संघर्ष,
कहीं भी हो ,
कैसा भी हो,
होता, बहुत बुरा है ,
बहुत तड़पाता है,
काटता है ,
दुधारा छुरा है !
लेकिन,
संघर्ष न हो ,
तो सूख जाता है ,
मन का चमन ,
हर हाल में,हरा रखे ,
आदमी को,
संघर्ष वो सुरा है !
डरता,
जो पीने से ,
संघर्ष के,
छलकते हुए पैमाने ,
उस आदमी का जीवन,
बड़ा बेरंग,
बड़ा बेसुरा है !
लड़ता ,
हर आदमी…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on January 26, 2015 at 2:00am — 12 Comments
सुख-दुःख तो आते जाते हैं...................................
सुख-दुःख तो आते जाते हैं, राही मत घबरा जाना रे !
जीवन की गहरी नदियाँ में, हँसकर पतवार चलाना रे !
हमने कुछ देखी रीत यहाँ,..................................
हमने कुछ देखी रीत यहाँ, श्रम से ही सब कुछ मिलता है !
ईमान –धरम के काँटों में, तब फूल मुकद्दर खिलता है !
दौलत तो आनी जानी है.................................
दौलत तो आनी जानी है, ना मन इसमें उलझाना रे…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on January 20, 2015 at 6:00pm — 21 Comments
सोचता हूँ मैं ,तुम कौन हो ?
सखी हो ,ईश्वर हो,
तुम मेरा प्यार हो,
तुम मेरा संसार हो !
करुणा हो, दुलार हो,
प्रेम की पुकार हो ,
तुम जीवन-आधार हो !
जीवन हो, स्पन्दन हो,
साँसों का गुंजन हो ,
तुम मेरा चिंतन हो !
हिम्मत हो जोश हो,
शक्ति का श्रोत हो,
प्रेम से ओत-प्रोत हो !
गगन हो , सर्जन हो,
सृष्टी का वरदान हो,
तुम मेरा अभिमान हो…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on January 19, 2015 at 6:27pm — 16 Comments
“अरे क्या हुआ ये भीड़ कैसी है, कोई मर गया है क्या ?”
“हाँ यार वो साहब का नौकर, अरे वही यार जो साहब के घर के सारे काम करता था, झाड़ू - पोछा, चूल्हा-चौका ,बर्तन माँजने से लेकर सब्जी-भाजी लाने तक....जिसे साहब गाँव से लेकर आये थे, कहते थे चपरासी रखवा दूंगा डिपार्टमेंट में !”
“ओह वो गूंगा, वो तो बड़ा ही भला था और ठीक-ठाक भी, कैसे मरा ?”
“दोस्त, सब कह रहें हैं आत्महत्या कर ली, पर यार तू बताना मत किसी को, मेमसाहब की चेन चोरी हो गयी थी, कल रात पुलिस भी आई थी, बहुत मारा उसे, पर वह…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on January 18, 2015 at 1:57am — 20 Comments
अखण्ड आर्यावर्त की, उमंग वंदे मातरम् !
सुना रही है गंग की, तरंग वंदे मातरम् !!
बुद्ध-कृष्ण-राम की, पुनीत –भूमि पावनी !
सुहार्द सम्पदा अनन्त, श्ष्यता संवारती !
सतार्थ धर्मं युद्ध में, सशक्त श्याम सारथी !
परार्थ में दधीचि ने, स्वदेह भी बिसार दी !!
निनाद कर रही उभंग, बंग वंदे मातरम् !
सुना रही है गंग की, तरंग वंदे मातरम् !!
धर्मं-जाति-वेश में, जरूर हम अनेक हैं !
परम्परा अनेक और बोलियाँ अनेक हैं…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on January 16, 2015 at 12:30am — 20 Comments
आत्मायें,
बिक चुकीं हैं,
बेचीं जा रहीं हैं,
कुछ असहाय,बिचारीं हैं,
कुछ म्रत्प्रायः,
कुछ मर चुकी हैं !
शरीर,
उन मृत आत्माओं का,
बोझ ढोए जा रहें हैं !
शब्द,
खो चुके अपना अर्थ,
उन अर्थहीन शब्दों से,
अच्छे दिनों के नारे लगा रहें हैं !
पैर,
चलना नहीं चाहते,
उन अनिच्छुक पैरों को ,
अच्छे दिनों की आस में,
कंटक पथों पर जबरन चला रहें हैं !
