मैं तो बस एक प्रतिभागी हूं.
वक्ता के समर्थन में
सिर हिलाना ही
मेरी नियति है.
संवाद बोलने को तरसता,
एक्सप्रेशन्स दर्शाने को लालायित,
मूव्मेंट्स करने को निषिद्ध,
किंकर्तव्यविमूढ़ सा,
अश्व की भाँति
सिर हिलाता,
मन ही मन
परमात्मा से विनती करता रहता हूं,
कि हे ईश्वर,
ये वक्तागण ख़ूब ग़लतियाँ करें.
ताकि मुझ 'एक्सट्रा कलाकार' की,
एक दिन की…
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Added by moin shamsi on October 10, 2010 at 12:56pm —
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हमारा शक सही हो ऐसा अक्सर नहीं होता,
हर आदमी के हाँथ में पत्थर नहीं होता.
मेरे दुखों की बाबत मुझसे न पूछिए,
जो ज्वार को रोये वो समुन्दर नहीं होता.
मैं अपने घर के लोगों से मिलता हूँ उसी रोज,
जिस रोज मेरे घर मेरा दफ्तर नहीं होता.
सच बोलता हूँ मान न होने का गम नहीं,
नासूर कितने होते जो नश्तर नहीं होता.
कितने बरस से बन रही हैं योजनाएं पर,
लाखों हैं जिनके सर पर छप्पर नहीं होता.
गढ़ते हैं किले आपके कर पेट पीठ एक,
उनको…
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Added by Abhinav Arun on October 10, 2010 at 10:00am —
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याद जाने कहाँ खो गयी,
बात आयी गयी हो गयी .
दिन में हल मैं चलाता रहा,
रात में बीज वो बो गयी.
बंद थीं मछलियाँ जार में,
तितली पानी से पर धो गयी.
बाद मुद्दत के आयी खुशी ,
मेरे हालात पर रो गयी.
तुमने बच्ची को डाटा बहुत ,
लेके टेडी बीयर सो गयी.
उसकी यादों में खोया था मैं,
इसका तस्कीन कर वो गयी.
एक नौका नदी से मिली ,
और मंझधार में खो गयी.
माँ ने कुछ भी तो पूछा न था,
कैसे मन को मेरे टो…
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Added by Abhinav Arun on October 10, 2010 at 10:00am —
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उसकी हद उसको बताऊंगा ज़रूर,
बाण शब्दों के चलाऊंगा ज़रूर.
इस घुटन में सांस भी चलती नहीं,
सुरंग बारूदी लगाऊंगा ज़रूर.
यह व्यवस्था एक रूठी प्रेयसी,
सौत इसकी आज लाऊंगा ज़रूर.
सच के सारे धर्म काफिर हो गए,
झूठ का मक्का बनाऊंगा ज़रूर.
इस शहर में रोशनी कुछ तंग है,
इसलिए खुद को जलाऊंगा ज़रूर.
आस्था के यम नियम थोथे हुए,
रक्त की रिश्वत खिलाऊंगा ज़रूर.
आख़री इंसान क्यों मायूस है ,
आदमी का हक दिलाऊंगा…
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Added by Abhinav Arun on October 10, 2010 at 9:30am —
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जीवन... जीतें हैं लोग...
वही... जो, जैसा मिल जाता है उन्हें...
पर इस एक जीवन में... है एक और जीवन...
जिसे, अक्सर भूल जातें हैं हम...
वो है 'रंगों' का जीवन...
हर रंग एक जीवन खुद में...
हर जीवन एक रंग खुद में....
हर रंग की अपनी कहानी...
हर कहानी का अपना रंग...
खुशियाँ, उदासियाँ, उल्लास, विश्वास...
जीवन की तरह हर मोड़ है यहाँ...
हर खुशबू है, हर सपना है...
कभी उदासी में साथ…
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Added by Julie on October 9, 2010 at 5:00pm —
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चाँद घुटनों पे पड़ा था
अम्बर की किनारी पे
शब-ए-काकुल मे
तरेड़ पड़ गयी थी
चांदनी की .......
