खाब की ताबीर होने से रही
ऐसी भी तकदीर होने से रही
पहले सी झुकती नहीं तेरी नज़र
अब कमां ये तीर होने से रही
चाहे जितने रंग भर लो खाब के
पानी मे तस्वीर होने से रही
कर लो पैनी ' फ़िक्र' जितनी तुम कलम
जौक, ग़ालिब, मीर, होने से रही
Added by vikas rana janumanu 'fikr' on November 8, 2010 at 10:25am —
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बाल कविता:
अंशू-मिंशू
संजीव 'सलिल'
*
अंशू-मिंशू दो भाई हिल-मिल रहते थे हरदम साथ.
साथ खेलते साथ कूदते दोनों लिये हाथ में हाथ..
अंशू तो सीधा-सादा था, मिंशू था बातूनी.
ख्वाब देखता तारों के, बातें थीं अफलातूनी..
एक सुबह दोनों ने सोचा: 'आज करेंगे सैर'.
जंगल की हरियाली देखें, नहा, नदी में तैर..
अगर बड़ों को बता दिया तो हमें न जाने देंगे,
बहला-फुसला, डांट-डपट कर नहीं घूमने देंगे..
छिपकर दोनों भाई चल दिये हवा…
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Added by sanjiv verma 'salil' on November 8, 2010 at 6:14pm —
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खयाल जिंदा रहे तेरा..
जिंदगी के पिघलने तक..
और मैं रहूँ आगोश में तेरे..
बन महकती साँसें तेरी..
तुझे पिघलाते हुए अब..
पिघल जाना मुकद्दर है..
बह गया देखो तरल बनकर..
अनजान अनदेखे नये..
ख्वाहिशों के सफर पर..
तुझे छोड़कर तुझे ढूँढने..
खामोश पथ का राही बन..
बेसाख्ता ही दूर तक..
निकल आया हूँ मैं..
सुनसान वीराने में तुझे पाना..
तेरी वीणा के तारों को..
नए सिरे से झंकृत..
कर पाना मुमकिन नहीं..
तुझसे दूर,…
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Added by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on November 7, 2010 at 12:00am —
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मधु गीति सं. १५०१ दि. ४ नवम्बर २०१०
आयी है दीवाली, घर घर में खुशहाली;
नाचें दे सब ताली, विघ्न हरें वन माली
जागा है मानव मन, साजा है शोधित तन;
सौन्दर्यित भाव भुवन, श्रद्धा से खिलत सुमन.
मम उर कितने दीपक, मम सुर खिलते सरगम;
नयनों में जो ज्योति, प्रभु से ही वह आती.
हर रश्मि रम मम उर, दीप्तित करती चेतन;
हर प्राणी ज्योतित कर, देता मम ज्योति सुर.
सब जग के उर दीपक, ज्योतित करते मम मन;
हर मन की दीवाली, मम मन की दीवाली.
Added by GOPAL BAGHEL 'MADHU' on November 7, 2010 at 1:02pm —
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नव गीत
संजीव 'सलिल'
मौन देखकर
यह मत समझो,
मुंह में नहीं जुबान...
शांति-शिष्ट,
चिर नवीनता,
जीवन की पहचान.
शांत सतह के
नीचे हलचल
मचल रहे अरमान.
श्याम-श्वेत लख,
यह मत समझो
रंगों से अनजान...
ऊपर-नीचे
हैं हम लेकिन
ऊँच-नीच से दूर.
दूर गगन पर
नजर गड़ाये
आशा से भरपूर.
मुस्कानों से
कर न सकोगे
पीड़ा का अनुमान...
ले-दे बढ़ते,
ऊपर चढ़ते,
पा लेते हैं…
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Added by sanjiv verma 'salil' on November 4, 2010 at 8:38pm —
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ग़ज़ल
आग नहीं कुछ पानी भी दो
परियों की कहानी भी दो |
छोटे होते रिश्ते नाते
मुझको आजी नानी भी दो |
दूह रहे हो सांझ-सवेरे
गाय को भूसा सानी भी दो |
कंकड पत्थर से जलती है
धरा को चूनर धानी भी दो |
रोजी रोटी की दो शिक्षा
पर कबिरा की बानी भी दो |
हाट में बिकता प्रेम दिया है
एक मीरा दीवानी भी दो |
जाति धर्म का बंधन छोडो
कुछ रिश्ते इंसानी…
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Added by Abhinav Arun on November 3, 2010 at 10:00am —
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कल मर गया
किशनु का बूढा बैल,
अब क्या होगा...
कैसे होगा...
चिंतातुर,सोचता-विचारता
मन ही मन बिसूरता
थाली में पड़ी रोटी
टुकड़ों में तोड़ता
सोचता,,,बस सोचता...
बोहनी है सिर पर,
हल पर
गडाए नज़र,
एक ही बैल बचा...
हे प्रभु,
ये कैसी सज़ा...!!!
स्वयं को बैल के
रिक्तस्थान पे देखता..
मन-ही-मन देता तसल्ली
खुद से ही कहता,
मै ही करूँगा...हाँ मै ही करूँगा...
