मैं करता हूँ तेरा इंतज़ार प्यार में ,
प्यार करता है तेरा इंतज़ार मुझमे ..
शाम से ही रोशन ये चाँद ,
पलकें झपकते ये सितारे तमाम ,
ख्वाबों की बार बार आती जाती मुस्कान ,
हैं सभी बेचैन तेरे इंतज़ार में..
हवाएं ,
लहरें
और मैं
इंतज़ार का ही हैं नाम , प्यार में..
ख़ामोशी करती है प्यार
और प्यार करता है ख़ामोशी,
मैं करता हूँ दोनों
प्यार और खामोश इंतज़ार ...
Added by Veerendra Jain on October 11, 2010 at 1:20pm —
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दूर तुम हो पास अब तन्हाई है
ज़िंदगी किस मोड़ पर ले आई है
हुस्न वाले चैन छीने दर्द दें
अक्ल अब जा के ठिकाने आई है
काटनी होगी फसल तन्हाई की
पर्वतों सी हो गयी ये राई है
रात आधी चाँद पूरा नींद गुम
चोट दिल की भी उभर सी आई है
आजकल क्यूँ गुम से रहते हो बड़े
मुझसे पूछे रोज मेरी माई है
तुम न हो तो फ़िक्र करते सब मेरी
दोस्त पूछे, ध्यान रखता भाई है
दिल न लगता है किसी भी अब जगह
दिल लगाने की सज़ा यूँ पाई…
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Added by vikas rana janumanu 'fikr' on October 11, 2010 at 1:00pm —
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ज़माना याद रखे जो ,कभी ऐसा करो यारो .
अँधेरे को न तुम कोसो, अंधेरों से लड़ो यारो .
निशाने पे नज़र जिसकी ,जो धुन का हो बड़ा पक्का ;
'बटोही श्रमित हो न बात जाये जो ' बनो यारो .
जगत में भूख है ,तंगी - जहालत है जहां देखो ;
करो सर जोड़-कर चारा चलो झाडू बनो यारो .
रखे जो आग सीने में, जो मुख पे राग रखता हो ;
अगर कुछ भी नही तो राग दीपक तुम बनो यारो .
नदी भी धार बहती है,लहू भी धार बहती है ,
जो धारा प्रेम की लाये वो भागीरथ बनो यारो…
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Added by DEEP ZIRVI on October 10, 2010 at 6:59pm —
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खिलौना अपने दिल का हम तुम्हे फौरन दिला देते;
तुम्हे एस की जरूरत है;अगर तुम ये बता देते .
कभी इस से कहा तुम ने कभी उस से कहा तुम ने ;
मुझे अपना समझ क्र तुम कभी दिल की सुना देते .
deepzirvi@yahoo.co.in
Added by DEEP ZIRVI on October 10, 2010 at 6:55pm —
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आदमी को ढूढने में खो गया है आदमी.
आँख है खुली मगर सो गया है आदमी.
खुद जला है रातदिन खुद मिटा है रातदिन ;
और खुद की खोज में ,लो गया है आदमी .
घर बना सका नही वो तमाम उम्र में ;
रात दिन बेशक कमाई को गया है आदमी.
एक दिल की दास्ताँ ये दास्ताँ नही सुनो;
दिल्लगी से दिल लगाई हो गया है आदमी.
दीप हर डगर जले ,हर नगर ख़ुशी पले;
बीज हसीन ख्वाब से बो रहा है आदमी
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Added by DEEP ZIRVI on October 10, 2010 at 6:30pm —
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सूरजों की बस्ती थी, जुगनुओं का डेरा है ,
कल जहा उजाला था अब वहां अँधेरा है.
राह में कहाँ बहके, भटके थे कहाँ से हम ,
किस तरफ हैं जाते हम, किस तरफ बसेरा है.
आदमी न रहते हों बसते हों जहां पर बुत ,
वो किसी का हो तो हो, वो नगर न मेरा है.
रहबरों के कहने पर रहजनों ने लूटा है ,
रौशनी-मीनारों पे ही बसा अँधेरा है .
मछलियों की सेवा को जाल तक बिछाया है ,
आजकल समन्दर में गर्दिशों का डेरा है.
दीप को तो जलना है, दीप तो जलेगा ही…
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Added by DEEP ZIRVI on October 10, 2010 at 6:30pm —
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हाइकु मुक्तिका:
संजीव 'सलिल'
*
*
जग माटी का / एक खिलौना, फेंका / बिखरा-खोया.
फल सबने / चाहे पापों को नहीं / किसी ने ढोया.
*
गठरी लादे / संबंधों-अनुबंधों / की, थक-हारा.
मैं ढोता, चुप / रहा- किसी ने नहीं / मुझे क्यों ढोया?
*
करें भरोसा / किस पर कितना, / कौन बताये?
लूटे कलियाँ / बेरहमी से माली / भंवरा रोया..
*
राह किसी की / कहाँ देखता वक्त / नहीं रुकता.
साथ उसी का / देता चलता सदा / नहीं जो…
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Added by sanjiv verma 'salil' on October 10, 2010 at 2:39pm —
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मैं तो बस एक प्रतिभागी हूं.
