
तुम्हे दूर रक्खा...
बेशक तुम बेधड़क जी…
ContinueAdded by anwar suhail on August 29, 2013 at 10:00pm — 12 Comments
तुम्हें रोने की आज़ादी
तुम्हें मिल जाएंगे कंधे
तुम्हें घुट-घुट के जीने का
मुद्दत से तजुर्बा है
तुम्हें खामोश रहकर
बात करना अच्छा आता है
गमों का बोझ आ जाए तो
तुम गाते-गुनगुनाते हो
तुम्हारे गीत सुनकर वो
हिलाते सिर देते दाद...
इन्ही आदत के चलते ये
ज़माना बस तुम्हारा है
कि तुम जी लोगे इसी तरह
ऎसे बेदर्द मौसम में
ऎसे बेशर्म लोगों में.....
इसी तरह की मिट्टी से
बने लोगों की खासखास…
Added by anwar suhail on August 1, 2013 at 9:00pm — 9 Comments
बेशक तुमने देखी नही दुनिया
बेशक तुम अभी नादान हो
बेशक तुम आसानी से
हो जाती हो प्रभावित अनजानों से भी
बेशक तुम कर लेती हो विश्वास किसी पर…
ContinueAdded by anwar suhail on July 12, 2013 at 9:00pm — 9 Comments
उसने मुझसे कहा
ये क्या लिखते रहते हो
गरीबी के बारे में
अभावों, असुविधाओं,
तन और मन पर लगे घावों के बारे में
रईसों, सुविधा-भोगियों के खिलाफ
उगलते रहते हो ज़हर
निश-दिन, चारों पहर
तुम्हे अपने आस-पास
क्या सिर्फ दिखलाई…
Added by anwar suhail on June 20, 2013 at 10:28pm — 4 Comments
उनके जीवन में है दुःख ही दुःख
और हम बड़ी आसानी से कह देते
उनको दुःख सहने की आदत है...
वे सुनते अभाव का महा-आख्यान
वे गाते अपूरित आकांक्षाओं के गान
चुपचाप सहते जाते जुल्मो-सितम
और हम बड़ी आसानी से कह देते
अपने जीवन से ये कितने सतुष्ट हैं...
वे नही जानते कि उनकी बेहतरी लिए
उनकी शिक्षा,…
ContinueAdded by anwar suhail on June 17, 2013 at 8:43pm — 11 Comments
जाने कब मिलेंगे हम अब्बू आपसे...
-----------------------------------------अनवर सुहैल (मौलिक अप्रकाशित और अप्रसारित कविता)
कब मिलेगी फुर्सत
कब मिलेगा मौका
कब बढ़ेंगे कदम
कब मिलेंगे हम अब्बू आपसे...
बेशक, आप खुद्दार हैं
बेशक, आप खुद-मुख्तार हैं
बेशक, आप नहीं देना चाहते तकलीफ
अपने वजूद से,
किसी को भी
बेशक , आप नहीं बनना चाहते
बोझ किसी पर..
तो क्या इसी बिना पर
हम आपको छोड़…
Added by anwar suhail on June 11, 2013 at 8:26pm — 8 Comments
Added by anwar suhail on June 4, 2013 at 8:21pm — 7 Comments
अद्भुत कला है
बिना कुछ किये
दूजे के कामों को
खुद से किया बताकर
बटोरना वाहवाही...
जो लोग
महरूम हैं इस कला से
वो सिर्फ खटते रहते हैं
किसी बैल की तरह
किसी गधे की तरह
ऐसा मैं नही कहता
ये तो उनका कथन है
जो सिर्फ बजाकर गाल
दूसरों के कियेकामों को
अपना…
ContinueAdded by anwar suhail on May 26, 2013 at 7:49pm — 5 Comments
जिस वक्त कोई
बना रहा होता क़ानून
कर रहा होता बहस
हमारी बेहतरी के लिए
हम छह सौ फिट गहरी
कोयला खदान के अंदर
काट रहे होते हैं कोयला
जिस वक्त कोई
तोड़ रहा होता क़ानून
धाराओं-उपधाराओं की उड़ा-कर धज्जियां
हम पसीने से चिपचिपाते
ढो रहे होते कोयला अपनी पीठ पर..
