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सदस्य टीम प्रबंधन
करें प्रकृति से प्यार

सोलह शृंगारों सजी, प्रकृति चंचला रूप .
उसकी मतवाली छटा, मन भाती है खूब ..
 
झरना झर-झर बह चले, मतवाली ले चाल .
मन में इक कम्पन करे, उसकी सुर लय ताल ..
 
कल-कल कर बहती नदी, मस्ती भर दे अंग .
वाचाला औ चंचला, बदले पल पल रंग ..
 
बारिश की बूंदों नहा, निखरा कैसा रूप .
अन्तः मन निर्मल करे, छाँव खिले या धूप ..
 
उढ़ता बादल कोहरा, मन ले जाए दूर .
बाहों में…
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Added by Dr.Prachi Singh on June 24, 2012 at 2:30pm — 22 Comments

कुछ मुक्तक {मुक्तक काव्य "कमला "}

मुक्तक काव्य "कमला "



मन वीणा को झंकृत करती, मीठा स्पंदन हो कमला

छंदों में रस वर्षा करती, रस अभिवंदन हो कमला

निर्झर की पावन झर झर तुम, हंसती हो सरगम जैसा

साधक है खुद स्वर तेरे तो, तुम स्वर गुंजन हो कमला



तन मलयागिर का चन्दन सा, मुखड़ा कुंदन है कमला…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on June 24, 2012 at 10:40am — 7 Comments

ऐ गम ! जा के ढूंढ़ ले कोई दूसरा घर

ऐ गम ! जा  के  ढूंढ़ ले  कोई  दूसरा घर  , 

दिल में आज से मेरे , बसेरा उनका होगा ..
              इस घर का मालिक अब तू नही है ,वो हैं 
              खाली अभी तुझे  , घर ये करना होगा ..
दीवानगी ने उनकी पागल किया है हमको 
पागलपन का कर्ज तुझको ही भरना होगा ...
             घर ही तेरा अब ,  बेघर तुझे कर रहा है 
             खातिर इस घर की बेघर तुझे रहना होगा…
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Added by Ajay Singh on June 24, 2012 at 10:01am — 7 Comments

व्यंगात्मक दोहे- स्वर्ग-नरक

स्वर्ग-नरक 

 
जिस घर द्वेष-कलेश हो, वहाँ नरक का भान,  
जिस कुनबे में प्रेम है, वो है स्वर्ग समान //

 
जिल्लत की हैं जिंदगी, भोग रहे संताप
फिर भी तो आशीष ही, देते हैं माँ बाप //…



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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on June 23, 2012 at 6:46pm — No Comments

घन गरज बरस प्यासी धरती पुकारे (रूप घनाक्षरी)

घन गरज बरस प्यासी धरती पुकारे ;

कृषक भी ताक रहे कब से ही आसमान |

मेघा टर्र-टर्र कर थकने लगे हैं जैसे ;

अब सुन ले उनकी अच्छा नहीं ये गुमान |

तुझ पर ही निर्भर खेती हमारे देश की ;

बिन तेरे हो जाएगी रूखी-सूखी सुनसान |…

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Added by कुमार गौरव अजीतेन्दु on June 23, 2012 at 6:02pm — 25 Comments

कटाक्ष!

मंत्रालय में आग.......भाग डी. के..भाग.......!!!!!!

--------------------------------------
आग!
बड़ा ही बहु-आयामी शब्द है ये.
दिल से लेकर मंत्रालय तक इसकी हुकूमत के झंडे लहराते है.
आग मत लगा..
आग लगा दूंगा
पानी में आग लगाना
तन-बदन पे आग लगना
जाने कितने तरीके है आग को जताने के.
रोमांटिक हुये तो गा दिया..दो बदन जल गए प्यार की आग में....
अरे छोडिये हमें…
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Added by AVINASH S BAGDE on June 23, 2012 at 4:57pm — 11 Comments

मैं न जाने कहाँ खो गया

ढूंढने गया मैं खुद को

बाज़ार में

मैं न जाने कहाँ खो गया

चाँदी की खनक में

सोने की दमक में

मैं न जाने कहाँ खो गया



क्यों आया हूँ यहाँ

मैं क्या हूँ ?

