सूरज से आँख मिलाता ''चिराग'' और काल के गाल पर आँसू ढुलकाती उसकी गज़लें
सौजन्य से : रविकान्त<अनमोलसाब@जीमेल.कॉम>, संजीवसलिल@जीमेलॅ.कॉम
कहते हैं उसके यहाँ देर है अंधेर नहीं. काश यह सच हो. ३४ वर्षीय जवान, संभावनाओं से भरे शायर शशिभूषण ''चिराग'' का चला जाना उसके निजाम की अंधेरगर्दी की तरफ इशारा है. पूछने का मन है ''बना के क्यों बिगाड़ा रे, बिगाड़ा रे नसीबा, ऊपरवाले... ओ ऊपरवाले.'' बकौल श्री रविकान्त 'अनमोल': '' 'चिराग़' जैसा संभावनाओं का शाइर ३४ वर्ष की छोटी आयु में चला…
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Added by sanjiv verma 'salil' on October 5, 2010 at 12:00am —
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विशेष लेख:
देश का दुर्भाग्य : ४००० अभियंता बाबू बनने की राह पर
रोम जल रहा... नीरो बाँसुरी बजाता रहा...
-: अभियंता संजीव वर्मा 'सलिल' :-
किसी देश का नव निर्माण करने में अभियंताओं से अधिक महत्वपूर्ण भूमिका और किसी की नहीं हो सकती. भारत का दुर्भाग्य है कि यह देश प्रशासकों और नेताओं से संचालित है जिनकी दृष्टि में अभियंता की कीमत उपयोग कर फेंक दिए जानेवाले सामान से भी कम है. स्वाधीनता के पूर्व अंग्रेजों ने अभियंता को सर्वोच्च सम्मान देते हुए उन्हें…
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Added by sanjiv verma 'salil' on October 4, 2010 at 8:31pm —
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कुछ तितलियाँ
फूलों की तलहटी में तैरती
कपड़े की गुथी गुड़ियाँ
कपास की धुनी बर्फ
उड़ते बिनौले
और पीछे भागता बचपन
मिट्टी की सौंध में रमी लाल बीर बहूटियाँ
मेमनों के गले में झूलते हाथ
नदी की छार से बीन-बीन कर गीतों को उछालता सरल नेह
सूखे पत्तों की खड़-खड़ में
अचानक बसंत की लुका-छिपी
और फिर बसंत -सा ही बड़ा हो जाना -
तब दीखना…
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Added by Aparna Bhatnagar on October 4, 2010 at 5:00pm —
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कब सुनते
अतीत के सुस्वर
बीतती उमर
- - -
पीपल दादा
सुरसुराती हवा
उदास मन
- - -
झूमती जाती
सुनहली बालियाँ
पगली हवा
- - -
मैं एक नदी
गिरती औ उठती
आगे ही जाती
- - -
स्वर्ग सा सुख
ममता भरी छाँव
माँ की गोद में
- - -
सनता जाता
स्वार्थ के कीचड़ में
ये जग सारा
Added by Neelam Upadhyaya on October 4, 2010 at 4:35pm —
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Photography by :
Jogendra Singh
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काँटा और गुहार :: © ( क्षणिका )
आसान नहीं है ...
पाँव से काँटा निकाल देना ...
हाथ बंधे हैं पीछे और ...
उसी ने बिखेरे थे यह कांटे ...
निकालने की जिससे ...
हमने करी गुहार है ...
►
जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 02 अक्टूबर 2010…
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Added by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on October 3, 2010 at 2:30am —
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याद उस गरीब को भी ....
याद उस गरीब को भी कर लीजै
अदना सा था वो गोद में भर लीजै.
इरादा फौलादी था उसका, दोस्तों
नाम आज तो उसका भी ले लीजै.
पैंसठ में जो मार दी जुनूनी को, उसे
आज तक नहीं भूला, याद कर लीजै.
जय जवान-जय किसान का नारा दिया
जगाया भारत को उसे याद कर लीजै.
रहबर ही दुश्मनों से साज था, 'चेतन'
शास्त्री जी की आज तो खबर ले लीजै
Added by chetan prakash on October 2, 2010 at 7:30pm —
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तेरे पहलू में शाम क्या करते
उम्र तेरी थी , नाम क्या करते
तेरी महफ़िल में हम जो आ जाते
लोग किस्से तमाम क्या करते
आसमां तेरा ये जमीं तेरी
हम जो करते मुकाम क्या करते
होश में आते हम भला क्यूँ कर
सारे खाली थे जाम , क्या करते
कशमकश आग की उसूलों से
मौम के इंतजाम क्या करते
सच के फिर साथ चल नहीं पाए
झूठ पे थे इनाम, क्या करते
कांच का था ये दिल जो टूटा है
इत्तला खासोआम क्या करते
जब से होने लगे…
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Added by vineet agarwal on October 2, 2010 at 2:11am —
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ज़िन्दगी... ... ...
देती रही तमन्नायें...
उन्हें सहेजती रही मैं...
खुद में... ... ...
इस उम्मीद से...
कि कभी... किसी रोज़...
