दोहा सलिला:
गले मिले दोहा यमक...
संजीव 'सलिल'
*
गले मिले दोहा यमक, झपक लपक बन मीत.
गले भेद के हिम शिखर, दमके श्लेष सुप्रीत..
गले=कंठ, पिघले.
पीने दे रम जान अब, ख़त्म हुआ रमजान.
कल पाऊँ, कल का पता, किसे? सभी अनजान..
रम=शराब, जान=संबोधन, रमजान=एक महीना, कल=शांति, भविष्य.
अ-मन नहीं उन्मन मनुज, गँवा अमन बेचैन.
वमन न चिंता का किया, दमन सहे क्यों चैन??
अ-मन=मन…
Added by sanjiv verma 'salil' on August 11, 2011 at 10:00am — 7 Comments
मिशन इज ओवर (कहानी )
लेखक -- सतीश मापतपुरी
अंक -१ पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे
इंसान अगर जीने का मकसद खोज ले तो निराशा स्वत: दम तोड़ देगी. विकास को निराशा के गहरे अँधेरे कुंए में आशा की एक टिमटिमाती रोशनी नज़र आई,उसने मन ही मन सोचा -" क्यों न एड्स के साथ जी रहे लोगों के पुनर्वास और उनके प्रति लोगों के दृष्टिकोण में…
ContinueAdded by satish mapatpuri on August 11, 2011 at 1:00am — 5 Comments
मिशन इज ओवर (कहानी )
लेखक -- सतीश मापतपुरी
अनायास विकास एक दिन अपने गाँव लौट आया. अपने सामने अपने बेटे को देखकर भानु प्रताप चौधरी के मुँह से हठात निकल गया -"अचानक ..... कोई खास बात ......?" घर में दाखिल होते ही प्रथम सामना पिता का होगा, संभवत: वह इसके लिए तैयार न था, परिणामत: वह पल दो पल के लिए सकपका गया ............. किन्तु, अगले ही क्षण स्वयं को नियंत्रित कर तथा अपनी बातों में सहजता का पुट डालते…
ContinueAdded by satish mapatpuri on August 10, 2011 at 1:30am — 6 Comments
बरसे पानी
संजीव 'सलिल'
*
रिमझिम रिमझिम बरसे पानी.
आओ, हम कर लें मनमानी.
बड़े नासमझ कहते हमसे
मत भीगो यह है नादानी.
वे क्या जानें बहुतई अच्छा
लगे खेलना हमको पानी.
छाते में छिप नाव बहा ले.
जब तक देख बुलाये नानी.
कितनी सुन्दर धरा लग रही, …
Added by sanjiv verma 'salil' on August 6, 2011 at 10:30am — 6 Comments
दान मनुज का परम धर्म और मानवता का गहना है.
दिखलाना कार्पण्य समय से पहले ही मरना है.
मंदिर के निर्माण हेतु चन्दा देना कोई दान नहीं.
हवन -कुण्ड में अन्न जलाना भी है कोई दान नहीं.
निज तर्पण के लिए विप्र को धन देना भी दान नहीं.
ईश्वर-पूजा की संज्ञा दे भोज कराना दान नहीं.
दान नहीं नाना प्रकार से मूर्ति -पूजन करना है.
दान मनुज का परम धर्म और मानवता का गहना है.
करना मदद सदा निर्धन की दान इसे ही कहते हैं.
जो पर…
ContinueAdded by satish mapatpuri on August 5, 2011 at 12:00am — 6 Comments
मुक्तिका:
..... बना दें
संजीव 'सलिल'
*
'सलिल' साँस को आस-सोहबत बना दें.
जो दिखलाये दर्पण हकीकत बना दें..
जिंदगी दोस्ती को सिखावत बना दें..
मदद गैर की अब इबादत बना दें.
दिलों तक जो जाए वो चिट्ठी लिखाकर.
कभी हो न हासिल, अदावत बना दें..
जुल्मो-सितम हँस के करते रहो तुम.
सनम क्यों न इनको इनायत बना दें?
रुकेंगे नहीं पग हमारे कभी भी.
भले खार मुश्किल बगावत बना दें..
जो खेतों में करती हैं मेहनत…
Added by sanjiv verma 'salil' on August 1, 2011 at 11:30am — 4 Comments
साथियों !
