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आज खबरों में जहाँ जाती नज़र है।
रक्त में डूबी हुई, होती खबर है।
फिर रहा है दिन उजाले को छिपाकर,
रात पूनम पर अमावस की मुहर है।
ढूँढते हैं दीप लेकर लोग उसको,
भोर का तारा छिपा जाने किधर है।
डर रहे हैं रास्ते मंज़िल दिखाते,
मंज़िलों पर खौफ का दिखता कहर है।
खो चुके हैं नद-नदी रफ्तार अपनी,
साहिलों की ओट छिपती हर लहर है।
हसरतों के फूल चुनता मन का…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on December 7, 2013 at 10:56am — 20 Comments
श्वेत वसना दुग्ध सी, मन मुग्ध करती चंद्रिका।
तन सितारों से सजाकर, भू पे उतरी चंद्रिका।
चाँद ने जब बुर्ज से,…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on December 2, 2013 at 8:00pm — 33 Comments
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ज़िन्दगी जीने के कुछ, सामान भी तो हैं!
बुत शहर में बोलते, इंसान भी तो हैं!
भीड़ से माना कि घर, सिकुड़े बने पिंजड़े,
साथ में फैले हुए, उद्यान भी तो हैं!
और अधिक के लोभ में, नाता घरों से तोड़,
मूढ़ गाँवों ने किए, प्रस्थान भी तो हैं।
गाँव ही आकर अकारण हैं मचाते भीड़
यूँ शहर में बढ़ गए व्यवधान भी तो हैं!
क्यों नहीं हक माँगते, शासन से आगे बढ़?
जानकर ये बन रहे, नादान भी तो…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on October 9, 2013 at 10:30am — 33 Comments
देवों में जो पूज्य प्रथम है, सबके शीघ्र सँवारे काम।
मंगल मूरत गणपति देवा, है वो पावन प्यारा नाम।
भक्ति भरा हर मन हो जाता, भादों शुक्ल चतुर्थी पर,
सुंदर सौम्य सजी प्रतिमा से, हर घर बन जाता है धाम।
भोग लगाकर पूजा होती, व्रत उपवास किए जाते,
गणपति जी की गाई जाती, आरति मन से सुबहो शाम।
चल पड़ती जब सजकर झाँकी, ढ़ोल मँजीरे साथ लिए,
झूम उठता यौवन मस्ती में, और सड़क पर लगता जाम।
फिर फिर से हर साल…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on September 9, 2013 at 8:30pm — 11 Comments
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छिपा हुआ रक्षाबंधन का, सार रेशमी डोरी में।
गुंथा हुआ भाई बहना का, प्यार रेशमी डोरी में।
कहीं बसे बेटी लेकिन, हर साल मायके आ जाती,
सजी धजी लेकर सारा, अधिकार रेशमी डोरी में।
बड़ा सबल होता यह रिश्ता, स्वस्थ भाव, बंधन पावन,
गहन विचारों का होता, आधार रेशमी डोरी में।
विदा बहन होती जब कोई, एक वायदा ले जाती,
जुड़े रहेंगे मन के सारे, तार रेशमी डोरी में।
विनय यही हों दृढ़ जीवन…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on August 20, 2013 at 11:01am — 24 Comments
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सुनहरी भोर बागों में, बिछाती ओस की बूँदें!
नयन का नूर होती हैं, नवेली ओस की बूँदें!
चपल भँवरों की कलियों से, चुहल पर मुग्ध सी होतीं,
मिला सुर गुनगुनाती हैं, सलोनी ओस की बूँदें!
चितेरा कौन है? जो रात, में जाजम बिछा जाता,
न जाने रैन कब बुनती, अकेली ओस की बूँदें!
करिश्मा है खुदा का या, कि ऋतु रानी का ये जादू,
घुमाकर जो छड़ी कोई, गिराती ओस की बूँदें!
नवल सूरज की किरणों में, छिपी…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on August 6, 2013 at 10:00pm — 22 Comments
पावस का इस बार भूमि पर
प्यार बहुत उमड़ा है।
लेकिन क्या सुख संचय होगा?
संशय नाग
खड़ा है।
मक्कारी, गद्दारी, लालच,
शासन के कलपुर्ज़े।
बूँद-बूँद को चट कर देंगे,
घन बरसे या गरजे।
भरे सकल जल-स्रोत लबालब,
सागर ज्वार चढ़ा है।
मगर उसे नल नहलाएगा?
