//मशविरा//
हरगिज़ ना करना चाहिए इन्सान को गुरूर
दनिश्वरी के जौम में हो जाते हैं कुसूर
मैंने तमाम उम्र किया है सफ़र मगर
अब तक ज़मीं पे चलने का आया नहीं श'ऊर
//वाबस्तगी//
निगाह मिलते ही तुझको सलाम करता हूँ
तेरी नज़र का बड़ा एहतराम करता हूँ ,
मेरी ज़ुबां तेरी गुफ्तार से है वाबस्ता,
ये कौन कहता है सबसे कलाम करता हूँ !
//बदकिस्मती//
वो है मेरा रफीक मैं उसका रकीब हूँ
दुनिया समझ रही मैं उसके करीब हूँ
चाहा था जिसने मुझको मैं उसका…
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Added by योगराज प्रभाकर on September 22, 2010 at 12:29pm —
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कैसी तरखा हो गयी है गंगा ! यूँ पूरी गरमी में तरसते रह जाते हैं , पतली धार बनकर मुँह चिढ़ाती है ; ठेंगा दिखाती है और पता नहीं कितने उपालंभ ले-देकर किनारे से चुपचाप निकल जाती है ! गंगा है ; शिव लाख बांधें जटाओं में -मौज और रवानी रूकती है भला ? प्राबी गंगा के उन्मुक्त प्रवाह को देख रही है. प्रांतर से कुररी के चीखने की आवाज़ सुनाई देती है. उसका ध्यान टूटता है. बड़ी-बड़ी हिरणी- आँखों से उस दिशा को देखती है जहां से टिटहरी का डीडीटीट- टिट स्वर मुखर हो रहा था…
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Added by Aparna Bhatnagar on September 22, 2010 at 10:07am —
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समीक्षात्मक आलेख:
डॉ. महेंद्र भटनागर के गीतों में अलंकारिक सौंदर्य
रचनाकार:आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
जगवाणी हिंदी को माँ वीणापाणी के सितार के तारों से झंकृत विविध रागों से उद्भूत सांस्कृत छांदस विरासत से समृद्ध होने का अनूठा सौभाग्य मिला है. संस्कृत साहित्य की सरस विरासत को हिंदी ने न केवल आत्मसात किया अपितु पल्लवित-पुष्पित भी किया. हिंदी सहित्योद्यान के गीत-वृक्ष पर झूमते-झूलते सुन्दर-सुरभिमय अगणित पुष्पों में अपनी पृथक पहचान और ख्याति से संपन्न डॉ.…
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Added by sanjiv verma 'salil' on September 22, 2010 at 9:30am —
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त्रिपदिक कविता :
प्रात की बात
संजीव 'सलिल'
*
सूर्य रश्मियाँ
अलस सवेरे आ
नर्तित हुईं.
*
शयन कक्ष
आलोकित कर वे
कहतीं- 'जागो'.
*
कुसुम कली
लाई है परिमल
तुम क्यों सोये?
*
हूँ अवाक मैं
सृष्टि नई लगती
अब मुझको.
*
ताक-झाँक से
कुछ आह्ट हुई,
चाय आ गयी.
*
चुस्की लेकर
ख़बर चटपटी
पढ़ूँ, कहाँ-क्या?
*
अघट घटा
या अनहोनी हुई?
बासी…
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Added by sanjiv verma 'salil' on September 22, 2010 at 8:00am —
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::::: मेरे जिस्म में प्रेतों का डेरा है ::::: © (मेरी नयी सवालिया व्यंग्य कविता)
मेरे जिस्म में प्रेतों का डेरा है...
नाना प्रकार के प्रेत...
भरमाते हुए...
विकराल शक्लें...
लोभ-काम-क्रोध-मद-मोह...
नाम हैं उनके...
प्रचंड हो जाता जब कोई...
घट जाता नया काण्ड कोई...
सृष्टि के दारुण दुःख समस्त...
सब दिये इन्हीं पञ्च-तत्व-भूतों ने...
लालसा...
अधिक से भी अधिक पाने की...
नहीं…
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Added by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on September 22, 2010 at 4:30am —
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नम आँखें...
आँखों में इंतज़ार...
कभी घड़ी को तकती...
तो कभी दरवाज़े की चौखट को...
और कभी थाली में सजी रेशम की डोर को...
उसमें सजे मोतियों की चमक में दिखता तेरा मुस्कुराता चेहरा...
और खो जाती मैं उस सुन्हेरे बचपन में...
जहाँ हर पल तेरा मुझे छेड़ना...
मुझे चिढ़ाना और चोटी खींचना...