"जैसे तेरी कोरी मांग,
मैंने अभी भरी नहीं "
माँ ने अंजल भर के तारो से
चरण-अमृत छिड़का हो
सारा आसमान जैसे सजाया हो
आरती की थाली की मानिंद
तेरा गृह-प्रवेश करने के लिए ....... !
.. पर इतना बड़ा आसमान
कैसे मेरे छोटे से घर मे समाता .....
" अच्छा होता मैं घर ही न बनाता"
मैं घर ही न बनाता ...…
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Added by vikas rana janumanu 'fikr' on October 9, 2010 at 3:30pm —
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(सब से पहले यहीं पर प्रस्तुती कर रहा हूँ इस रचना की , आशीर्वाद दीजियेगा)
जलने दो मुझे जलने दो ,अपनी ही आग में जलने दो .
ये आग जलाई है में ने , मुझे अपनी आग में जलने दो .
तू मेरी चिंता मत करना ,ठंडी आहें भी मत भरना ;
मैं जलता था मैं जलता हूँ ,सम्पूर्णता को मचलता हूँ ,
मन मचल रहा है मचलने दो ;मुझे अपनी आग में जलने दो .
दाहक,दैहिक पावक न ये ,मानस तल का दावानल है,
ज्वाला मैं जन्म पिघलने दो ,मन को शोलों में ढलने दो
मुझे जलने दो…
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Added by DEEP ZIRVI on October 9, 2010 at 3:00pm —
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इन्तहा है, हमारे सब्र की,
न जाने कब ये खत्म होगी,
जाने कब जागेंगे, और कसेंगे पीठ अपनी,
कब सचेत होंगे,
कब रोकेंगे हम विध्वंस को|
क्यों हम कहते हैं की मान जाओ,
जबकि हम जानते है,
वो कहने से नहीं मानेंगे,
वो नहीं समझेंगे मानवता को|
हम अपने सामर्थ्य से रोक सकते हैं उन्हें,
फिर भी सब्र किये बैठे हैं|
बहुत बड़ी इन्तहा है हमारे सब्र की,
अनंत तो नहीं, पर उसकी ही ओर|
Added by आशीष यादव on October 9, 2010 at 9:30am —
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मुक्तिका...
क्यों है?
संजीव 'सलिल'
*
रूह पहने हुए ये हाड़ का पिंजर क्यों है?
रूह सूरी है तो ये जिस्म कलिंजर क्यों है??
थी तो ज़रखेज़ ज़मीं, हमने ही बम पटके हैं.
और अब पूछते हैं ये ज़मीं बंजर क्यों है??
गले मिलने की है ख्वाहिश, ये संदेसा भेजा.
आये तो हाथ में दाबा हुआ खंजर क्यों है??
नाम से लगते रहे नेता शरीफों जैसे.
काम से वो कभी उड़िया, कभी कंजर क्यों है??
उसने बख्शी थी हमें हँसती हुई जो धरती.
आज…
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Added by sanjiv verma 'salil' on October 9, 2010 at 9:00am —
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मुक्तिका:
वह रच रहा...
संजीव 'सलिल'
*
वह रच रहा है दुनिया, रखता रहा नजर है.
कहता है बाखबर पर इंसान बेखबर है..
बरसात बिना प्यासा, बरसात हो तो डूबे.
सूखे न नेह नदिया, दिल ही दिलों का घर है..
झगड़े की तीन वज़हें, काफी न हमको लगतीं.
अनगिन खुए, लड़े बिन होती नहीं गुजर है..
कुछ पल की ज़िंदगी में सपने हजार देखे-
अपने न रहे अपने, हर गैर हमसफर है..
महलों ने चुप समेटा, कुटियों ने चुप लुटाया.