जिस वक्त कोई
कर रहा होता आंदोलन
व्यवस्था के खिलाफ लामबंद
राजधानियों की व्यस्ततम सड़कों पर
हम हाँफते- दम…
ContinueAdded by anwar suhail on May 22, 2013 at 8:20pm — 3 Comments
कोयला खदान की
आँतों सी उलझी सुरंगों में
पसरा रहता अँधेरे का साम्राज्य
अधपचे भोजन से खनिकर्मी
इन सर्पीली आँतों में
भटकते रहते दिन-रात
चिपचिपे पसीने के साथ...
तम्बाकू और चूने को
हथेली पर मलते
एक-दूजे को खैनी खिलाते
सुरंगों में पिच-पिच थूकते
खानिकर्मी जिस भाषा में बात करते हैं
संभ्रांत समाज उस भाषा को
असंसदीय कहता, अश्लील कहता...
खदान का काम खत्म कर
सतह पर आते वक्त
पूछते अगली शिफ्ट के कामगारों से
ऊपर का…
Added by anwar suhail on May 17, 2013 at 9:30pm — 8 Comments
क्या करें,
इतनी मुश्किलें हैं फिर भी
उसकी महफ़िल में जाकर मुझको
गिडगिडाना नहीं भाता.....
वो जो चापलूसों से घिरे रहता है
वो जो नित नए रंग-रूप धरता है
वो जो सिर्फ हुक्म दिया करता है
वो जो यातनाएँ दे के हंसता है
मैंने चुन ली हैं सजा की राहें
क्योंकि मुझको हर इक चौखट पे
सर झुकाना नहीं आता...
उसके दरबार में रौनक रहती
उसके चारों तरफ सिपाही हैं
हर कोई उसकी इक नज़र का मुरीद
उसके नज़दीक…
ContinueAdded by anwar suhail on May 7, 2013 at 8:21pm — 7 Comments
हम वो नही जो आपकी
चुटकी में मसल जाएँ
हम वो नहीं जो आपके
पैरों से कुचल जाएँ
हम वो नहीं जो आपके
डर से रण छोड़ जाएँ
हम वो नहीं जो आपकी
भभकी से सिहर जाएँ
जुल्मो-सितम की आंधी
यातनाओं के तूफ़ान में भी
देखो तने खड़े हम
किसी पहाड़ की तरह
खुद्दारी और खुद-मुख्तारी
यही तो है पूंजी हमारी...
उन जालिमों के गुर्गे
टट्टू निरे भाड़े के
हथियार छीन लो तो
रण छोड़ भाग…
ContinueAdded by anwar suhail on May 4, 2013 at 8:21pm — 5 Comments
कैसे बन जाता कोई नपुंसक
कैसे हो जाती खामोश जुबान
कैसे हज़ारों सिर झुक जाते
कैसे बढते क़दम रुक जाते
कुंद कर दिया गया दिमाग
पथरा गई हैं संवेदनाएं
किसी साज़िश के तहत
खत्म कर दी गई हैं संभावनाएं
मैंने कहा साथी!
क्या हुआ कि बंद हैं राहें
गूँज रही हर-सू आहें-कराहें
क्या हुआ कि खो गई दिशाएँ
क्या हुआ कि रुक गई हवाएं
याद करो,
हमने खाई थी शपथ
विपरीत परिस्थितियों में
हम झुकेंगे…
ContinueAdded by anwar suhail on May 3, 2013 at 7:57pm — 9 Comments
जो बुरा है
जो बदनाम है
जो ज़ालिम है
उससे सावधान रहना आसान है
क्योंकि वो तो जग-जाहिर है....
लेकिन जो बुरा दीखता नही
जो नाम वाला हो
जो नरमदिल बना हुआ हो
ऐसे लोगों को पहचानना
हर किसी के बस की बात नहीं...
क्या आप ऐसे लोगों को पहचान…
Added by anwar suhail on April 28, 2013 at 9:11pm — 5 Comments
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