१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
अगर तुम टूटने के दर्द को महसूस कर जाते
तो क्या खुद एक पल में टूटकर इतना बिखर जाते
रिदाएँ गर्द की जब तब हटाते आइनों से तुम
दिलों के फासले मिटते कई रिश्ते सँवर जाते
झुलसते जिस्म फसलों के उमड़ती प्यास धरती की
चिढ़ाते बेवफ़ा बादल इधर जाते उधर जाते
पहेली सी बने फिरते बड़े मदमस्त ये बादल
कहीं ख़ाली गरजते उफ़ कहीं हद से गुजर जाते
तुम्हारे झूठ के छाले लगे रिसने सफ़र…
ContinueAdded by rajesh kumari on August 19, 2014 at 9:18pm — 31 Comments
“भाभी, अगर कल तक मेरी राखी की पोस्ट आप तक नहीं पँहुची तो परसों मैं आपके यहाँ आ रही हूँ भैया से कह देना ” कह कर रीना ने फोन रख दिया|
अगले दिन भाभी ने सुबह ११ बजे ही फोन करके कहा, "रीना राखी पहुँच गई है ”
"पर भाभी मैंने तो इस बार राखी पोस्ट ही नहीं की थी !!! "
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Added by rajesh kumari on August 9, 2014 at 8:30pm — 58 Comments
२२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२
अवशेष चिनारों के तुमसे आफ़ात पुरानी कह देंगे
हालात वहाँ कैसे बिगड़े खुद अपनी जुबानी कह देंगे
दीवारें धज्जी धज्जी सी हर छत दिखती उधड़ी उधड़ी
आसार लहू के अक्स तुम्हें बेख़ौफ़ कहानी कह देंगे
दिखते पर्वत सहमे-सहमे औ गुम-सुम से झरने नदियाँ
कब-कब दामन में आग लगी कब बरसा पानी कह देंगे
जो साथ जला करते थे कभी आबाद रहे जिनसे आँगन
वो आज अल्हेदा चूल्हे खुद दिल की…
ContinueAdded by rajesh kumari on July 29, 2014 at 9:48pm — 21 Comments
१२२ १२२ १२२ १२
जहाँ गलतियाँ हों बता दें मेरी
चुभें ये अगर साफ़ बातें मेरी
तुम्हें जिन्दगी दी तो हक़ भी मिला
तुम्हारे कदम पे निगाहें मेरी
हर इक मोड़ पर तुम मुझे पाओगे
नहीं हैं जुदा तुमसे राहें मेरी
तुम्हें नींद आती नहीं है अगर
कहाँ फिर कटेंगी ये रातें मेरी
छुपा क्या सकोगे जबीं की शिकन
हमेशा पढ़ेंगी ये आँखें मेरी
तुम्हारी हिफ़ाज़त करूँ जब तलक
चलेंगी तभी तक…
ContinueAdded by rajesh kumari on July 23, 2014 at 11:30am — 17 Comments
‘महिला उत्थान’ मुद्दे पर संगोष्ठी से घर लौटते ही कुमुद से उसके पति ने कहा... “अभी थोड़ी देर पहले ही दीपा आई थी मिठाई लेकर वो बहुत अच्छे नम्बरों से पास हुई है कंप्यूटर कोर्स तो उसका पूरा हो ही गया था,तुम्हारी प्रेरणा और मार्ग दर्शन से कितना कुछ कर लिया इस लड़की ने हमारे घर में काम करते-करते.... अब सोचता हूँ अपने ऑफिस में एक वेकेंसी निकली है इसको रखवा दूँ “
कुमुद कुछ सोच कर बोली”अजी इतनी भी क्या जल्दी, वैसे भी सोचो इतनी अच्छी काम वाली फिर कहाँ मिलेगी, फिर तो ये काम करेगी…
ContinueAdded by rajesh kumari on July 20, 2014 at 11:00am — 28 Comments
१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
तुम्हारे पाँव से कुचले हुए गुंचे दुहाई दें