बैल ही तो हूँ मै,
जीवन भर ढोया बोझ,
इस हल का भी…
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Added by Roli Pathak on November 2, 2010 at 2:00pm —
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मिटा सके जो
अन्तस का अंधेरा
रौशनी कहाँ
सागर में भी
गहराइयाँ कहाँ
डुबा सके जो
पैसा ही पैसा
पर नहीं है कहीं
मन का सुख
खुश हो सकें
सबकी खुशी पर
वो खुशी कहाँ
Added by Neelam Upadhyaya on November 1, 2010 at 1:55pm —
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ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार के नये सदस्यों को दिक्कत हो रही है कि "OBO लाइव महा इवेंट" मे अपनी रचना कैसे पोस्ट करे ?
मैं कुछ स्क्रीन शाट के सहयोग से बताना चाहूँगा ...................
१- सबसे पहले मुख्य पृष्ठ से फोरम से "OBO लाइव महा इवेंट" को क्लिक करे ........
२- जो बॉक्स खुला उसमे अपनी रचना लिख पोस्ट करे
३- यदि किसी की रचना के ऊपर टिप्पणी देनी हो तो नीचे दिये स्क्रीन शाट को देखे ...…
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Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on November 1, 2010 at 5:58pm —
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ग़ज़ल
कहूँ कैसे कि मेरे शहर में अखबार बिकता है
डकैती लूट हत्या और बलात्कार बिकता है |
तेरे आदर्श तेरे मूल्य सारे बिक गए बापू
तेरा लोटा तेरा चश्मा तेरा घर-बार बिकता है |
बड़े अफसर का सौदा हाँ भले लाखों में होता हो
सिपाही दस में और सौ में तो थानेदार बिकता है |
वही मुंबई जहाँ टाटा अम्बानी जैसे बसते हैं
वहीं पर जिस्म कईओं का सरे बाज़ार बिकता है |
चुने जाते ही नेता सारे…
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Added by Abhinav Arun on October 30, 2010 at 3:24pm —
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उफ्फ..! ये सभ्य समाज के लोग..
कहते हैं इंसान स्वयं को
पर इंसानियत को समझ ना पाएँ I
जिस माँ ने पाल-पोसकर
इनको इतना बड़ा बनाया
बाँधकर उनको जंज़ीरों में
जाने कितने बरस बिताएँ I
उफ्फ..! ये सभ्य समाज के लोग..
तेईस बेंचों की कक्षा इनको
भीड़ भरा इक कमरा लगती
पर डिस्को जाकर
हज़ारों की भीड़ में
अपना जश्न खूब मनाएँ I
उफ्फ..! ये सभ्य समाज के लोग..
कॉलेज में नेता के आगे
बाल मज़दूरी पर
वाद विवाद कराएँ
और…
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Added by Veerendra Jain on October 30, 2010 at 5:30pm —
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आकाश के उस कोने मे जहाँ मेरी दृष्टि की सीमा है….
देखता हूँ किसी ना किसी पक्षी को नित्य ही ….
क्या यह मेरा अरमान है ?
एकाकी ही दूर तक उड़ते जाना.. सत्य की खोज मे….
क्या यह मेरे मन का भटकाव है ?
कभी उत्साह की बरसात होती है…
आशाओं का सवेरा
मन के अंधेरे को झीना कर जाता है…..
और तब दिखते हो तुम मुझे,
आनंद मे नहाए एकदम तरोताज़ा
सूरजमुखी का एक फूल…
यह नही है कोई भ्रम या भूल.
वर्जनाओं के कड़े पहरे मे
जब दीवाले कुछ मोटी होजाती…
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Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on October 29, 2010 at 9:00am —
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नीरव-गुमसी चट्टानों पर
कटी-पिटी उभरी रेखाएँ
उन्मत्त काल का
हिंस्र वज्र-नख
जगह-जगह से नोंच गया है..।
अभिलाषा है कुछ विक्षिप्त
स्वप्न बच गए जूठे-जूठे
मसले थकुचे नुचे-चुथे से
स्वप्न बच गए जूठे-जूठे
धूसर उपलों की धूप तापती
विवश बिसुरती ध्वनि अकेली
अशक्त नव-जन्मी बाला-सी पसरी..
उठा सके बस भार श्वाँस का निश्चय का जी तोड़ परिश्रम..
कि,
मुँदी
उठी
झपकी
ठिठकी
रुक-ठहर
परख
तकती... .. तबतक…
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Added by Saurabh Pandey on October 28, 2010 at 6:00am —
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चातक मन प्यासा फिरे, दोनों आँखें मूँद .
पियूँ-पियूँ रटता रहे, पिए न एको बूँद ...
प्यास कैसे बुझ पाय ?
मन की मन में रह जाय...
रूठा आज गुलाब है, मधुकर है बेचैन
भूली सारी गायकी,कटे न काटे रैन
कहाँ बोलो अब जाय..
प्रीति को कैसे पाय?
स्वाति टपके सीप में, मोती सी बन जाय
रेत,पंक में जा गिरे , तो दलदल ही कहलाय
संग का असर न जाय
कोई कैसे समझाय ?