आखिर में सबका…
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Added by sanjiv verma 'salil' on October 9, 2010 at 8:57am —
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वो कौन है जिसकी याद सताती है हमें|
न जाने किस तरफ ये रोज बुलाती है हमें||
खोजता हूँ मै उसे मिलती नहीं वो मुझको|
रात को लेकिन चुपके से जगाती है हमें||
कहीं मिले जो कभी मुझसे साफ़ कह दूँ मैं|
की कौन है और ऐसे सताती है हमें||
देर तक तन्हा बैठ कर के यूँ ही सोचते हैं|
फिर याद उसकी जमीं महफ़िल में लाती है हमें||
फूल के जैसे खिल के वो मेरे सिने में|
साथ हूँ इसका एहसास कराती है हमें||
एक अनजान सहारा सी बन गयी है वो|
अश्क…
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Added by आशीष यादव on October 9, 2010 at 8:52am —
18 Comments
कोल्हू चाक रहट मोट की आवाज़ें,
शहरों से आयातित चोट की आवाज़ें.
मान मनोव्वल कुशलक्षेम पाउच और नोट ,
सबके पीछे छिपी वोट की आवाज़ें.
लूडो कैरम विडियो गेम के पुरखे हुए ,
बच्चों के हांथों रिमोट की आवाज़ें.
ध्यान रहे इस ताम झाम में दबें नहीं ,
आयोजन में हुए खोट की आवाज़ें .
मजबूरी में बार गर्ल बन बैठी वो ,
सिसकी पर भारी है नोट की आवाज़ें.
बेटा नहीं नियम से आता मनी-ऑर्डर,
कौन सुनेगा दिल के चोट की आवाज़ें.
मेरी…
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Added by Abhinav Arun on October 9, 2010 at 8:30am —
7 Comments
शक्ति की आराधना का पर्व आरंभ हो चुका है. नव दिन तक हम माँ की पूजा अर्चना करेंगे. हमारे यहाँ कन्या को भी देवी के रूप में माना जाता है और इसी लिए हम नवरात्रा के अंतिम दिन कन्या पूजन करने के बाद ही पर्व समाप्त करते हैं, किंतु यह आश्चर्य और दुख की बात है कि जो समाज कन्याओं को देवियों के रूप में पूजता है वही समाज कन्या भ्रूण हत्या का भी अपराधी बनता जा रहा है.
आइए इस पर्व पर हम सब माँ दुर्गा की सौगंध खा कर यह संकल्प लें कि हम ना तो अपने परिवार में कन्या भ्रूण हत्या के दोषी बनेगे और ना ही…
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Added by Pooja Singh on October 9, 2010 at 12:30am —
4 Comments
आदि शक्ति वंदना
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
आदि शक्ति जगदम्बिके, विनत नवाऊँ शीश.
रमा-शारदा हों सदय, करें कृपा जगदीश....
*
पराप्रकृति जगदम्बे मैया, विनय करो स्वीकार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
अनुपम-अद्भुत रूप, दिव्य छवि, दर्शन कर जग धन्य.
कंकर से शंकर रचतीं माँ!, तुम सा कोई न अन्य..
परापरा, अणिमा-गरिमा, तुम ऋद्धि-सिद्धि शत…
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Added by sanjiv verma 'salil' on October 8, 2010 at 5:30pm —
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अश्क आँखों में लेकर मुस्कुराता हूँ मैं.
गीत बहारों का पतझड़ में गाता हूँ मैं.
उठ गया है यकीं अब किनारों से मेरा,
मझधार में अपनी कश्ती लगाता हूँ मैं.
राहों से गुम होने लगे है दरख्तों के साए,
धुप को ही सेहरा सर का बनाता हूँ मैं.
नहीं छोड़ा शराफत ने मुझको कही का,
रस्म उल्फत का फिर भी निभाता हूँ मैं.
दूर तलक नहीं दिखते है खुशिओं के बादल,
गम से ही अपने दिल को बहलाता हूँ मैं.
"नूरैन" आबो हवा है ज़माने का… Continue
Added by Noorain Ansari on October 8, 2010 at 12:30pm —
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जय माँ दुर्गे -जय महाकाली, जय माँ -जय माँ जय शेरावाली.
