( २१२२ २१२२ २१२ )
क्या हुआ कोशिश अगर ज़ाया गई
दोस्ती हमको निभानी आ गई |
बाँधकर रखता भला कैसे उसे
आज पिंजर तोड़कर चिड़िया गई |
चूड़ियों की खनखनाहट थी सुबह
शाम को लौटी तो घर तन्हा गई |
लहलहाते खेत थे कल तक यहाँ
आज माटी गाँव की पथरा गई |
कैस तुमको फ़ख्र हो माशूक पर
पत्थरों के बीच फिर लैला गई |
आज फिर आँखों में सूखा है 'सलिल'
जिंदगी फिर से तुम्हें झुठला गई |
-- आशीष नैथानी 'सलिल'…
Added by आशीष नैथानी 'सलिल' on August 5, 2013 at 8:00pm — 16 Comments
!!! हाथ नर मलता गया है !!!
बह्र-----2122 2122
भोर जो महका गया है।
सांझ को उकसा गया है।।
रास्ते का ढीठ पत्थर,
पैर से टकरा गया है।
चोट लगती दर्द होता,
आह पहचाना गया है।
ऐ खुदा अब तो बता दे!
राह क्यों रोका गया है?
जान कर अति दर्द उसका,
आंख जल ढरका गया है।
हाय ये तकदीर खेला,
खेल कर घबरा गया है।
कल यहां यमराज देखो,
काल को धमका गया…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 5, 2013 at 8:00pm — 16 Comments
Added by Ravi Prakash on August 5, 2013 at 7:27pm — 13 Comments
एक गज़ल =
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मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन
१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
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वही नग्मॆं वही रातॆं, वही ख़त और आँसू भी ॥
सतातॆ हैं हमॆं मिलकॆ, मुहब्बत और आँसू भी ॥१॥
कभी हँसना कभी रॊना,कभी खॊना कभी पाना,
सदा रुख़ मॊड़ लॆतॆ हैं,तिज़ारत और आँसू भी ॥२॥
हमारॆ नाम का चरचा, जहाँ दॆखॊ वहाँ हाज़िर,
नहीं जीनॆ हमॆं दॆतॆ, शिकायत और आँसू भी ॥३॥
हमॆं इल्ज़ाम दॆता है, ज़माना बॆ-वफ़ा कह कॆ,
नहीं अब…
Added by कवि - राज बुन्दॆली on August 5, 2013 at 7:00pm — 26 Comments
साहित्य अपने आप मे एक बहुत बड़ा विषय है इस पर जितनी भी चर्चा की जाए कम ही होगी । साहित्य का शाब्दिक अर्थ स+ हित अर्थात हित के साथ या लोक हित मे जो भी लिखा जाय या रचा जाए वह साहित्य होता है। और धर्मिता का शाब्दिक अर्थ है ध + रम यहाँ ध अक्षर संस्कृत के धृ धातु का विक्षिन्न रूप है जिसका अर्थ है धारण करना और रम भी संस्कृत के रम् धातु से उद्भासित है जिसका अर्थ है रम जाना या तल्लीन हो जाना । इसी को धर्मिता कहते हैं । लोक हित को धारण कर उसी मे रम जाना ये हुई साहित्य धर्मिता। अब प्रश्न यहाँ यह उठता…
ContinueAdded by annapurna bajpai on August 5, 2013 at 6:55pm — 4 Comments
देहरी पर मन के
किसने रख दिए दो पाँव,
बस गया दो पल में जैसे
एक सुन्दर गाँव!
गुप्तचर आँखों ने ढूंढें
रूप के कुछ ठौर,
मन अपेक्षी हर कदम
कहता रहा, कुछ और.
कब मिले जाने इसे अब
कोई अंतिम ठांव!
चितवनों के गाँव में
बिखरे अगिन संकेत,
किन्तु जल की आड़ में
छलती गयी है रेत.
रूपसी खेलेगी मुझसे
और कितने दांव!
ले नदी सब नीर अपना
चल पड़ी किस ओर,
चंचला…
ContinueAdded by Saurabh Srivastava on August 5, 2013 at 5:44pm — 10 Comments
मधुशाला खुलती गयी, विद्यालय के पास,
आजादी जब से मिली, ऐसा हुआ विकास |
ऐसा हुआ विकास, मिले शराब के ठेके
आय करे सरकार, नेता रोटियाँ सेकें
शिक्षा पर हो ध्यान, उन्नत हो पाठशाला
शिक्षालय के पास, हो न कोई मधुशाला |
(२)
रंगत बदले मनुज अब, गिरगिट भी शर्माय
गिरगिट पुनर्जन्म धरे, नेता बनकर आय |
नेता बनकर आय, क्षमता और बढ़ जावे
पेटू बनकर खाय, खाकर डकार न लावे
ईश्वर करे सहाय, पाये न इनकी संगत,
सूझे न…
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on August 5, 2013 at 3:00pm — 24 Comments
अच्छा !!!!