मंहगाई सुरसा भई, अतिथि हुए हनुमान...
सुरसा-मुख घटना नहीं,तुम्ही घटो मेहमान...
कोई अब क्या…
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Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on October 26, 2010 at 10:30pm —
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मौत !
तिमिर की गहराईयों सी
भयानक
जीवन को निगलने को
तत्पर
जीवन पर्यंत
लक्षित यह अंत
मौत !!
शारीरिक शक्ति का ह्रास
पोषक तत्वों का विनाश
या
काया का परिवर्तन
पुरातन से नूतन
मौत !!!
आती है चुपके-चुपके
प्राण को निगलने के लिए
मिट्टी को मिट्टी में
मिलाने के लिए
मौत !!!!
नहीं... नहीं... !
मौत नहीं मोक्ष
कष्टों से मुक्ति का
जीवन का अंतिम लक्ष्य
~शशि
Added by Shashi Ranjan Mishra on October 21, 2010 at 8:28pm —
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नवगीत:
नफरत पाते रहे प्यार कर
संजीव 'सलिल'
*
हर मर्यादा तार-तार कर
जीती बाजी हार-हार कर.
सबक न कुछ भी सीखे हमने-
नफरत पाते रहे प्यार कर.....
*
मूल्य सनातन सच कहते
पर कोई न माने.
जान रहे सच लेकिन
बनते हैं अनजाने.
अपने ही अपनापन तज
क्यों हैं बेगाने?
मनमानी करने की जिद
क्यों मन में ठाने?
छुरा पीठ में मार-मार कर
रोता निज खुशियाँ उधार कर......
*
सेनायें लड़वा-मरवा
क्या चाहे…
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Added by sanjiv verma 'salil' on October 22, 2010 at 1:30am —
4 Comments
मैंने न जाना प्यार क्या है,
रिश्ता ऐ दर्द का अहसाह सा क्यूं है ?
साया-ऐ-दरख्तों पे पहुँच न सकी जो रौशनी,
उस रौशनी का इक अहसास सा क्यों है ?
ता उम्र ना खुल के मिल सकी जो सासें
उस प्राणवायु की कमी पे भी ये सांस क्यूं है ?
सूख चुके है जो धारे नदी से
फिर भी आज ये नयन नम से क्यूं है ?
ता उम्र ढूंढती रही जिस रौशनी को
उस सूरज का अहसास सा क्यों है.
जिंदगी तो जी के भी जी ना पाई ,
फिर भी, मौत के बाद इक -
जिंदगी का इन्तजार सा क्यूं है…
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Added by Dr Nutan on October 21, 2010 at 5:30pm —
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सांझ की पंचायत में..
शफ़क की चादर में लिपटा
और जमुहाई लेता सूरज,
गुस्से से लाल-पीला होता हुआ
दे रहा था उलाहना...
'मुई शब..!
बिन बताये ही भाग जाती है..'
'सहर भी, एकदम दबे पांव
सिरहाने आकर बैठ जाती है..'
'और ये लोग-बाग़, इतनी सुबह-सुबह
चुल्लुओं में आब-ए-खुशामद भर-भर कर
उसके चेहरे पे छोंपे क्यूँ मारते हैं?"
उफक ने डांट लगाई-
'ज्यादा चिल्ला मत..
तेरे डूबने का वक़्त आ गया..'
माँ समझाती थी-
"उगते…
Added by विवेक मिश्र on October 21, 2010 at 1:00pm —
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ढलती हुई शाम ने
अपना सिंदूरी रंग
सारे आकाश में फैला दिया है,
और सूरज आहिस्ता -आहिस्ता
एक-एक सीढ़ी उतरता हुआ
झील के दर्पण में
खुद को निहारता
हो रहा हो जैसे तैयार
जाने को किसी दूर देश
एक लंबे सफ़र पर I
काली नागिन सी,
बल खाती सड़कों पर
अधलेते पेड़ों के सायों के बीच
मैं,
अकेला,
तन्हा,
चला जा रहा हूँ
करता एक सफ़र,
इस उम्मीद पर
कि अगले किसी मोड़ पर
राहों पर अपनी धड़कनें बिछाए
तुम करती होगी…
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Added by Veerendra Jain on October 20, 2010 at 1:08am —
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इक अट्टहास... गूंजा...
पल को चौंक... देखा चारो ओर...
पसरा था सन्नाटा... ... ...
वहम समझ, बंद की फिर आँखें...
मगर फिर हुई पहले से भयानक, और ज्यादा रौद्र गूँज...
उठ बैठ... तलाशा हर कोना डर से भरी आँखों ने...
सिवाए मेरे और सन्नाटे के, ना था किसी का वजूद मगर...
तभी सन्नाटे को चीरती इक आवाज नें छेड़ा मेरा नाम...
कौन... ... ...???
बदहवास-सी... इक दबी चीख निकली मेरी भी...
तभी देखा... अपना साया... जुदा हो…
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Added by Julie on October 15, 2010 at 10:30pm —
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