तू दानी माता महारानी, बाकी सब ही सवाली.
जय माँ दुर्गे --------------------------------------------------
तुम्हरी शरण में जो भी आते , जो भी तुमसे नेह लगाते.
तुम्हरी महिमा को नहीं जाने, मईया सब तुम्हरे गुण गाते.
हाथ पसारे सब ही आते - जाते ना पर खाली.
जय माँ दुर्गे ---------------------------------------------
शेर सवारी- भुजा कटारी, मुंडमालिनी-खप्परधारी.
ऐसा कौन जो तुमसे बचा हो , सब दुष्टन पर तुम हो…
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Added by satish mapatpuri on October 8, 2010 at 12:07pm —
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जनाब नवीन चतुर्वेदी जी
खारों के पास ही नाज़ुक गुलों का घर क्यूँ है|
मुद्दतों से वही मसला, वही उत्तर क्यूँ है|१|
पेट भरता चला आया युगों से जो सब का|
भाग्य में उस अभागे के, फकत ठोकर क्यूँ है|२|
सालहासाल जिसके वोट खींच रहे - संसद|
'थेगरों' से पटी उसकी शफ़क चद्दर क्यूँ है|३|
और कितनी बढ़ाएगा बता कीमत इसकी|
दृष्टि में तेरी, मेरे भाग की शक्कर क्यूँ है|४|
जो कि अल्लाह औ भगवान दोनो हैं इक ही|
फिर जमीँ पे कहीं…
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Added by योगराज प्रभाकर on October 8, 2010 at 10:30am —
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दराज़ पलकें, हसीन चेहरा, वो दिलकशी और वो जो नजाकत |
कोई अगर लाजवाब हो तो, वो आवे देखे जवाब अपना ||
न मयकदा कोई रहना बाकी, न मयकशी न कहीं हो साकी |
अगर पलट दे मेरा ये दिलबर, जरा रुखों से नकाब अपना ||
खनकती आवाज़ शीशे जैसी, लचकती सी चाल हाय रब्बा |
वो माथे पे झूले नाग बच्ची, समझ के जुल्फों को नाग अपना ||
किसी मुस्स्विर का ख्वाब वो है, किसी तस्सवुर की है हकीकत ||
अगर कभी उसको देख ले तो,…
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Added by DEEP ZIRVI on October 8, 2010 at 7:00am —
3 Comments
राज़ दिल का छुपाया बहुत है
आंसुओं को सुखाया बहुत है
मै समझता था जिसको शनासा
आज वो ही पराया बहुत है
मैंने जिसको हसाया बहुत था
उसने मुझको रुलाया बहुत है
अब कोई और खेले न दिल से
ये किसी ने सताया बहुत है
कर चला है वो नाराज़ मुझको
मैंने जिसको मनाया बहुत है
उसके लफ्जों में हूँ आज भी मै
वैसे उसने भुलाया बहुत है
तेरी संजीदगी कह रही है
तू कभी मुस्कुराया बहुत है
क्या हुआ जो समर अब नहीं…
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Added by Hilal Badayuni on October 7, 2010 at 11:05pm —
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सब के रब !दूर हर इक मन का धुंधलका करदे
आईने पर है जमी धुल जो सफा कर दे
नफस में कीना है ; सीने में है जलन नफरत ;
इन आफतों को क्रीम मौला तू दफा कर दे ..
नफस बीमार है चंगा तो बशर दीखता है ;
तू नफस और बशर दोनों को चंगा कर दे
अपने ही हाथों से कर डालें ना खुद को घायल ;
तू भले और बुरे से हमें आगाह कर दे
बन के मजनूं न फिरे कोई जख्म न खाए ;
सब कि आगोश में तौफीक की लैला कर दे
खुद से बेगाना हुआ फिरता है जो ,तू खुद ही ;
उन को खुद से मिला कर के तू…
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Added by DEEP ZIRVI on October 7, 2010 at 10:43pm —
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