मैं भूल गया

इस चमक-दमक की दुनियाँ में

मैं खुद को ही भूल गया



मैं भूल गया

मेरे हाथों में

कलम की ऐसी ताकत थी

ऊपर वाले की देन कहें

या हृदय की मेरी गागर थी



चलती थी

मेरी अश्रु स्याही से

भावो के मोती विखेरने को

समराग्नी की ताकत रखती थी

नव-निर्वाण की हुँकार…

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Added by जगदानन्द झा 'मनु' on June 23, 2012 at 1:30pm — 9 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
सिलेंडरों की रेल

निर्मल मन मैला बदन , नन्हे नन्हे हाथ 

रोटी का कैसे जतन,समझ ना पाए बात (1) 



तरसे एक -एक कौर को ,भूखे कई हजार 

गोदामों में सड़ रहे, गेहूं के आबार (2) 



शून्य में देखते नयन , पूछ रहे है बात 

प्रजा तंत्र के नाम पर,क्यूँ करते हो घात (3) 



सीना क्यूँ फटता नहीं, भूखे को बिसराय 

हलधर का अपमान कर,धान्य, जल में बहाय (4) 



शासन की सौगात हो, या किस्मत की हार 

निर्धन को तो झेलनी, ये जीवन की मार (5) 



रंक का चूल्हा…

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Added by rajesh kumari on June 23, 2012 at 1:00pm — 26 Comments

जय जय भारत जय जय भारत

जय जय भारत जय जय भारत

नारद शारद करते आरत

जय जय भारत जय जय भारत



वीरों की जननी है भारत

संतों की धरनी है भारत

अब तो बस ठगनी है भारत

जय जय भारत जय जय भारत



नव नव गुंडे फिरते हैं अब

घोटाले ही करते हैं अब

चोरों की सत्ता है भारत

जय जय भारत जय जय भारत



आतंकी अब मौज मनाते

नक्शल वादी फ़ौज बनाते

दहशत की संज्ञा है भारत

जय जय भारत जय जय भारत



गंगा की धारा है निर्मल

यमुना भी बहती है कल कल

पुस्तक में ऐसा था भारत

जय जय…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on June 23, 2012 at 10:30am — 12 Comments


प्रधान संपादक
वर दक्षिणा (लघुकथा)

जब जब बेटी के ससुराल से फोन आता तो भार्गव जी अन्दर तक काँप उठते. दरअसल शादी के एकदम बाद दामाद ने नई कार देने की मांग रख दी थी. उसी वजह से कई बार बिटिया मायके आ भी चुकी थी. मामूली सी पेंशन पाने वाले भार्गव जी हर बार बिटिया को समझा बुझा कर वापिस भेज देते. लेकिन इस बार ससुराल का इतना दबाव था कि बिटिया समझाने पर भी नहीं मान रही थी और ज़िद पकड़ कर बैठ गई थी. भार्गव जी को समझ नहीं आ रहा था कि वे करें तो क्या करें.



आखिर…
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Added by योगराज प्रभाकर on June 23, 2012 at 10:00am — 52 Comments

गीत: लोकतंत्र में... संजीव 'सलिल'

गीत:

लोकतंत्र में...

संजीव 'सलिल'

*

लोकतंत्र में शोकतंत्र का

गृह प्रवेश है...

*

संसद में गड़बड़झाला है.

नेता के सँग घोटाला है.

दलदल मचा रहे दल हिलमिल-

व्यापारी का मन काला है.

अफसर, बाबू घूसखोर

आशा न शेष है.

लोकतंत्र में शोकतंत्र का

गृह प्रवेश है...

*

राजनीति का घृणित पसारा.

काबिल लड़े बिना ही हारा.

लेन-देन का खुला पिटारा-

अनचाहे ने दंगल मारा.

जनमत द्रुपदसुता का

फिर से खिंचा केश…

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Added by sanjiv verma 'salil' on June 23, 2012 at 8:10am — 11 Comments

दिल मेरा तोड़ के इस तरह से जाने वाले

दिल मेरा तोड़ के इस तरह से जाने वाले।

बेवफ़ा तुझको पुकारेंगे ज़माने वाले॥

प्यार में खाईं थी क़समें भी किए थे वादे,

क्या तुझे याद है कुछ मुझको भुलाने वाले॥

झांक के देख ले अपने भी गिरेबाँ में तू,

उँगलियाँ मेरी शराफ़त पे उठाने वाले॥

सर झुकाये हुए कूचे से निकल जाते हैं,

हैं पशेमान बहुत मुझको सताने वाले॥

बाद मरने…

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Added by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on June 22, 2012 at 9:30am — 16 Comments

बारिश का मौसम

बारिश का मौसम

काले काले मेघ

काली काली जुल्फों के सायों की मानिंद

टिप -टिप टिप- टिप

बूँदें गिरती है

भीगी भीगी जुल्फों से टूटे मोती से

भिगोती है तन

मेरी सानों को छूती…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on June 21, 2012 at 6:27pm — 9 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
कह मुकरियाँ

नयन लाज से झुक- झुक जाएँ

दिल में प्रीत म्रदंग बजाये

मादक मेघ चुराए काजल

क्या सखी साजन ??