ईश्वर,
रंगमंच पर विद्यमान…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on January 14, 2015 at 1:08am — 19 Comments
बाउजी, आखिरकार वो “रोडियो वाली फिल्म” ने झंडे गाड़ दिए ,सनसनी पैदा कर दी है, और साहब सुना है की हीरो ने और जिसने फिल्म बनाई है उसने “करोड़ों रूपये अन्दर कर लिए हैं “ !
“हाँ बात तो सही कह रहा है तू .........तूने देखी है वो फिल्म ?”
नहीं साहब पैसे नहीं जुटा पाया, मैं लोगों के जूते सिलता ,पॉलिश करते हुए यहीं लोगों से उसकी कहानी सुनता रहता हूँ !!
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित"
Added by Hari Prakash Dubey on January 13, 2015 at 10:33pm — 19 Comments
लग गयी हमारे-तुम्हारे प्यार को,
कुछ हवा शायद जो नज़र होती है !
और नज़र उतारती थी जो अम्मा,
अब कौन जानता किधर सोती है !
मुस्कराते थे पनघट, जो हम पर ,
उनकी हँसी अब उन्हीं पर रोती है !
लगे हमारे तुम्हारे मिलन पर पहरे,
दीवार हर बात- बात पर रोती है !
मिल नहीं पाता मैं अब तुमसे ,
तुमसे ख्वाबों में मुलाकात होती है !
दिन नहीं होता धरती पर अब ,
अब धरती पर सिर्फ रात होती…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on January 11, 2015 at 4:30pm — 19 Comments
जब भी उमड़ घुमड़ कर काले बादल नभ में आते हैं,
पुरवाई के झोंके आ आकर चुप-चुप दस्तक दे जातें हैं !
मेरे कानों में आ चुपके से तुम कुछ कह जाती हो,
मुझको लगता फिर बार-बार तुम अपने गावँ बुलाती हो !!
कहती हो आकर देखो फिर ताल-तललिया भर आई,
आकर देखो वन उपवन में फिर से हरियाली छाई !
शुष्क लता वल्लारियाँ भी अब दुल्हन बन इठलाती हैं,
कुञ्ज बनाकर आँख मिचौली खेल –खेल मुस्कातीं हैं !!
बुढा बरगद फिर छैला बन पुरवाई संग झूम रहा…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on January 9, 2015 at 2:00am — 14 Comments
लेकर बेठे हो, सारी नदियाँ
अनंत मूल्यवान, वनस्पतियाँ
भरपूर वन्य-जीव प्रजातियाँ
दिव्य देवताओं की, सम्पतियाँ
फिर भी करते रहते हो तुम
हरे भरे हिमालय, के लिए
आन्दोलन पर आन्दोलन
दिल्ली दरबार, वातानुकूलित कमरे
निशा में, आचमन पर आचमन
हमसे पूछो, हम कैसे जीते हैं
अपनी आँखों के आंसू पीते हैं
यहाँ सूख चुकी सारी नदियाँ
नष्ट हो गयी वनस्पतियाँ
लुप्तप्राय वन्य जीव प्रजातियाँ
लुट गयी देवों की…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on January 7, 2015 at 5:00pm — 20 Comments
मरुस्थलीय मृगतृष्णा
*****************
तुम कहती हो
प्रतिभाशाली बनो
पर मैं असक्त
प्रतिभाओं का बोझ
उठा नहीं सकता
मरुस्थलीय मृगतृष्णा के
पीछे भाग नहीं सकता
जिस शून्यता की अवस्था में
जी रहा हूँ , क्या उसमे
तुमको पा नहीं सकता ?
मुझ शुन्य को अब
तुम्हारा ही सहारा है
तुमसे जुड़कर ही मेरा
कोई आधार बनेगा
यह गतिहीन जीवन
कुछ आगे बढेगा
मेरे हृदय के पवित्र भावों…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on January 5, 2015 at 12:30pm — 19 Comments
"देखिये श्रीमान आपका बेटा फिर से हर विषय में फेल हो गया है, किसी में 5, किसी में 6, किसी में 7 नंबर, इसीलिए आपको बुलाना पड़ा I लीजिये आप खुद ही इसकी सारी कॉपी देख लीजिये I" "
"अरे गुरूजी ये लीजिये, अब लिफाफा पकड भी लीजिये, आपका ही बच्चा है ,बस एक-एक शून्य लगा दीजिये I"
.
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित"
Added by Hari Prakash Dubey on January 4, 2015 at 1:30pm — 12 Comments
नवजीवन में नव आशा से
नव नूतन कुछ कर्म करें
नव भक्ति से नव शक्ति से
शुभ नया वर्ष प्रारम्भ करें !