हमारे संज्ञान में लाया गया है कि कुछ सदस्यों को ओ बी ओ लोगिन ( sign in ) करने में समस्या होती है | इस सम्बन्ध में कहना है कि ....
प्रथम बार sign up कर जब आप ओ बी ओ सदस्यता ग्रहण कर लेते है तो उसके बाद आपको केवल sign in करनी होती है ध्यान रखे sign up नहीं, sign up सिर्फ एक बार सदस्यता ग्रहण करने हेतु प्रयोग किया जाता है |
sign in करने हेतु दो डाटा कि आवश्यकता होती है ...
१- आपका इ-मेल आई डी, जिसका प्रयोग आप सदस्यता ग्रहण करने में प्रयोग…
ContinueAdded by Admin on July 31, 2011 at 9:00pm — 5 Comments
Added by sangeeta swarup on July 27, 2011 at 4:00pm — 16 Comments
(दहेज़ के लिए पत्नी को जलाने,हत्या करने जैसी घटनाएँ आज भी हमारे समाज में घट रही हैं. हम कैसे मान लें हम पहले से अधिक शिक्षित और सभ्य हो चुके हैं. मानसरोवर --4 इसी अमानुषिक कृत्य पर आधारित है.
Added by satish mapatpuri on July 17, 2011 at 6:30pm — 2 Comments
ज़ेहन मे दीवार जो सबने उठा ली है,
रातें भी नही रोशन, शहर भी काली है |
मालिक ने अता की है, एक ज़िंदगी फूलों सी,
काँटों से बनी माला क्यूँ कंठ मे डाली है |
कैसी ये तरक्की है , कैसी ये खुशहाली है,
पैसे से जेब भारी, दिल प्यार से खाली है |
दर्द फ़क़त अपना ही दर्द सा लगता है,
औरों के दर्द-ओ-गम से आँख चुरा ली है |
किस-किस को सुनाएँगे अफ़साना-ए-हयात अब,
बेहतर है खामोशी, जो लब पे सज़ा ली है |
Added by Prabha Khanna on July 18, 2011 at 7:00pm — 11 Comments
घनाक्षरी सलिला :
छत्तीसगढ़ी में अभिनव प्रयोग.
संजीव 'सलिल'
*
अँचरा मा भरे धान, टूरा गाँव का किसान, धरती मा फूँक प्राण, पसीना बहावथे.
बोबरा-फार बनाव, बासी-पसिया सुहाव, महुआ-अचार खाव, पंडवानी भावथे..
बारी-बिजुरी बनाय, उरदा के पीठी भाय, थोरको न ओतियाय, टूरी इठलावथे.
भारत के जय बोल, माटी मा करे किलोल, घोटुल मा रस घोल, मुटियारी भावथे..
*
नवी रीत बनन दे, नीक न्याब चलन दे, होसला ते बढ़न दे, कउवा काँव-काँव.
अगुवा के कोचिया, फगुवा के लोटिया, बिटिया…
Added by sanjiv verma 'salil' on July 22, 2011 at 8:00am — 5 Comments
Added by sanjiv verma 'salil' on July 20, 2011 at 7:10am — 5 Comments
हज़रत निज़ामुद्दीन-बैंगलोर राजधानी ऐक्स्प्रेस में दो रातों तक कुछ नन्हे-मुन्ने कॉकरोचों से दो-दो हाथ करते हुए 30 अक्टूबर की सुबह जब हम बैंगलोर सिटी जंक्शन पहुंचे तो दिन निकल चुका था । ट्रेन रुकने से पहले ही हमें उन क़ुलियों ने घेर लिया जो चलती ट्रेन में ही अन्दर आ गये थे । सामान उठाकर ले चलने से लेकर होटल दिलाने, लोकल साइट-सीइंग और मैसूर-ऊटी तक का टूर कराने के ऑफ़र्ज़ की बरसात होने लगी । मगर हम तो काफ़ी जानकारी पहले से ही इकट्ठा करके पूरी तैयारी से आये थे, इसलिये क़ुली साहिबान की दाल नहीं…
ContinueAdded by moin shamsi on July 26, 2011 at 1:34pm — 15 Comments
इस दुनिया के निर्माता ने, सृष्टि के भाग्य विधाता ने.
मारुति-कृशानु के संगम से, भूमि -वारि और गगन से.