ना सखी बादल |



चुपके से दृग द्वार पे आयें

गुदगुदाती बयार साथ में लायें

प्रीत छुपाये दिल में अपने

क्या सखी साजन ??

ना सखी सपने |



चित्त कल्पना में डूबता जाए

मन मीत हाथों पे लकीरे बनाए

सतरंगों से सजाये सवेरा

क्या सखी साजन ??

ना सखी चितेरा |



रुत खामशी से अगन लगाए

जहां…
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Added by rajesh kumari on June 21, 2012 at 12:00pm — 20 Comments

दरख्त की पीर कौन समझेगा

इश्क के मजबूत दरख्त में

शक की दीमक लग गयी है

यकीन के सब्ज पत्ते

पीले पड़ पड़ के

रिश्तों की ड़ाल से बेसाख्ता गिर रहे हैं

झूठ के तेज़ झोंके

दरख्त को जड़ से उखाड़ने की फिराक में हैं

सच की माटी जड़ों का…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on June 21, 2012 at 11:09am — 9 Comments

मैं क्या जानूं, क्या है डेटिंग बाबाजी

 

 

प्यारे मित्रो हमारे  लाड़ले बाबाजी  आज चार दिन की विदेश यात्रा पर जा रहे हैं  इसलिए  अगली मुलाक़ात  25 जून को ही होगी, परन्तु जाते जाते  भी बाबाजी से रहा नहीं गया .  ये आपके  समक्ष अपनी  नई रचना  परोसने के लिए मरे जा रहे हैं . इसलिए ओ बी ओ  के मंच पर  प्रस्तुत है यह  नूतन तुकबंदी :



बड़े…

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Added by Albela Khatri on June 21, 2012 at 8:12am — 15 Comments

सानिध्य में सुदूर

 

      सानिध्य में सुदूर हर बात से मजबूर 

      सजग चिंतित, विराग अनुराग !

      प्रतिकूल  मंचन, मुलाक़ात सज्जन 

      फिर वहीँ आचार विचार संचन !

      दिशाहीन नाव, अथाह सागर 

      मस्ती तूफ़ान ज्यों यादगार मगर !

      अद्वैत, असहाय , निरुपाय 

      कुमकुम  की कली तेज धुप अलसाय !

      मधुर मिलन फिर वही चिंतन 

      अनुराग अपार तेजधार बहाव !

      धूमिल क्षितिज , कलरव 

      अभिनव राग हज़ार बार !

      हरित निष्प्राण मंद वायु यार

 …

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Added by Raj Tomar on June 20, 2012 at 10:58pm — 12 Comments

बदलते रिश्ते

नीम में लगती दीमक
रिश्तों में मिठास नहीं
डूब गयी आशा किरण
एक दूजे पे विश्वास नहीं
रिश्तों का प्रबल क्षरण
जुड़ने के आसार नहीं
घर घर छिड़ा अब रण
मीठा स्वप्न संसार नहीं
चन्दन लिपटत न भुजंग
शीतलता का वास नहीं
माता करती भ्रूण भंग
नारी के संस्कार नहीं
भूल गए करना सत्संग
जीवन से अब प्यार नहीं

Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on June 20, 2012 at 5:30pm — 14 Comments

क्यों न नेता बन जाऊँ (हास्य-कविता)

जुम्मन अब्बू से बोला

दो पैसा बदलूँ चोला

निठल्लू जवान खाते गोला

सुधरो जल्दी तुमको बोला

पैसा न एक मेरे पास

कमाओ खुद छोडो आस

धंदा कोई न आता रास

बाजार करता न विश्वास

जेब कटी की सारी कमाई

पुलिस ले उडी भाई

युक्ती सुन्दर तुम्हे बताता

बन जा नेता का जमाता

अच्छी है ये तुम्हरी सीख

मांगनी पड़े अब न भीख

छुट भैया में बड़ा लोचा

करूँ धंधा कई बार सोचा

पनवाडी ने करा खाता बंद

सब बोले धंदा है मंद

माल मुफ्त अब…

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Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on June 20, 2012 at 1:30pm — 8 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
आधुनिकता

कहाँ गई वो मेरे देश की खुशबु

जिसमे सराबोर  रहते थे

इंसानों के देश प्रेम के जज्बे ,

कहाँ गई वो माटी की सुगंध

जिससे जुडी रहती थी जिंदगी  

कहाँ गए वो आँगन 

जिनमे हर रोज जलते थे 

सांझे चूल्हे 

जहां बीच में रंगोली सजाई जाती थी 

जो परिचायक थी 

उस घर की एकता और सम्रद्धि की 

जिसमे खिल खिलाता था बचपन 

लगता है वक़्त की ही 

नजर लग गई…

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Added by rajesh kumari on June 20, 2012 at 11:43am — 18 Comments

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