फ़सुर्दा घास की आहें हमें अक्सर सुनाई दें
तुम्हें उस झोंपड़ी में हुस्न का बाज़ार दिखता है
हमें फिरती हुई बेजान सी लाशें दिखाई दें
तुम्हें क्या फ़र्क पड़ता है मजे से तोड़ते कलियाँ
झुकी उस डाल में हमको कई चीखें सुनाई दें
न कोई दर्द होता है लहू को देख कर तुमको
तुम्हें आती हँसी जब सिसकियाँ भर- भर दुहाई दें
कहाँ…
ContinueAdded by rajesh kumari on July 7, 2014 at 10:00pm — 36 Comments
सन १९८३ मार्च या अप्रेल का महीना हम कुछ परिवार मिलकर विशाखापत्तनम के ऋषिकोंडा बीच पर पिकनिक मनाने गए | उस वक़्त मेरे पति भारतीय नौसेना में अधिकारी थे अतः मित्र परिवार भी नेवी वाले ही थे|बीच पर पंहुचते ही अचानक तेज बारिश होने लगी|मेरे दोनों बच्चे बहुत छोटे थे अतः उनको भीगने से बचाने के लिए जगह खोजने लगे |
बीच के किनारे पर मछुआरों की बस्ती थी उन्होंने हमारी परेशानी समझी और हमे अपनी झोंपड़ियों में बिठाया| मछली की बू सहन भी नहीं हो रही थी किन्तु मजबूरी थी फिर उन्होंने कहीं से दूध का…
ContinueAdded by rajesh kumari on July 4, 2014 at 8:20pm — 16 Comments
एक बाजू गर्वीला पर्वत
अपनी ऊँचाई और धवलता पर इतराता
क्यूँ देखेगा मेरी ओर?
गर्दन झुकाना तो उसकी तौहीन है न!
दूजी बाजू छिः !! यह तुच्छ बदसूरत बदरंग शिलाखंड
मैं क्यूँ देखूँ इसकी ओर
कितना छोटा है ये
इसकी मेरी क्या बराबरी
समक्ष,परोक्ष ये ईर्ष्यालू भीड़ ,उफ्फ!!
जब सबकी अपनी-अपनी अहम् की लड़ाई
और मध्य में वर्गीकरण की खाई
फिर क्यूँ शिकायत
अकेलेपन से!!
अपने दायरे में
संतुष्ट क्यों नहीं…
ContinueAdded by rajesh kumari on July 3, 2014 at 10:42pm — 12 Comments
1222 1222 1222 1222
जुबाँ से विष उगलते और मन में नफरतें होतीं
न तू होता अगर दिल में न तेरी रहमतें होतीं
नहीं जीवन बनाता तू धड़कता फिर कहाँ से दिल
न कोई ख़्वाब ही पलते न कोई हसरतें होतीं
जो तेरे हाथ शानों पर नहीं होते अगर मेरे
कहाँ से होंसला होता कहाँ ये हिम्मतें होतीं
बिना मतलब यहाँ तो पेड़ से पत्ता नहीं हिलता
ज़माना साथ क्या देता बड़ी ही जिल्लतें होतीं
न तुझ में आस्था…
ContinueAdded by rajesh kumari on June 29, 2014 at 2:00pm — 23 Comments
“देखो नेहा वो अभी भी घूर रहा है” झूमू ने नेहा का हाथ पकड़े-पकड़े हर की पौढ़ी पर गंगा में डुबकी लगाते हुए कहा|”बहुत बेशर्म है अभी भी बैठा है इसको पता नहीं किस से पाला पड़ा है, इसका मजनू पना अभी उतारते हैं शोर मचाकर” उसको थप्पड़ दिखाती हुई नेहा आस पास के लोगों को उकसाने लगी|
इसी बीच में न जाने कब झूमू का हाथ छूट गया और वो तीव्र बहाव में बहने लगी|छपाक!!!!! आवाज आई और कुछ ही देर में वो युवक झूमू को बचाकर बाहर निकाल लाया|
थोड़ी दूर खड़ा एक पुलिस वाला भी आ गया और “बोला इन साहब का…
ContinueAdded by rajesh kumari on June 22, 2014 at 8:30am — 40 Comments
122 122 122 122
मनाज़िर नए हैं, सवेरा नया क्या ?