चिंतित मलिन
घड़ा है।
बन मशीन मानव ने भू के,
रोम-रोम को वेधा।
क्यों कुदरत फिर क्षुब्ध न होगी,
रुष्ट न…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on July 26, 2013 at 7:27pm — 17 Comments
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हक़ किसी का छीनकर, कैसे सुफल पाएँगे आप?
बीज जैसे बो रहे, वैसी फसल पाएँगे आप।
यूँ अगर जलते रहे, कालिख भरे मन के दिये,
बंधुवर! सच मानिए, निज अंध कल पाएँगे आप।
भूलकर अमृत वचन, यदि विष उगलते ही रहे,
फिर निगलने के लिए भी, घट- गरल पाएँगे आप।
निर्बलों की नाव गर, मझधार छोड़ी आपने,
दैव्य के इंसाफ से, बचकर न चल पाएँगे आप।
प्यार देकर प्यार लें, आनंद पल-पल बाँटिए,
मित्र! तय…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on July 23, 2013 at 8:00pm — 49 Comments
स्नेह सुधा बरसाओ मेघा,
व्याकुल हुआ तरसता मन।
रिश्तों की जो बेलें सूखीं,
कर दो फिर से हरी भरी।
मन आँगन में पड़ी दरारें,
घन बरसो, हो जाय तरी।
सिंचित हो जीवन की धरती।
ले आओ ऐसा सावन।
दूर दिलों से बसी बस्तियाँ,
भाव शून्यता गहराई।
सरस सुमन निष्प्राण हो गए,
नागफनी ऐसी…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on July 8, 2013 at 11:00pm — 14 Comments
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यह बारिशों का मौसम, कितना हसीन है!
धरती गगन का संगम, कितना हसीन है!
जाती नज़र जहाँ तक, बौछार की बहार,
बूँदों का नृत्य छम-छम, कितना हसीन है!
बच्चों के हाथ में हैं, कागज़ की किश्तियाँ,
फिर भीगने का ये क्रम, कितना हसीन है!
विहगों की रागिनी है, कोयल की कूक भी,
उपवन का रूप अनुपम, कितना हसीन है!
झूलों पे पींग भरतीं, इठलातीं तरुणियाँ,
लय तान का समागम, कितना हसीन…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on June 17, 2013 at 9:30am — 14 Comments
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वे सुना है चाँद पर बस्ती बसाना चाहते।
विश्व में आका हमारे यश कमाना चाहते।
लात सीनों पर जनों के, रख चढ़े हैं सीढ़ियाँ,
शीश पर अब पाँव रख, आकाश पाना चाहते।
भर लिए गोदाम लेकिन, पेट भरता ही नहीं,
दीन-दुखियों के निवाले, बेच खाना चाहते।
बाँटते वैसाखियाँ, जन-जन को पहले कर अपंग,
दर्द देकर बेरहम, मरहम लगाना चाहते।
खूब दोहन कर निचोड़ा, उर्वरा भू को प्रथम,
अब हलक की…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on June 2, 2013 at 12:00pm — 27 Comments
सूर्य देवा, लाँघना कुछ सोचकर,
इस गाँव की चौखट।
बढ़ रहे तेवर तुम्हारे,
सिर चढ़े वैसाख में।
भू हुई बंजर चला जल,
भाप बन आकाश में।
देव! है स्वागत तुम्हारा,
ध्यान हो लेकिन हमारा,
बाँध लेना प्रथम अपनी आग सी,
किरणों की बिखरी लट।
मौन हैं प्यासे दुधारू
खूँटियों से द्वंद है।
हलक सूखे हैं, नज़र में
याचना की गंध है।
शेष जल यदि तुम निगल लो,
गागरी उदरस्थ कर लो,
अन्नपूर्णा किस…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on May 21, 2013 at 1:00pm — 16 Comments
सखि,चैत्र गया अब ताप बढ़ा।
धरती चटकी सिर सूर्य चढ़ा।
ऋतु के सब रंग हुए गहरे।
जल स्रोत घटे जन जीव डरे।
फिर भी मन में इक आस पले।
सखि पाँव धरें चल नीम तले।
इस मौसम में हर पेड़ झड़ा।
पर, मीत यही अपवाद खड़ा।
खिलता रहता फल फूल भरा।
लगता मन मोहक श्वेत हरा।
भर दोपहरी नित छाँव मिले।
सखि झूल झुलें चल नीम तले।
यह पेड़ बड़ा सुखकारक है।
यह पूजित है वरदायक है।
अति पावन प्राणहवा…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on May 13, 2013 at 8:46am — 21 Comments
जो जुटाते अन्न, फाकों की सज़ा उनके लिए।
बो रहे जीवन, मगर जीवित चिता उनके लिए।
सींच हर उद्यान को, जो हाथ करते स्वर्ग सम,
नालियों के नर्क की, दूषित हवा उनके लिए।
जोड़ते जो मंज़िलें, माथे तगारी बोझ धर,…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on May 2, 2013 at 8:53am — 34 Comments
भर्त्सना के भाव भर, कितनी भला कटुता लिखें?
