मैं पहुंचा ही था कि मुझे अपने घर से दो अजनबी लड़के निकलते हुए दिखाई दिए. इससे पहले कि मैं उनकी बाबत कुछ जान पाता. वे बाईक पर बैठकर रफ्फूचक्कर हो गये.
दरवाजे पर बेटा खडा था. मैंने उसकी ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा तो उसने बताया कि डोमेस्टिक गैस सर्विस’ से आये थे .यह वही गैस सर्विस थी जहां से मेरे घर एल पी जी सिलिंडर आता है.
‘क्यूँ आये थे ?’- मैंने यूँ ही पूंछ लिया.
‘अपना गैस स्टोव चेक करने आये थे ?’
‘ स्टोव-------मगर क्यों ?’ मैं हैरत में पड़ गया –‘ जब चूल्हा…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 23, 2017 at 7:09pm — 6 Comments
ट्रेन के चलते ही एक तरुण दैनिक यात्री द्वितीय श्रेणी के स्लीपर क्लास में दाखिल हुआ. आरक्षित श्रेणी के यात्री अधिकांशतः अपनी बर्थ पर अधपसरे हुए थे . एक बर्थ के कोने पर खाली जगह देखकर वह बैठने जा ही रहा था कि उस पर बैठे अधेड़ व्यक्ति ने गुर्राकर कहा –‘आगे बढ़ो,…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 6, 2017 at 8:54pm — 2 Comments
221 221 212
वह दौर था जो गुजर गया
था इक नशा जो उतर गया
देखा था उसने फरेब से
दिल आशिकाना सिहर गया
मुफलिस समझ के जनाब वो
पहचानने से मुकर गया
जिस पर भरोसा किया बहुत
वह यार जाने किधर गया
जब साथ था तो कमाल था
अब जिन्दगी का हुनर गया
इक ठेस ही थी लगी मुझे
मैं कांच सा था बिखर गया
जिस नाग ने था डसा मुझे
मैंने सुना है कि मर…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 7, 2017 at 9:19pm — 10 Comments
दुनिया का सबसे अद्भुत
पति पत्नी के बीच अमर प्रेम का स्मारक
विश्व के तथाकथित आश्चर्यों में से एक
जहा दफ़न है दो आत्माएं
जिसे बनवाया था
मुग़ल शहंशाह शाहजहाँ ने
अपने बेमिसाल पत्नी प्रेम के आडम्बर में
या फिर अपने वैभव की झूठी शान में
जो उसके बेटे ने ही ख़त्म की
उन्हें कैद में डालकर
ताजमहल
जिसे खुद शाहजहाँ ने नहीं बनाया
उसे गढा था
उस युग के बेमिसाल वास्तुकारों ने
स्तब्ध किया था दुनिया…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 2, 2017 at 8:54pm — 5 Comments
दूर से ढोल मजीरे की ताल पर हुरियारों की आवाज आ रही थी – ‘अवध माँ राना भयो मरदाना कि हाँ--- हाँ -----राना भयो मरदाना ‘
हाथ में पिचकारी लिए एक युवक ने किसी वृद्ध से पूंछा – ये राना कौन है ? कौनो बड़े हुरियार थे का जो इनके नाम की होरी गाई जा रही है.’