कहीं ना कहीं...
इन्हें भी दूँगी पूर्णता...
और करूँगी...
खुद को भी पूर्ण...
जिऊँगी तृप्त हो...
इस दुनिया से...
बेखबर... ... ...
पर... ... ...
नहीं जानती थी मैं...
कि तमन्नायें होतीं हैं...
सिर्फ सहेजने के लिये...
इन समंदर… Continue
Added by Julie on October 1, 2010 at 10:05pm —
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वाह जनाब वाह, आप लोगों ने कर दिया कमाल ,
खुश हो गया हिंद, राम लला का मिल गया माल ,
तीन भाग में बट गया मिटीं सब मुश्किलात ,
कितना अच्छा था ये मौका दिखे सब एक साथ ,
अब गुजारिश मेरी सब से यही चाहे हिंदुस्तान ,
राम लला का मंदिर बने जो हैं देव तुल्य समान ,
गरिमा बढ़ जाएगी सब की देखेगा सारा जहान ,
हिन्दू मुस्लिम भाई भाई साथ रहेंगे सिख ईसाई ,
चारो की ताकत से ही हिंद में नई जान हैं आई ,
कौन कहता हैं हम लड़ते पूरे विश्व से हैं सवाल ,
वाह जनाब वाह आप लोग कर…
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Added by Rash Bihari Ravi on October 1, 2010 at 12:30pm —
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क्या लेना
मुझे मंदिर से क्या लेना
मुझे मस्जिद से क्या लेना
मैं दिल से इबादत करता हूँ
मुझे राम, रहीम संग रहना
मैं गीता पढ़ सकता हूँ
गुरु ग्रन्थ साहिब रट सकता हूँ
कुरान और बाइवल मेरे दिल में बसे
मुझे इन सब के संग रहना
मुझे सियासत नहीं आती
बिलकुल भी नहीं भाती
इक सीधा सदा हूँ इन्सान
मुझे इन्सान बनके ही रहना
में 'दीपक कुल्लुवी' हूँ
मुझे है प्यार दुनिया से
मुझे सबसे मुहब्बत है
मुझे और नहीं कुछ…
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Added by Deepak Sharma Kuluvi on October 1, 2010 at 9:47am —
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आप प्रकृति की अनुपम रचना है
मगर ...
कृत्रिम प्रसाधनो का लेपन
बनावटीपन जैसा लगता है ॥
मैं आपको रंगना चाहता हूँ
प्रकृति के रंगों से ॥
मैं आपको देना चाहता हूँ
टेसू के फूलों की लालिमा
कपोलों पर लगाने के लिए ॥
मृग के नाभि की थोड़ी सी कस्तूरी
देह -यष्टि पर लगाने के लिए ॥
फूलों के रंग -बिरंगे परागकण
माथे की बिंदी सजाने के लिए ॥
और तो और
थोड़ी सी लज्जा मांग कर लाई है मैंने
आपके लिए
लाजवंती के पौधों से ॥
इसके…
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Added by baban pandey on October 1, 2010 at 9:10am —
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माही नदी के पानी पर ढाक के पेड़ों की सुनहरी काली छाया , चांदी का वरक लपेटे बहता प्रवाह और किनारे की बजरी पर उगी नरम घास अनारो के कबीलाई मन के संस्कार बन चुके थे. उसका बचपन यहीं रेत में लोट-लोटकर उजला हुआ था. घंटों नदी के पानी में पैर डालकर बैठी रहती.छोटे-छोटे हाथ अंजुरी में पानी समेटते और हवा में कुछ बूंदें यूँ ही उछल जातीं. अनारो उन्हें लपकने की कोशिश करती और जब एक-आध बूंद उसके श्याम मुख पर गिरती तो खनखनाकर ऐसे हंसती कि सारा वातावरण उसकी हंसी से…
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Added by Aparna Bhatnagar on October 1, 2010 at 7:30am —
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सामयिक कविता:
फेर समय का........
संजीव 'सलिल'
*
फेर समय का ईश्वर को भी बना गया- देखो फरियादी.
फेर समय का मनुज कर रहा निज घर की खुद ही बर्बादी..
फेर समय का आशंका, भय, डर सारे भारत पर हावी.
फेर समय का चैन मिला जब सुना फैसला, हुई मुनादी..
फेर समय का कोई न जीता और न हारा कोई यहाँ पर.
फेर समय का वहीं रहेंगे राम, रहे हैं अभी जहाँ पर..
फेर समय का ढाँचा टूटा, अब न दुबारा बन पायेगा.
फेर समय का न्यायालय से खुश न कोई भी रह…
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Added by sanjiv verma 'salil' on October 1, 2010 at 12:43am —
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फूल जैसे किसी बच्चे की झलक है मुझ मे,
कितने मासूम ख्यालों की महक है मुझ में !
रोज़ चलता हूँ हजारों किलोमीटर लेकिन,
खत्म होती ही नहीं कैसी सड़क है मुझ में !
मैं उफ़क हूँ मेरा सूरज से है रिश्ता गहरा,
एक दो रंग नही सारी धनक है मुझ में !