एक पुतला का निर्माण किया.
मानव का नाम उचार दिया.
मांस -चर्म के इस तन में,नर -नारी के सुन्दर मन में.
एक समता का संचार किया, तन लाल रुधिर का धार दिया .
सबको समान दी सूर्य -सोम.
सबको समान दी भूमि -ब्योम.
सबको चमड़े की काया दी. सबको सृष्टि की छाया…
ContinueAdded by satish mapatpuri on July 11, 2011 at 12:30am — 9 Comments
एक दिन ,
भावनाओ की पोटली बांध
निकल पड़ी घर से ,
सोचा,
समुद्र की गहराईयों में दफ़न कर दूंगी इन्हें ..
कमबख्तों की वजह से ..
हमेशा कमजोर पड़ जाती हूँ ..
फेक भी आई उन्हें ..
दूर , बहुत दूर
पर ये लहरें भी 'न' .--
कहाँ मेरा कहा मानती हैं ..
हर लहर ....
उसे उठा कर किनारे पर पटक जाती ,
और वो दुष्ट पोटली ..
दौड़ती भागती मेरे ही …
ContinueAdded by Anita Maurya on July 4, 2011 at 3:46pm — 15 Comments
नन्हा सा, अल्हड़ सा, वो प्यारा बचपन,
ज़िंदगी की धूप से अछूता बचपन
बचपन के वो दिन कितने अच्छे थे
जब संग सबके हम खेला करते थे
दुखी होते थे एक खिलौने के टूटने पर
और छोटी सी ज़िद्द पूरी होने पर,खुश हो जाया करते थे
हँसता, खिलखिलता वो निराला बचपन
ज़िंदगी की धूप से अछूता बचपन
वो बारिश के मौसम का भीगना याद आता…
ContinueAdded by Vasudha Nigam on June 29, 2011 at 10:00am — 15 Comments
स्मृतियों के अनगढ़ कमरे से
अचानक बाहर फुदक आयी हैं कुछ नम रोशनियाँ... /आज फिर.. ..
एक बार फिर
मासूम सी कोशिश की है इनने..
कि, मनाँगन में
कशिशभरी आवारा धूप बन लहर-लहर नाचेंगी..
तुम मेरे साथ हो न हो.... ..
इन रोशनियों के साथ जरूर होना.. ..
...............कोशिश तो करना.. ..
मुझे पता है .. गया समय उल्टे पाँव नहीं चलता..
किन्तु इन भोली-निर्दोष रोशनियों को अब कौन समझाये..
और देखो.. ..
तुम भी मत समझाना..…
ContinueAdded by Saurabh Pandey on June 24, 2011 at 7:30pm — 12 Comments
निस्शब्द स्वरों के कानफोड़ू शोर
चिलचिलाते मौन की बेधती टीस
लगातार भींचती जाती दंत-पंक्तियों में घिर्री कसावट
माज़ी का गाहेबगाहे हल्लाबोल करते रहना..... ....
जब एकदम से सामान्य हो कर रह जाय..
तो फिर...
कागज़ के कँवारेपन को दाग़ न लगे भी तो कैसे?
आखिर जरिया भर है न बेचारा ..
/एक माध्यम भर../
कुछ अव्यक्त के निसार हो जाने भर का
महज़ एक जरिया ... ...और....
किसी जरिये की औकात आखिर होती ही क्या है ?
उसके…
ContinueAdded by Saurabh Pandey on June 24, 2011 at 8:09pm — 11 Comments
आओ साथी बात करें हम
अहसासों की रंगोली से रिश्तों में जज़्बात भरें हम..
रिश्तों की क्यों हो परिभाषा
रिश्तों के उन्वान बने क्यों
हम मतवाला जीवनवाले
सम्बन्धों के नाम चुने क्यों
तुम हो, मैं हूँ, मिलजुल हम हैं, इतने से बारात करें हम..
आओ साथी बात करें हम.........
शोर भरी ख्वाहिश की बस्ती--
--की चीखों से क्या घबराना
कहाँ बदलती दुनिया कोई
उठना, गिरना, फिर जुट जाना
स्वर-संगम से अपने श्रम के, मन…
ContinueAdded by Saurabh Pandey on June 22, 2011 at 6:30pm — 18 Comments
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