बुजुर्ग ने आश्चर्य से युवक की और देखा और कहा –‘तुम का पढ़े हो, तुम्हे अपने बैसवारे का इतिहास भी नहीं मालूम. अरे राना यहीं शंकरपुर के ताल्लुकेदार थे, जिन्होंने सन सत्तावन की क्रान्ति में अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई लड़ी और आखिर तक…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 14, 2017 at 9:12pm — No Comments
2112 2112 2112 2112
रात ढली मुझे पिला और जहर और जहर
इश्क ही ढाता है सदा और कहर और कहर
गाँव से भी दूर हुयी सुरमई माटी की गमक
दीखता हर ओर जिला और शहर और शहर
मौसम अब यार मुझे खुशनुमा लगते है सभी
दिल में उठती है लहर और लहर और लहर
रात ये बचपन की बड़ी सादगी में बीत गयी
अब है जवानी की सहर और सहर और सहर
जोश में सागर तू मचल आज है पूनम की कला
बीच लहर चाँद खिला…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 16, 2017 at 10:16pm — 7 Comments
221 2121 1221 212
बदनाम है जरूर मगर नाम तो हुआ
अफसाना जिदगी का सरे आम तो हुआ
आँखों में बंद था कभी सागर शराब का
वह तज्रिबे आशिक से लबे जाम तो हुआ
महफिल थी जम गयी उनके खयाल की
था जश्न थोड़ी देर पर दिल-थाम तो हुआ
उतरा था एक बार मुहब्बत की जंग में
नाकाम जंग होना था नाकाम तो हुआ
कहते है यार इश्क है अंजाम-बद बहुत
होना था जो अंजाम वो अंजाम तो…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 15, 2017 at 8:39pm — 13 Comments
1222 1222 1222 1222
कहो तो घोल दें मिसरी ये हम अधिकार रखते हैं
सिराओं में जहर भर दे वो हम फुफकार रखते हैं
बहुत से बेशरम आते हैं छुप –छुप कर हमारे घर
उन्ही के दम से हम भी हैसियत सरकार रखते हैं
दिखाते है हमें वे शान-शौकत से झनक अपनी
तो उनसे कम नहीं घुँघरू की हम झनकार रखते हैं
छिपे होते है आस्तीनों में अक्सर सांप जहरीले
इधर हम बज्म में उनसे बड़े फनकार रखते…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 7, 2017 at 8:13pm — 12 Comments
122 122 122 12
कि जब आप उनके कहाने लगे
मुझे सारे वादे बहाने लगे
किया चाक दिल था हमारा अभी
महल ख्वाब का क्यूँ ढहाने लगे
यकीं था मुझ्र भूल जाओगे अब
गमे याद तुम तो तहाने लगे
कहा था अगम एक सागर हूँ मैं
गजब है कि सागर थहाने लगे
चिता ठीक से जल न पाई अभी
मगर आप गंगा नहाने लगे
(मौलिक/अप्रकाशित)
Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 2, 2017 at 8:00pm — 8 Comments
2122 2122 212
गीत पहले प्यार के मधु छंद सा
नीरजा के झर रहे मकरंद सा
नाव पर संगीत मांझी का मुखर
लोक को देता सुनायी मंद सा
है वही ब्रज और गोकुल की गली
नहीं दिखता किन्तु नंदन-नंद सा
छुप गया जो बांस के पीछे वहाँ
बादलों की ओट में है चंद सा
है मृगी बेचैन, व्याकुल भीत भी
बीहड़ों में कुछ दिखा है फंद सा
देवता सब हो गए है कैद अब…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 25, 2017 at 8:00pm — 5 Comments
2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2
झिलमिल तारों सा सपनो के अम्बर में रहते हो क्यों ?
मलयानिल की मधु धारा सा मानस में बहते हो क्यों?
रेशम सी शर्मीली आँखे गाथा कहती है मन की
निर्ममता के अभिनय क्षण में अंतर्गत चहते हो क्यों?
अंतस में भावों की गंगा यदि पावन है पूजा सी
तो संकल्पों की वर्षा हो फिर पीड़ा सहते हो क्यों?
वृन्दावन की वीथी में तुमने ही झिटकी थी बाहें
फिर उन बाँहों को मंदिर की शाला में गहते हो…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 19, 2017 at 8:30pm — 21 Comments
122 122 122 122
सियासत के जरिये हुआ है धमाका
जुबां बंद करिये हुआ है धमाका
किसे फ़िक्र है अब लहू फिर बहेगा
कि वहशत बजरिये हुआ है धमाका
कहाँ शांति रहती है सरहद पे यारों
ज़रा आँख भरिये हुआ है धमाका
है जाना जरूरी चले जाइयेगा
तनिक तो ठहरिये हुआ है धमाका
बड़ी देर से आप चश्मेकफस में
कि आहिस्ता ढरिये हुआ है धमाका
नहीं खून का खेल गर खेल सकते
तो…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 14, 2017 at 8:58pm — 13 Comments
2122 1212 22
श्याम तेरी अलक में खो जाऊं
एक न्यारे खलक में खो जाऊं
नेह से आँख जो हुयी बोझिल