नयी सोच हो नए इरादे
नव सरिता की गागर हो
लक्ष्य नए आयाम नए
नव अभिलाषा का सागर हो !
नव बातें नव किस्सें हो
पर पीपल वही पुराना हो
हो ताल नयी हो राग नए
पर मन में वही तराना हो !
हो नया जोश हो नया सफ़र
नव नौका हो नव धारा हो
नव रिश्तें हों नव जीवन के
पर प्रेम पुरातन प्यारा हो…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on January 2, 2015 at 7:00pm — 20 Comments
राजा बहुत हैं, शतरंज के इस खेल में,
इनक़लाब का शोर कब तक मचाओगे ?
अभाव बहुत हैं, अंधेरों के इस खेल में ,
गीत उजियारो के कब तक सुनाओगे ?
तलवारें बहुत हैं, अधर्म के इस खेल में,…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on January 2, 2015 at 3:10am — 17 Comments
कभी निकटता रिश्तों में ,
ज्यों सागर की गहराई !
कभी दूरियाँ अपनों में,
ज्यों अम्बर की ऊँचाई !
कभी सहजता चुप्पी में,
कभी जटिलता बोली में !
कभी बर्फ मैं ज्वाला किंतु,
आंच नहीं अब होली मैं !
कहीं मोहब्बत की म्यानों में,
रखी बैर की शमशीरें !
कहीं इबारत उलटी यारों ,
जहाँ लिखी हैं तक़दीरें !
कहीं सत्य एक झंझट,
कही झूठ है सुलझा !
कहीं किसी ने जाल बिछाया
खुद ही आकर उलझा…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on December 31, 2014 at 7:30pm — 10 Comments
और भाई, इस बार तो तूने पूरी राम लीला देख ली क्या सीखा ?
भईया, रामचरितमानस की कथा के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ की पिता का कहना नहीं मानना चाहिए, इससे बहुत तकलीफ उठानी पड़ती है !!
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित"
Added by Hari Prakash Dubey on December 30, 2014 at 11:55pm — 9 Comments
तू प्यार की राहों में चलना
बस प्यार ही जिंदगी होवे
तू यार तो सच्चा न हो
पर प्यार तो सच्चा होवे,-2
तू देख के लगे फकीरा
पर दिल का फ़कीर न होवे,
तू यार तो सच्चा न हो
पर प्यार तो…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on December 28, 2014 at 10:00pm — 14 Comments
वसुंधरा की त्रासदी,
कारण था पतझार !
वसन्त आगमन हुआ,
उपवन में आया निखार !!
प्रफुल्लित हुई नव कोपल,
पल्लव मुस्करा रहे !
सतरंगी सुमनों पर,
भ्रमर हैं मंडरा रहे !!
प्रकृति की सात्विक सुन्दरता,
अपनी प्रकृति मैं उतार लें !
आस्था, विश्वास के सूखे,
पल्लव को फिर संवार लें !!
संस्कारों की पौध लगा,
धरा को निखार लें !
प्रकृति के सन्देश को,
जन-जन स्वीकार लें…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on December 28, 2014 at 4:30am — 10 Comments
कल से तुम नहीं
तुम्हारी यादें आएँगी
गिरेगी बूंदें आँखों से
समुन्दर बन जायेंगी
रो- रो कर मैं भी
समुन्दर भर दूंगा
पर तुम्हे मन की बात कहूँगा
जब नए शब्द बुन लूँगा !!
तुम साधारण नहीं
साधारण शब्द तुम्हारे नहीं
तुम्हे प्यार करता हूँ
इन अर्थहीन शब्दों को,
तुमसे कभी नहीं कहूँगा
नयी उपमायें गढ़ लूँगा
पर तुम्हे मन की बात कहूँगा,
जब नए शब्द बुन लूँगा !!
तुमसे बात नहीं…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on December 26, 2014 at 11:00am — 5 Comments
मैं सूर्य के
गर्भ में पला हूँ
मैं अपने ही
अंतर्द्वंदों की आग में
तिल -तिल जला हूँ
अनगिनत दी हैं
अग्नि परीक्षायें
और उन क्रूर परीक्षाओं में
हरदम खरा उतरा हूँ
आसमां से मैं
धरती पर गिरा हूँ
अपने आप से ही
मैं निरंतर लड़ा हूँ
मैंने प्रसन्नचित्
मर्मान्तक पीड़ा के
पहाड़ को झेला है
हसं हसं कर
आग से खेला है
तपस्वी सा तपा हूँ
नहाया हूँ डूबकर
समुद्र…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on December 25, 2014 at 4:30am — 12 Comments
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