वो मुहब्बत वो निगाहें वो छलकते आँसू,
चंद यादों की अभी बाक़ी खनक है मुझ में
चाँद से कह दो हिकारत से ना देखे मुझ को,
माना जुगनू हूँ मगर अपनी चमक है मुझ में !
Added by SYED BASEERUL HASAN WAFA NAQVI on September 30, 2010 at 7:30pm —
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काँटों की रंजिश फूलों से निकाला ना कीजिये.
किसी बेगुनाह पे कीचड़ उछाला ना कीजिये.
किस्मत में लिखा अँधेरा, तो अँधेरा ही मिलेगा,
घर किसी और का जला के उज्जाला ना कीजिये.
दूसरों से मुहब्बत की, उम्मीद करना है जायज,
मगर नफरत अपने सिने में भी पाला ना कीजिये.
इंसानियत से बढ़ कर कोई भी मजहब नहीं होता,
मजहब से कभी इंसानियत को खंगाला ना कीजिये.
भूखी है सारी दुनिया प्रेम और अपनापन की,
होंठों पे मीठे बोल खातिर ताला ना…
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Added by Noorain Ansari on September 30, 2010 at 3:23pm —
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वह बोझिल मन लिए
उदास उदास
निहार रहा अपनी कुदरत
खड़ा क्षितिज के पास
मिल कर भी
नहीं मिलते जहाँ
दो जहां
अपनी अपनी आस्था की धरा पे
कायम हैं उसके बनाये इंसान
हो गए हैं जिनके मन प्रेम विहीन
बिसरा दिए हैं जिन्होंने दुनिया और दीं
इस रक्त रंजित धरा पर बिखरे
खून के निशाँ
वही नही बता सकता
उन्हें में कौन है
राम और कौन रहमान
बिसूरती मानवता के यह अवशेष
लुटती अस्मत,मलिन चेहरे,बिखरे केश
सुर्ख…
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Added by rajni chhabra on September 30, 2010 at 3:00pm —
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कहाँ तक
कहाँ तक संजोउं मैं सपने सुहाने
कहाँ तक बचाऊ मैं सपने सुहाने
अपना ही नाम तक भूलने लगा हूँ
कहाँ तक छुपाऊं मैं सपने सुहाने
क्या हूँ मैं किसको पता
क्या था मैं किसको पता
सबको दिखेगा बस मेरा आज
दिखाऊं किसे ज़ख्म दिल के पुराने
कल तक तो 'दीपक' था 'कुल्लुवी' है आज
किसे क्या पता ,है आवाद या बर्वाद
कोई भूल चुका होगा किसी को याद होगा
किसे क्या पता अब तो हम हैं दीवाने
दीपक शर्मा कुल्लुवी
०९१२३६२११४८६
Added by Deepak Sharma Kuluvi on September 30, 2010 at 11:05am —
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सुरज निकला है पुरब की ओर,
बिखरी है रोशनी चारो ओर।
आसमान के चाँद-तारे छिप गये,
जमीन के सारे नजारे दिख गये।।
मुर्गे ने बांग सबको सुना दिया,
हो गया सवेरा सबको बता दिया।
लोगों ने अपना बसेरा छोड़ दिया,
लगे काम पर कह सेबेरा हो गया।।
चिड़ियों ने गाना शुरू किया,
मिठे स्वर को फैलाना शुरू किया।
निकली चिड़ियाँ खुले आसमान में,
लग गयी भोजन की तलाश में।।
फुलों ने अपना खोला बदन,
लगीं फैलाने मनोहर पवन।
खुशबु ने इसके किया है…
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Added by Deepak Kumar on September 30, 2010 at 10:30am —
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घरौंदा कहूँ या सराय :: ©
प्रेम सागर से झील की ओर जाता हुआ ...
जैसे छोटी सी दुनिया बसाना चाहता हो ...
छोटे सपनों सा घरौंदा बसाना चाहता हो ...
कोई आये कह दे मुझे रह लूँ बन पथिक ...
कुछ समय के लिए , तेरे इस आसरे में ...
सोच रहा हूँ अब इसे घरौंदा कहूँ या सराय ...
आना है तुम्हें फिर से चले जाने के लिए ...
तुम न…
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Added by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on September 29, 2010 at 7:30pm —
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लोकगीत:
पोछो हमारी कार.....
संजीव 'सलिल'
*
ड्राइव पे तोहे लै जाऊँ, ओ सैयां! पोछो न हमरी कार.
पोछो न हमरी कार, ओ बलमा! पोछो न हमरी कार.....
*
नाज़ुक-नाज़ुक मोरी कलाई,
गोरी काया मक्खन-मलाई.
तुम कागा से सुघड़, कहे जग-
'बिजुरी-मेघ' पुकार..
ओ सैयां! पोछो हमारी कार.
पोछो न हमरी कार, ओ बलमा! पोछो न हमरी कार.....
*
संग चलेंगी मोरी गुइयां,
तनक न हेरो बिनको सैयां.
भरमाये तो कहूँ राम सौं-
गलन ना दइहों…
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Added by sanjiv verma 'salil' on September 29, 2010 at 7:00pm —
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