वतन पूछता है, अँधेरा हटा क्या ?
नई खुशबुएँ हैं नई सुब्ह महकी
सदी से बुझा था जो चूल्हा जला क्या ?
परिंदा नया है नए पंख निकले
उड़ेगा कहाँ तक परों पे लिखा क्या ?
सभी कह रहे हैं शजर विष भरा है
तुम्ही ये बताओ बिना जड़ उगा क्या ?
वहीँ आग होगी धुआँ है जहाँ पर
हवा है गली में नया गुल खिला क्या ?
वो बुधवा की बेवा नहीं दी…
ContinueAdded by rajesh kumari on June 16, 2014 at 9:28am — 22 Comments
2122 2122 2122 22
मैं कभी तुझसे बिछुड़ने का न मंजर देखूँ
मछलियों से ना कभी ख़ाली समंदर देखूँ
कब जमीं आकाश दोनों इस जहाँ में मिलते
मैं ये संगम तो सदा दिल के ही अन्दर देखूँ
हर सितारा तेरी किस्मत का बुलंदी पर हो
मैं न कोई हार से टूटा सिकंदर देखूँ
झेल लूँ मैं वार खुद तेरी परेशानी के
जीस्त में गड़ता हुआ ग़म का न खंजर देखूँ
जिंदगी में काश कोई दिन न आये…
ContinueAdded by rajesh kumari on June 5, 2014 at 10:58am — 29 Comments
2122 2122 2122
तुम ग़ज़ल मेरी मुहब्बत में पगी हो
फूल, कलियाँ,वल्लरी सी ताज़गी हो
तुमको पाकर ये मकाँ घर हो गया है
तुम मेरी सम्पूर्णता की बानगी हो
इन तेरी साँसों से महके प्रेम उपवन
रूप यौवन में बसी इक सादगी हो
पास आकर भी नहीं तुम पास मेरे
दूरियों से क्यूँ न फिर नाराज़गी हो
बिन तेरे ये दिल धड़कना छोड़ देता
आज कहता हूँ मेरी तुम जिंदगी हो
प्यार पाकर दिल नहीं भरता ये…
ContinueAdded by rajesh kumari on May 12, 2014 at 10:00am — 41 Comments
कुडंली छंद
छंद-लक्षण: जाति त्रैलोक लोक , प्रति चरण मात्रा २१ मात्रा, चरणांत गुरु गुरु (यगण, मगण), यति ११-१०।
अँखियों से झर रहे,बूँद-बूँद मोती,
राधा पग-पग फिरे,विरह बीज बोती|
सोच रही काश मैं ,कान्हा सँग होती,
चूम-चूम बाँसुरी,अँसुवन से धोती|
मथुरा पँहुचे सखी ,भूले कन्हाई,
वृन्दावन नम हुआ ,पसरी तन्हाई|
मुरझाई देखता ,बगिया का माली,
तक-तक राह जमुना ,भई बहुत काली|
खग,मृग, अम्बर, धरा,हँसना सब…
ContinueAdded by rajesh kumari on April 30, 2014 at 11:00am — 31 Comments
२१२२ २१२२ २१२२
साधुओं के भेष में शैतान कितने
लूटते विश्वास के मैदान कितने
फितरतें इनकी विषैली अजगरों सी
डस चुके हैं जीस्त में इंसान कितने
इस सियासी दौर में गुलज़ार हैं सब
रास्ते जो थे कभी वीरान कितने
हाथ में इतनी मिठाई देख कर वो
भुखमरी से जूझते हैरान कितने
छीनना ही था हमेशा काम जिनका
आज देते जा रहे हैं दान कितने
हड्डियाँ फेंकी उन्होंने सामने…
ContinueAdded by rajesh kumari on April 22, 2014 at 10:00am — 18 Comments
मनमोहन छंद : लक्षण: जाति मानव, प्रति चरण मात्रा १४ मात्रा, यति ८-६, चरणांत लघु लघु लघु (नगण) होता है.