तब भी आंसू देता था और आज भी...
तेरा शैतानियाँ करना और मेरा उन्हें माँ से छुपाना...
मुझे कोई रुलाये… Continue
Added by Julie on September 22, 2010 at 2:44am —
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फिर उसकी महक ले हवाएँ आईं
शायद काम मेरे मेरी दुआएँ आईं
आँखों में फिर थोड़ी चमक है सबकी
जाने क्या संग अपने ले घटाएँ आई
कौन बचा है खुदा के इंसाफ़ से यहाँ
सब के हिस्से मे अपनी सजाएँ आईं
बीमार कहाँ मरते हैं मरज से यहाँ
काम मारने के अब तो दवाएँ आईं
जब लगा ख़तरे मे है कोई "मासूम"
दौड़ चली शहर की सब माएँ आईं ,
Added by Pallav Pancholi on September 21, 2010 at 10:00pm —
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ख़्यालों के तासीर से दिल अपना बहला लेते हैं
कुछ लोग एहसासे बुलंदी से हीं आसूदगी पा लेते हैं
आसूदगी = संतोष
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फितरते दिलकशी है चेहरे पर नक़ाब उनका
राजे दिल फा़श करे रंगे शबाब उनका
वो न कहें लबों से चाहे कुछ मगर
कहती है बहुत कुछ अंदाजे हिजा़ब उनका
हैं वो भी मुज़्तरिब जितना की दिल मेरा
ये और बात है कहे न कुछ इजि़्तराब उनका
मुज़्तरिब = व्याकुल…
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Added by Subodh kumar on September 21, 2010 at 5:30pm —
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काश रहबर मिला नहीं होता
मै सफ़र में लुटा नहीं होता
गुंडागर्दी फरेब मक्कारी
इस ज़माने में क्या नहीं होता
हम तो कब के बिखर गए होते
जो तेरा आसरा नहीं होता
आग नफरत की जिसमे लग जाये
पेढ़ फिर वो हरा नहीं होता
हम शराबी अगर नहीं बनते
एक भी मैकदा नहीं होता
हिन्दू मुस्लिम में फूट मत डालो
भाई भाई जुदा नहीं होता
ये सियासत की चाल है लोगो
धर्म कोई बुरा नहीं होता
मंदिरों मस्जिदों पे लढ़ते…
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Added by Hilal Badayuni on September 21, 2010 at 12:56pm —
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उम्रे तमाम गुजारी तो क्या किया
इस जीवन से तूने क्या लिया |
इस जीवन को तूने क्या दिया
उम्रे तमाम गुजारी तो क्या किया |
ता उम्र तू रहा इस कदर बेखबर
रही न तुझे अपनी जमीर की खबर |
करता रहा तू मनमानी अपनी
रही न तुझे वक्त की खबर
उम्रे तमाम गुजारी तो क्या किया |
करता रहा तू मेरा - मेरा
नही है , यहा कुछ तेरा - मेरा |
उम्रे तमाम गुजारी तो क्या किया
मनुष्य जन्म तुझे है , किसलिए मिला
इस जन्म को किया क्या सार्थक तूने |
उम्रे तमाम गुजारी…
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Added by Pooja Singh on September 21, 2010 at 9:35am —
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कर कुछ नया रे मनवा ,
जा मति जा मति जा ,
छोड़ के सभको यु ही अकेले ,
उसपे दुनिया के लाख झमेले ,
द्वन्द को और ना बढ़ा ,
कर कुछ नया रे मनवा ,
जा मति जा मति जा ,
जब आया तू था सब सुन्दर ,
फिर माया मोह में लपटाया ,
जीवन को तू जीना चाहा ,
खुद को इसमें फसाया ,
अब क्यों कर तू सोचे हैं ,
फस गया मैं ये कहा ,
कर कुछ नया रे मनवा ,
जा मति जा मति जा ,
कर कुछ यैसा रह के जहाँ में ,
और ये सब को बता ,
नही हैं तेरे वास्ते कुछ भी…
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Added by Rash Bihari Ravi on September 20, 2010 at 5:43pm —
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तुम्हारे देश के उम्र की है
अपने चेहरे की सलवटों को तह करके
इत्मीनान से बैठी है
पश्मीना बालों में उलझी
समय की गर्मी
तभी सूरज गोलियां दागता है
और पहाड़ आतंक बन जाते हैं
तुम्हारी नींद बारूद पर सुलग रही है
पर तुम घर में
कितनी मासूमियत से ढूंढ़ रही हो
कांगड़ी और कुछ कोयले जीवन के
तुम्हारी आँखों की सुइयां
बुन रही हैं रेशमी शालू
कसीदे
फुलकारियाँ
दरियां ..