बंद तेरी पलक में खो जाऊं
तू अँधेरे में काश दिख जाये
और मैं उस झलक में खो जाऊं
रूप ऐसा कि थे सभी पागल
मैं उसी छवि-छलक में खो जाऊं
है सुना वह तेरा ठिकाना है
तो चलूँ उस फलक में खो जाऊं
(मौलिक /अप्रकाशित…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 1, 2017 at 8:00pm — 13 Comments
अँधेरा हो गया था
मेले से लौटने में
जब बैलगाड़ी के पहिये में
फंस गया था
मेरी बेटी का दुपट्टा
जो पहिये के घूर्णन के साथ-साथ
कसता गया
मेरी बेटी के गले में
और तब गया सबका ध्यान
जब घुटी -घुटी सी चीख
निकली उसके मुख से
हठात बैलों की लगाम
खींची गाडीवान ने
और बैल पैर उठाकर
पीछे की और धसके
पहिये में फंसे दुपट्टे को
आहिस्ता से निकाल कर
छुड़ाया गया उसका गला
उस काल-फंद…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 28, 2016 at 8:20pm — 17 Comments
गाँव में था
एक भवानी का चौतरा
कच्ची माटी का बना
जिसके पार्श्व में लहराता था ताल
जिसके किनारे था एक देवी विग्रह
छोटा सा
चबूतरे को फोड़कर बीच से
निकला था कभी एक वट वृक्ष
जो विशाल था अब इतना
कि आच्छादित करता था
पूरे चबूतरे को
साथ ही देवी विग्रह को भी
अपने प्रशस्त पत्तों की
घनीभूत छाया से
और लटकते थे
इसकी शाखाओं से अरुणिम फल
फूटते थे
शत-शत प्राप-जड़…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 24, 2016 at 10:00pm — 7 Comments
आकाश से
गिरती है बिजली
और एक हरा भरा पेड़
अचानक बदल जाता है
एक काले ठूंठ में
भीतर तक
किसी काम नहीं आती
वह जली लकड़ी
सिवाय सुलगने के
धुवां छोड़ने के
अपने अंतिम सांस तक
और रह जाता है एक
अलिखित शिलालेख
ध्वंस का इतिहास समेटे
मौन स्तब्ध उदास जड़
निर्जीव
हमारे पूर्वज
लीपते थे गोबर से
माटी के घर
और उसकी दीवारें
क्योंकि वह मानते…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 12, 2016 at 6:09pm — 4 Comments
ओ मेरे आकाश !
पिता थे तुम
असीम अपरिमाप
सितारों की पहुँच से भी दूर
और मैं पर्वत की भाँति बौना
अपने उठान का अभिमान लिए
तब नहीं जानता था
यह फर्क
जब तुम मेरे पास थे
अनंत विस्तार लिए
भले ही
आज बन जाऊं मैं ऊंचा
चोमोलुंगमा
यानि कि सागरमाथा
दुनियां का सर्वोच्च हिमशिखर
एवरेस्ट ---
ओ मेरे आकाश !
सदा ही रहोगे तुम
अनंत ऊँचाइयों पर
ऊंचे और उन्नत
कई-कई…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 5, 2016 at 7:30pm — 10 Comments
सात नदियाँ मिलती हैं
गुजरात के कच्छ में
समुद्र से
उस स्थल पर
जिसे ‘रण’ कहते है
और जहां सबसे खारा होता है
समुद्र का पानी
नमक बनाने के लिए
जिसे हम लवण भी कहते है
और इसी से बनता है
एक मोहक शब्द
लावण्य
जो प्रकट करता है
मनुष्य के जीवन और उसके रंगों में
नमक की महत्ता, उपादेयता और स्वाद
पर
कभी किसी ने सोचा है गोर्की की भाँति
कि किस संत्रास में जीते है
नमक…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 23, 2016 at 8:00pm — 7 Comments
2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2
इंसानी फितरत के जलवे दिन ये कैसे आये हैं
सन्नाटा गलियों में छाया संगीनों के साये हैं
चप्पे-चप्पे पर दिखता है आतुर सैनिक का पहरा
धरती की रक्षा करने की शत-शत कसमे खाये हैं
कुछ तो अजगुत कहता है यह सघन सुरक्षा का घेरा
क्या फिर से तारामंडल में घन संकट के छाये हैं
पोथी लेकर भोली बाला घूम रही वीराने में
अक्षर ने शब्दों से मिल कर गीत सुहाने गाये हैं
खौल रहा है खून वतन…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 19, 2016 at 7:27pm — 4 Comments
रात के सन्नाटे में
कहते हैं
आज भी रोती है वह नदी
जिन्होंने भारत में
पूर्व से पश्चिम की ओर
ऊंचाइयों पर
पथरीले कगारों के बीच से
बहती उस एक मात्र पावन चिर-कुमारिका
नदी का आर्तनाद कभी सुना है
जिन्होंने की है कभी उसकी
दारुण परिक्रमा
जो विश्व में
केवल इसी एक नदी की होती है ,
हुयी है और आगे होगी भी
वे विश्वास से कहते है -
‘इस नदी में नहीं सुनायी देती
रात में…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 12, 2016 at 8:00pm — 11 Comments
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