अब तक थी जो ,सुलभ डगर
आगे साथी,कठिन सफ़र
सँभल-सँभल कर ,रखें कदम
साथ चलेंगे ,जब- जब हम
सब काँटों को ,चुन-चुन कर
फूल बिछाएँ,पग-पग पर
आजा चुन लें ,राह नवल
जहाँ प्यार के ,खिलें कँवल
फूल हँसेंगे ,खिल-खिलकर
कष्ट सहेंगे, मिलजुलकर
पथ का होगा, सही चयन
सही दिशा में,…
ContinueAdded by rajesh kumari on April 17, 2014 at 11:30am — 20 Comments
2122 2122 212
वक़्त की रफ़्तार तो पैहम रही
जिंदगी की लौ मगर मद्धम रही
बर्फ बनकर अब्र जो है गिर रहा
पीर की बहती नदी भी जम रही
ग़म भरे अशआर जिसमे थे लिखे
धूप में भी वो ग़ज़ल कुछ नम रही
टूट के बिखरे सभी वो आईने
रूप की चाहत जिन्हें हर दम रही
वक़्त रहते कुछ नहीं हासिल किया
सोचते हैं जिंदगी कुछ कम रही
कैसे कह दें वो जहाँ में खुश रहे
आँखे उनकी तो सदा…
ContinueAdded by rajesh kumari on April 15, 2014 at 9:30am — 31 Comments
२१२२ २१२२ २१२२ २१२
रोक लो तूफ़ान चिंगारी भड़क फ़िर जाएँगी
नफ़रती लपटें जमीं से अर्श तक फ़िर जाएँगी
इन दरारों पे जरा आँचल बिछा कर छाँव दो
आंच पाकर बैर की वरना दहक फ़िर जाएँगी
अम्न- ओ-इंसानियत से चूर थी गलियाँ यहाँ
देख वो अपने उसूलों से भटक फ़िर जाएँगी
खाई जाती थी कसम जो दोस्ती के दरमियाँ
उस वफ़ा की पाक़ मीनारें चटक फ़िर जाएँगी
फिर झडेंगे शाखों से पत्ते ख़जां आये बिना
बिजलियाँ जब उन…
ContinueAdded by rajesh kumari on April 8, 2014 at 11:00am — 14 Comments
2122 1122 1122 22
अब्र चाहत के जहाँ दिल से करम करते हैं
ऐसी झीलों में मुहब्बत के कँवल झरते हैं
मजहबी छीटें रकाबत के जहाँ पर गिरते
उन तड़ागों के बदन मैले हुआ करते हैं
बस गए हैं जो बिना खौफ़ विषैले अजगर
वादियों में वो सभी आज जह्र भरते हैं
मस्त भँवरों की शरारत की यहाँ अनदेखी
फूल पत्तों पे चढ़ी दर्द भरी परते हैं
सौदे बाजों की बगल में हुई आहट सुनकर
धीमे-धीमे…
ContinueAdded by rajesh kumari on March 22, 2014 at 9:00pm — 12 Comments
तोड़ नीड़ की परिधि
सारी वर्जनाएं
भुला नीति रीति
लांघ कर सीमाएं
छोड़ संयम की कतार
दे परवाज़ को विस्तार
वशीकरण में बंधा
लिए एक अनूठी चाह
कर बैठा गुनाह
लिया परीरू चांदनी का चुम्बन
जला बैठा अपने पर
उसकी शीतल पावक चिंगारी से
गिरा औंधें मुहँ
नीचे नागफनी ने डसा
खो दिया परित्राण
ना धरा का रहा
ना गगन का
बन बैठा त्रिशंकु
वो उन्मत्त परिंदा
**************
(मौलिक एवं…
ContinueAdded by rajesh kumari on March 12, 2014 at 10:00am — 24 Comments
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