तो प्रेम था वो !!!
जबकि केंद्रित था लहू का आत्मिक तत्व
पलायन स्वीकार चुकी भ्रमित एड़ियों में !
किन्तु -
एक भी लकीर न उभरी मंदिर की सीढियों पर !
एड़ियों से रिस गईं रक्ताभ संवेदनाएं !
भिखमंगे के खाली हांथों की तरह शुन्य रहा मष्तिष्क !
हृदय में उपजी लिंगीय कठोरता के सापेक्ष
हास्यास्पद था-
तोड़ दी गई मूर्ति से साथ विलाप !
विसर्जित द्रव का वाष्पीकृत परिणाम थे आँसू…
ContinueAdded by Arun Sri on August 5, 2013 at 11:30am — 15 Comments
बार बार भीड़ में
ढूँढता हूँ
अपना चेहरा
चेहरा
जिसे पहचानता नहीं
दरअसल
मेरे पास आइना नहीं
पास है सिर्फ
स्पर्श हवा का
और कुछ ध्वनियाँ
इन्हीं के सहारे
टटोलता
बढ़ता जा रहा हूँ
अचानक पाता हूँ
खड़ा खुद को
भीड़ में
अनजानी, चीखती भीड़ के
बीचों बीच
कोलाहल सा भर गया
भीतर तक
कोई ध्वनि सुनाई नहीं देती
शब्द टकराकर…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on August 5, 2013 at 11:30am — 34 Comments
गँगा जल की कुण्डलियां, भर लाए शिव भक्त
कावड़ ले मनमोहिनी ,सब को करें आसक्त||
शिव नगर हरिद्वार की, महिमा अपरमपार
कावड़ मेले हैं लगे , सजे हुए बाजार||
नारे बोल बम बम के ,गूँज रहे चहुँ ओर
मस्त मलंग घूम रहे, मिल सब करते शोर||
आए पूरे देश से , बम बम करते आज
त्रिलोचन महादेव का , तिलक कर रहे आज||
लाखों भक्त शंकर का, करते हैं अभिषेक
शिवरात्री है आ गई, माथा तू भी टेक||
बम बम करते आ गए ,शिव के सेवादार …
Added by Sarita Bhatia on August 5, 2013 at 11:00am — 5 Comments
आज सच तुझसे कहूँ
बिन तेरे कैसे रहूँ
इक दिन न इक रात
अन्तरंग यह बात...
सांसों में अब मिठास है
कड़वाहट अब न पास है
जब से तू है साथ
अन्तरंग यह बात...
जुल्फ तेरी घनघोर घटा
लहराएँ तो सर्द हवा
प्यार तेरा बरसात
अन्तरंग यह बात...
नयन तेरे मधुशाला हैं
बाहें तेरी, मेरी माला हैं
पाक मेरे जज्बात
अन्तरंग यह बात...
मर जाऊं मिट जाऊं मैं
तुझ संग ही जी पाऊँ…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on August 4, 2013 at 11:00pm — 27 Comments
पर्वत राज हिमालय जिसका मस्तक है
जिसके आगे बड़े बड़े नतमस्तक है
सिन्धु नदी की तट रेखा पर बसा हुआ
गंगा की पावन धारा से सिंचित है
जिसको तुम सोने की चिड़िया कहते थे
छोटे बड़े जहाँ आदर से रहते थे
जहाँ सभी धर्मो को सम्मान मिला
जहाँ कभी न श्याम श्वेत का भेद हुआ
जिसको राम लला की धरती कहते है
गंगा यमुना सरयू जिस पर बहते है
जिस धरती पर श्री कृष्णा ने जन्म लिया
जहाँ प्रभु ने गीता जैसा ज्ञान दिया
जहाँ निरंतर वैदिक…
ContinueAdded by Aditya Kumar on August 4, 2013 at 8:00pm — 22 Comments
तुम पिंजरे में बंद मुर्दा ज़िन्दगी के सिवा कुछ भी तो नहीं ,
अपने आप को ,आज़ाद पंछी मान बैठे हो ,
तुम्हारी तनी हुई मुट्ठियाँ ,बढ़ते कदम ,
बीवी बच्चों को देख, अपाहिज हो जाते हैं ,
तुम्हारे मस्तक की मांसपेशियां ,
पेट की तरफ देख ,अनाथ हो जाती है ,
तुम्हारी जुबान ,साहब को देख ,…
ContinueAdded by Dr Dilip Mittal on August 4, 2013 at 6:00pm — 4 Comments
पीर पंचांग में सिर खपाते रहे ।
गीत की जन्मपत्री बनाते रहे ।
हम सितारों की चौखट पे धरना दिये
स्वप्न की राजधानी सजाते रहे ।
लाख प्रतिबंध पहरे बिठाये गये
शब्द अनुभूतियों के सखा ही रहे
आँसुओं को जरूरत रही इसलिये
दर्द के कांधे के अँगरखा ही रहे
श्वास की बाँसुरी बज उठी जब कभी
हम निगाहें उठाते लजाते रहे।
पर्वतों से मचलती चली आ रही,
गीत गोविन्द मुग्धा नदी गा रही,
पांखुरी-पांखुरी खिल गई रूप की
भोर लहरा रही, चांदनी गा…
Added by Sulabh Agnihotri on August 4, 2013 at 4:00pm — 19 Comments
टूट तो जाने ही थे
अन्तस् के बंध;
विष से उफनाये वे-
कटुता के छंद !