नर पिशाचों के लिए, हो काल वो रचना लिखें।
नारियों का मान मर्दन, कर रहे जो का-पुरुष,
न्याय पृष्ठों पर उन्हें, ज़िंदा नहीं मुर्दा लिखें।
रौंदते मासूमियत, लक़दक़ मुखौटे ओढ़कर,
अक्स हर दीवार पर, कालिख पुता उनका लिखें।
पशु कहें, किन्नर कहें, या दुष्ट दानव घृष्टतम,
फर्क उनको क्या भला, जो नाम, जो ओहदा लिखें।
पापियों के बोझ से, फटती नहीं अब ये धरा
खोद कब्रें, कर…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on April 25, 2013 at 10:00pm — 67 Comments
छोड़ आए गाँव में वो, ज़िंदगानी याद है।
सौंपकर पुरखे गए जो, वो निशानी याद है।
गाँव था सारा हमारा, ज्यों गुलों का इक चमन,
शीत, गर्मी, बारिशों की, ऋतु सुहानी याद है।
एक हो खाना खिलाना, रूठ जाने की अदा,
फिर मनाने मानने की, वो कहानी याद है।
छुप-छुपाते, खिलखिलाते, हँस हँसाते रात दिन,
फूल, बगिया, बेल-चम्पा, रात रानी याद है।
मुँह अँधेरे, त्याग बिस्तर, भागना भूले कहाँ?
हाथ में माँ से मिली, गुड़ और धानी याद…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on April 22, 2013 at 10:30pm — 30 Comments
गजल...
एक नन्हीं प्यारी चिड़िया, आज देखी बाग में।
चोंच से चूज़े को भोजन, कण चुगाती बाग में।
काँप जाती थी वो थर-थर, होती जब आहट कोई,
झाड़ियों के झुंड में, खुद को छिपाती बाग में।
ढूंढती दाना कभी, पानी कभी, तिनका कभी,
एक तरु पर नीड़ अपना, बुन रही थी बाग में।
खेलते बालक भी थे, हैरान उसको देखकर,
आज ही उनको दिखी थी, वो फुदकती बाग में।
नस्ल उसकी देश से अब, लुप्त होती जा रही,
बनके…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on April 16, 2013 at 5:30pm — 5 Comments
हिन्दी गजल...
गर्मियों की शान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।
धूप में वरदान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।
हर पथिक हारा थका, पाता यहाँ विश्राम है,
भेद से अंजान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।
नीम, पीपल, हो या वट, रखते हरा संसार को,
मोहिनी, मृदु-गान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।
हाँफते विहगों की प्यारी, नीड़ इनकी डालियाँ,
और इनकी जान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।
रुख बदलती है मगर, रूठे नहीं मुख मोड़कर,
सृष्टि का…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on April 15, 2013 at 5:30pm — 28 Comments
नवगीत
छाँव निगलकर हँसता सूरज,
उगल रहा है धूप।
शीतलता को रखा कैद में,
गर्मी लाया साथ।
तप्त दुपहरी रानी बनकर,
बाँट रही सौगात।
फ्रूट-चाट, कुल्फी, ठंडाई,
सभी सुहाने रूप।
रातें छोटी दिन हैं लंबे,
लू का बढ़ा प्रकोप।
घने पेड़ भी तपे आग से,
शीत हवा का लोप।
चीं चीं, चूँ चूँ, कांव कांव सब,
ढूंढ रहे नल कूप।
सड़क किनारे ठेले वाले,
राहत लिए…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on April 14, 2013 at 1:30pm — 16 Comments
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