और तुम्हारी रोयें वाली भेड़
अभी-अभी देख आई है
कि चीड और…
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Added by Aparna Bhatnagar on September 20, 2010 at 4:00pm —
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खु़दा मेरी दीवानगी का राज फा़श हो जाये
वो हैं मेरी ज़िन्दगी उन्हें एहसास हो जाये
सांसे उधर चलती है धड़कता है दिल मेरा
एक ऐसा दिल उनके भी पास हो जाये
हर मुलाकात के बाद रहे हसरत दीदार की
ऐसे मिले हम दूर वस्ल की प्यास हो जाये
तड़पता है दिल उनके लिये तन्हाई में कितना
बेताबी भरा जज़्बात उधर भी काश हो जाये
तश्नाकामी इस कदर रहे नामौजुदगी में उनकी
जैसे सूखी जमीं को सबनमी तलाश हो जाये
करे तफ़सीर कैसे दिल उल्फत का ब्यां…
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Added by Subodh kumar on September 19, 2010 at 9:44pm —
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वह सामने खड़ी थी . मैं उसकी कौन थी ? क्यों आई थी वह मेरे पास ? बिना कुछ लिए चली क्यों गयी थी? न मैंने रोका, न वह रुकी. एक बिजली बनकर कौंधी थी, घटा बनकर बरसी थी और बिना किनारे गीले किये चली भी गयी . कुछ छींटे मेरे दामन पर भी गिरे थे. मैंने अपना आँचल निचोड़ लिया था. लेकिन न जाने उस छींट में ऐसा क्या था कि आज भी मैं उसकी नमी महसूस करती हूँ - रिसती रहती है- टप-टप और अचानक ऐसी बिजली कौंधती है कि मेरा खून जम जाता है -हर बूंद आकार लेती है ; तस्वीर बनती है -धुंधली -धुंधली ,सिमटी-सिमटी फिर कोई गर्म…
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Added by Aparna Bhatnagar on September 19, 2010 at 5:00pm —
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माँ के आँचल से छीन जहाँ
नवजात मृत्यु ले जाती हो..
सत्ता पैशाची हर्षित हो
इस पर कहकहा लगाती हो...
आतंकी अत्याचारी ही,
जिस कालखंड के शासक हों ,
जब स्वार्थ नीति से प्रेरित हो
शासन समाज का त्रासक हो...
जहाँ बचपन ढोर चराने में
उलझे, शिक्षा से दूर रहे...
जहाँ समझदार भी सत्यवचन
न कहने को मजबूर रहें....
जहाँ विषधर नदियों के जल में
कुंडली मार कर बैठे हों ,
जो मानदंड हों श्रद्धा के,
श्रद्धालुजनों से ऐंठे…
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Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on September 19, 2010 at 4:00pm —
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इस बार वो ये बात अजब पूछते रहे
मेरी उदासियो का सबब पूछते रहे
अब ये मलाल है कि बता देते राज़-ऐ-दिल
तब कह सके न कुछ भी वो जब पूछते रहे
Added by Hilal Badayuni on September 19, 2010 at 4:00pm —
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छोड़ कर वो साथ मेरा जब जुदा हो जायेगा ,
ज़ात पैर इंसान की कुछ तब्सिराह हो जायेगा .
हद से ज्यादा कर रहा था मै वफाएं उसके साथ ,
मुझको क्या मालूम था वो बेवफा हो जायेगा .
Added by Hilal Badayuni on September 19, 2010 at 4:00pm —
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जब तलक मंसूब दिल से दिल न हो ,
दिल को तब तक हिचकियाँ मिलती नहीं .
इश्क करने से मिलेंगी शोहरतें ,
मुफ्त में बदनामियाँ मिलती नहीं .
Added by Hilal Badayuni on September 19, 2010 at 4:00pm —
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उससे बिछड़ के ऐसे मेरा दिल उदास है ,
जैसे बिछड़ के मौज से साहिल उदास है .
मै कर रहा हु इसलिए हसने की कोशिशे ,
मुझको उदास देख के महफ़िल उदास है .
Added by Hilal Badayuni on September 19, 2010 at 4:00pm —
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रब्त -ऐ - नाज़ुक की शुरुआत भी हो सकती है ,
लब हिलेंगे नहीं और बात भी हो सकती है .
हमसे मिलने का कभी दिल में न तुम ग़म करना ,
बंद आँखों में मुलाक़ात भी हो सकती है .
Added by Hilal Badayuni on September 19, 2010 at 4:00pm —
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