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~ कविता के पंछी या पंछियों की कविता ~

थिरक-थिरक
नाचता   मोर ... फिर 
देख  कर
पाँव अपने
हो जाता बोर
---
कुहू कुहू गाती कोयल
मन को मनभाती कोयल
पराये घोंसले में देकर अंडे
कहाँ जाने फुर्र हो जाती कोयल 

© AjAy Kum@r

Added by AjAy Kumar Bohat on May 11, 2012 at 11:56am — 6 Comments

भीड़...अजय कुमार बहोत

मैं
भीड़ हूँ
इस लोकतंत्र के ढाँचे की मैं रीढ़ हूँ
जी हाँ
मैं भीड़ हूँ...

तिनका-तिनका जोड़ता दिन का
रोज़ बिखरता-जुड़ता
मन-आशाओं का नीड़ हूँ
मैं भीड़ हूँ...

कहाँ फुर्सत
वैष्णव-जन को,
की जाने मुझ को
एक परायी पीड़ हूँ
मैं भीड़ हूँ...

~ © AjAy Kum@r

Added by AjAy Kumar Bohat on May 11, 2012 at 11:30am — 10 Comments

तुम्हारा मौन

तुम्हारा मौन
विचलित कर देता है
मेरे मन को
सुनना चाहती हूँ तुम्हे
और
मुखर हो जाती हैं
दीवारें , कुर्सियां
टेबल , चम्मचे
दरवाजे
सभी तो कहने लगते हैं
सिवाए तुम्हारे

Added by MAHIMA SHREE on May 10, 2012 at 4:15pm — 17 Comments

भीड़...महिमा श्री

हां भीड़ में शामिल
मैं भी तो हूँ
रोज
अलसुबह उठ के
जाती हूँ
शाम को आती हूँ
दूर से देखती हूँ
कहती हूँ
ओह देखो तो जरा
कितनी भीड़ है
और फिर
मैं भी भीड़ हो जाती हूँ

Added by MAHIMA SHREE on May 10, 2012 at 4:00pm — 26 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
माँ तुम्हें कहाँ से लाऊं ???

वो छोटी सी पगडण्डी 
जिसकी नुकीली झाड़ियाँ 
अपने हाथों से काटकर 
बनाई थी तुमने मेरे चलने के लिए, 
आज वो कंक्रीट की सड़क बन गई है 
जो पौधा अपने आँगन 
में लगाया था तुमने, 
वो सघन दरख़्त बन गया है 
नई- नई कोंपले 
भी निकल आई हैं उसपर 
जो नन्हा दिया जलाया 
था तुमने मुझे रौशनी देने के लिए 
वो अब आफताब बन गया है 
तुम्हारे उस कच्ची माटी के…
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Added by rajesh kumari on May 10, 2012 at 1:45pm — 17 Comments

उड़ान

यह रचना मैंने करीब १०-११ साल  पहले लिखी थी और आज जब इस रचना को पढ़ती हूँ तो ऐसा लगता है मानो न तब कुछ बदला था न आज कुछ बदला है बस अगर कुछ बदला है तो इस पुरुष प्रधान समाज में तीर मारने वाले बदल गए है. ये रचना हमेशा मेरे मन के निकट रही है इसलिए आप सभी तक पहुंचा रही हूँ ----
"उड़ान"

मैं हूँ इक छोटी सी…
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Added by Monika Jain on May 9, 2012 at 12:30am — 12 Comments

वही तो सृजनकार है....

जिसका अंक है कोई, न रूप कार है,

जो प्रकाश पुंज है, जो निर्विकार है,

कणों कणों से एक सुर में ये पुकार है,

वही तो सृनकार है, वही तो सृनकार है।



ये नगर ये…

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Added by इमरान खान on May 8, 2012 at 1:00pm — 8 Comments

सब की प्यारी माँ.

छहः साल  का नन्हा सा बच्चा था रोहन, लेकिन बड़ा होशियार.मम्मी पापा सब की आँखों का तारा . पढने में जितना होशियार उतना ही बड़ा खिलाडी.हमेशा कोई न कोई नयी हरकत कर के माँ को चौंका देता था. एक दिन  शाम  को काफी अँधेरा हो चला  लेकिन रोहन खेल कर घर नहीं लौटा. माँ की डर के मारे  हालत ख़राब होने लगी. उलटे सीधे विचार मन में आने लगे..बेहाल हो कर ढूंढने  निकली तो देखा की जनाब शर्ट को पेट पर आधा  मोड़े हुए उस में कोई  चीज़ बटोरे लिए चले आ रहे हैं. ख़ुशी…

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Added by Sarita Sinha on May 8, 2012 at 1:00am — 24 Comments

ज़िंदगी कर दी सनम तेरे हवाले अब तो

ज़िंदगी कर दी सनम तेरे हवाले अब तो।

तू भी बढ़के मुझे सीने से लगा ले अब तो॥

दूर रहता हूँ तो आँखों में नमी रहती है,

मैं भी हँस लूँ तू ज़रा पास बुला ले अब तो॥…

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Added by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on May 7, 2012 at 9:30pm — 18 Comments

बचपन

याद तुम्हारी आते ही मन व्याकुल हो जाता है,
छूट गया वो साथ जो कभी नहीं फिर आता है.
 