शब्द ही तो थे...
वह उद्दात्त मन का…
ContinueAdded by Vinita Shukla on August 4, 2013 at 4:00pm — 34 Comments
कितने कितने सूरज चमके
पर अँधियारा शेष रहा
तेरे मेरे मन के अंदर
इक संशय फल फूल रहा।।
सरपत के ढेरों झाड़ उगे
तन छू ले कट जाता है
इन बबूल के काँटों से भी
भीतर तक छिल जाता है
सावन की बौछारों में भी
मन उपवन सब सून रहा।।
तुम मिलते हो मुझको जैसे
इक गुजरी तरुणाई सी
भाव खिलें डाली पर कैसे
वह रूखी मुरझाई सी
साज संवार व्यर्थ रहा सब
धूल भरा यह रूप रहा।।
चिड़ियों ने…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on August 4, 2013 at 3:00pm — 28 Comments
मैं सपने बेचता हूँ।
आज के, कल के,
और कभी कभी तो बरसों बाद के भी।
इन सपनों की ज़रुरत नहीं तुम्हें।
इनका अहसास मैंने दिलाया है,
तुम्हारे जेहन में घुसकर...
तुम्हारे डर को कुरेदकर।
मैं और मुझ जैसे सैकड़ों लोग,
झांकते हैं,
तुम्हारे गुसलखानों में,
तुम्हारी रसोई में,
तुम्हारे ख्वाबगाहों में।
मुझे पता है,
कितनी दफा ब्रश करते हो तुम,
कैसे रोता है तुम्हारा बच्चा गीली नैपी में, और
क्यूँ तुम्हारे चेहरे की चमक खो…
Added by Arvind Kumar on August 4, 2013 at 7:30am — 11 Comments
जीवन में मत जमीर को पलभर सुलाइए।
सोने लगे तो फेंक के पानी जगाइए।
बेगैरतों के शह्र में रहते जो शौक से,
अपने घरों की लाज को उनसे बचाइए।
अनमोल रत्न शील ही होता जहान में,
यूँ कौड़ियों के मोल इसे मत लुटाइए।
जिसने दिये हों सात वचन सात जन्मों के,
केवल उसी के सामने घूँघट उठाइए।
बीमारियाँ चरित्र की लगती हैं छूत से,
पीड़ितजनों के पास जियादा न जाइए।
बस दागदार करते जो घर की दीवारों को,
वैसे चिराग हाथ से…
Added by कुमार गौरव अजीतेन्दु on August 3, 2013 at 7:17pm — 16 Comments
| कागज़ के फूलों को सजाया जा रहा है | |
| हरे भरे बागों को मिटाया जा रहा है | |
| क्या होगा हाल उन कश्तियों का , |
| जिन्हें सुर्ख रेत पर चलाया जा रहा है | |
| कैसे सूखे आँसू उन ग़मगीन आँखों का … |
Added by Shyam Narain Verma on August 3, 2013 at 3:54pm — 8 Comments
चांदनी फिर पिघलने लगी है
आँसुओं से धुली वो इबारत
गीत बनकर मचलने लगी है।
रोते-रोते हुए पस्त शिशु से,
भावना के विहग सो गये थे
सांझ की डाल सहमी हुई थी,
भोर के पुष्प चुप हो गये थे
फिर अचानक हुई कोई हलचल,
जैसे लहरा गया कोई आंचल
उनके दिल से उठी एक बदली
मेरी छत पे टहलने लगी है।
इक गजल पर तरह दी किसी ने,
भूला मुखड़ा पुनः गुनगुनाया
प्यार से साज की धूल झाड़ी,
मुद्दतों बाद फिर से उठाया
तार…
Added by Sulabh Agnihotri on August 3, 2013 at 3:30pm — 25 Comments
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