कितना था आनंद कितना था फिर प्यार वहां,
कितने थे कोमल सपने कितने थे अरमान…
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Added by Ashok Kumar Raktale on May 7, 2012 at 6:00pm — 16 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
एक चिड़िया की कहानी

एक चिड़िया की कहानी

 

मैं नन्ही सी चिड़िया...भरती हूँ आज खुले आसमान में लम्बी से लम्बी उड़ान l याद है मुझे आज भी सर्द ठिठूरी कुहासे भरी वो गीली गीली सी सुबह, जब अपनी ही धुन में मस्त, मिट्टी की सौंधी सी खुशबू में गुम मैं फुदक रही थी एक पगडंडी पर l नम घास की गुदगुदाती छुअन मदमस्त कर रही थी मुझे और मैं अपनी ही अठखेलियों से आह्लादित चहक रही थी…

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Added by Dr.Prachi Singh on May 7, 2012 at 1:07pm — 16 Comments

“कर लो अब तैयारी”

                                                             सूरज की गरमी को देखो, पड़ती सब पे भारी

सूखे ताल तलैया भाई,  पिघली सड़कें सारी

सूख चली देखो हरियाली, सहमा उपवन सारा. 

पंथिन को तो छांह नहीं अब,  क्योंकर चलता…

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Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 7, 2012 at 12:30pm — 29 Comments

ये है कंप्यूटर सदी यानि ज़माना है नया ,

मंजिले  ऊँची  बनाना  आज  की  तामीर  है , 

इस  सदी  की  दोस्तों  कितनी  अजब  तस्वीर  है ... 



ये  है  कंप्यूटर  सदी  यानि  ज़माना  है  नया , 

कितनी  आसानी  से  बदली   जा  रही  तस्वीर  है ... 



क्या  कटेगी  ज़िन्दगी  अपनों  की  मोबाईल  बगैर , 

ये  हमारे  दौर  की  मुंह …

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Added by MOHD. RIZWAN (रिज़वान खैराबादी) on May 7, 2012 at 11:30am — 11 Comments

कौरवों के साथ में धृतराष्ट्र अँधा है

कौरवों के साथ में धृतराष्ट्र अँधा है

धर्म है पाखंड सा हर दिल दरिंदा है



हिंद में ही लुट रही क्यूँ लाज हिंदी की

पश्चिमी रंग में रंगा हर एक बंदा है



ना हया ना शर्म है आदम के अन्दर अब

औ सनातन धर्म भी मंदिर में धंधा है



आज तक अच्छा किया ना एक नेता ने

जो करे अच्छा यहाँ वो ही तो गन्दा है



फिक्र तुझको…
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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on May 7, 2012 at 9:30am — 15 Comments

''औरत की कदर''

औरत न तेरा दर कहीं काँटों भरी डगर है  

तेरे जन्म के पहले ही बनती यहाँ कबर है l

रखती कदम जहाँ है गुलशन सा बना देती     

फिर भी यहाँ दुनिया में होती नहीं कदर है l  

ये नादान नहीं जानते कीमत नहीं पहचानते

तेरे बिन कायनात तो सूखा हुआ शजर है l 

जब भी कहीं देश में कोई ज्वलंत समस्या उठी है तो चारों तरफ एक चर्चा का विषय बन जाती है. भ्रूण हत्या भी एक ऐसा ही विषय बना हुआ है. भारत में आये दिन खबरों में, या फिर कभी रचनाओं, कभी लेखों या सिनेमा के माध्यम से…

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Added by Shanno Aggarwal on May 7, 2012 at 6:00am — 12 Comments

अंगूठा चूसते-चूसते वो इतना "बड़ा" हो गया

मै ६ दिसंबर हूँ

मै ११ सितम्बर हूँ

२६ नवम्बर हूँ

आंसुओं का

महासागर हूँ मै !

--------------------------

गोल-गोल

बूँद भरी

पूर्ण हो

निकल पड़ी

-------------------…

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Added by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on May 6, 2012 at 10:09pm — 5 Comments

मैंने अपनी हर दुआ में बस तुझे मांगा यहाँ

मैंने अपनी हर दुआ में बस तुझे मांगा यहाँ

तेरे आने से मिला है अब मुझे सारा जहाँ

 

लब हैं नाजुक पंखुड़ी  से ये गुलाबों की तरह

जुल्फों में उलझे पड़े जो जी रहे हैं अब कहाँ

 

भूलूं कैसे "दीप" आखिर वो हया रुखसार की

उनके बिन कैसे रहूँगा मैं यहाँ औ वो वहाँ

 

…………."दीप"…………..

Added by SANDEEP KUMAR PATEL on May 6, 2012 at 8:48pm — 3 Comments

तुम क्या समझो तुम क्या जानो......मोनिका जैन "डाली"

तुम क्या समझो तुम क्या जानो

है पीर कहा ? है दर्द कहाँ ?

क्यों है मन आकुल व्याकुल सा

क्यों है तन थका थका सा ये

क्यों हार - हार कर  भी लेती हूँ

जीने की प्रबल प्रतिग्या मैं

क्यों बुझे हूऐ दीपों में मैं

आशा की जोत जलाती हूँ  

क्यों हूँ  रूठी हूँ दुनिया से मैं

क्यों फिर भी सबसे हिली मिली

हैं प्रश्न बहुत पर फिर भी

मैं क्यों खडी - खडी मुस्काती हूँ ?

क्या है ? क्यों है ? कैसा है ?

प्रश्नों की ठेलम ठेली है !

हो चकित देख कर…

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Added by Monika Jain on May 6, 2012 at 7:00pm — 11 Comments

चल दिल चलें अपने जहाँ.......

दर्द भरा है ये समां, होने लगा धुआं धुआं.

ये तेरी मंजिलें कहाँ, चल दिल चलें अपने जहाँ.



दो पल मुझे हंसा गया, सदियों मगर रुला गया.

सीने में आग जल गयी, इतना मुझे सता गया,

रोने लगा रुवां रुवां, चल दिल चलें अपने…

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Added by इमरान खान on May 6, 2012 at 11:41am — 7 Comments

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