वक्ता के समर्थन में
सिर हिलाना ही
मेरी नियति है.
संवाद बोलने को तरसता,
एक्सप्रेशन्स दर्शाने को लालायित,
मूव्मेंट्स करने को निषिद्ध,
किंकर्तव्यविमूढ़ सा,
अश्व की भाँति
सिर हिलाता,
मन ही मन
परमात्मा से विनती करता रहता हूं,
कि हे ईश्वर,
ये वक्तागण ख़ूब ग़लतियाँ करें.
ताकि मुझ 'एक्सट्रा कलाकार' की,
एक दिन की…
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Added by moin shamsi on October 10, 2010 at 12:56pm —
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हमारा शक सही हो ऐसा अक्सर नहीं होता,
हर आदमी के हाँथ में पत्थर नहीं होता.
मेरे दुखों की बाबत मुझसे न पूछिए,
जो ज्वार को रोये वो समुन्दर नहीं होता.
मैं अपने घर के लोगों से मिलता हूँ उसी रोज,
जिस रोज मेरे घर मेरा दफ्तर नहीं होता.
सच बोलता हूँ मान न होने का गम नहीं,
नासूर कितने होते जो नश्तर नहीं होता.
कितने बरस से बन रही हैं योजनाएं पर,
लाखों हैं जिनके सर पर छप्पर नहीं होता.
गढ़ते हैं किले आपके कर पेट पीठ एक,
उनको…
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Added by Abhinav Arun on October 10, 2010 at 10:00am —
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याद जाने कहाँ खो गयी,
बात आयी गयी हो गयी .
दिन में हल मैं चलाता रहा,
रात में बीज वो बो गयी.
बंद थीं मछलियाँ जार में,
तितली पानी से पर धो गयी.
बाद मुद्दत के आयी खुशी ,
मेरे हालात पर रो गयी.
तुमने बच्ची को डाटा बहुत ,
लेके टेडी बीयर सो गयी.
उसकी यादों में खोया था मैं,
इसका तस्कीन कर वो गयी.
एक नौका नदी से मिली ,
और मंझधार में खो गयी.
माँ ने कुछ भी तो पूछा न था,
कैसे मन को मेरे टो…
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Added by Abhinav Arun on October 10, 2010 at 10:00am —
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उसकी हद उसको बताऊंगा ज़रूर,
बाण शब्दों के चलाऊंगा ज़रूर.
इस घुटन में सांस भी चलती नहीं,
सुरंग बारूदी लगाऊंगा ज़रूर.
यह व्यवस्था एक रूठी प्रेयसी,
सौत इसकी आज लाऊंगा ज़रूर.
सच के सारे धर्म काफिर हो गए,
झूठ का मक्का बनाऊंगा ज़रूर.
इस शहर में रोशनी कुछ तंग है,
इसलिए खुद को जलाऊंगा ज़रूर.
आस्था के यम नियम थोथे हुए,
रक्त की रिश्वत खिलाऊंगा ज़रूर.
आख़री इंसान क्यों मायूस है ,
आदमी का हक दिलाऊंगा…
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Added by Abhinav Arun on October 10, 2010 at 9:30am —
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जीवन... जीतें हैं लोग...
वही... जो, जैसा मिल जाता है उन्हें...
पर इस एक जीवन में... है एक और जीवन...
जिसे, अक्सर भूल जातें हैं हम...
वो है 'रंगों' का जीवन...
हर रंग एक जीवन खुद में...
हर जीवन एक रंग खुद में....
हर रंग की अपनी कहानी...
हर कहानी का अपना रंग...
खुशियाँ, उदासियाँ, उल्लास, विश्वास...
जीवन की तरह हर मोड़ है यहाँ...
हर खुशबू है, हर सपना है...
कभी उदासी में साथ…
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Added by Julie on October 9, 2010 at 5:00pm —
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चाँद घुटनों पे पड़ा था
अम्बर की किनारी पे
शब-ए-काकुल मे
तरेड़ पड़ गयी थी
चांदनी की .......
"जैसे तेरी कोरी मांग,
मैंने अभी भरी नहीं "
माँ ने अंजल भर के तारो से
चरण-अमृत छिड़का हो
सारा आसमान जैसे सजाया हो
आरती की थाली की मानिंद
तेरा गृह-प्रवेश करने के लिए ....... !
.. पर इतना बड़ा आसमान
कैसे मेरे छोटे से घर मे समाता .....
" अच्छा होता मैं घर ही न बनाता"
मैं घर ही न बनाता ...…
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Added by vikas rana janumanu 'fikr' on October 9, 2010 at 3:30pm —
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(सब से पहले यहीं पर प्रस्तुती कर रहा हूँ इस रचना की , आशीर्वाद दीजियेगा)
जलने दो मुझे जलने दो ,अपनी ही आग में जलने दो .
ये आग जलाई है में ने , मुझे अपनी आग में जलने दो .
तू मेरी चिंता मत करना ,ठंडी आहें भी मत भरना ;
मैं जलता था मैं जलता हूँ ,सम्पूर्णता को मचलता हूँ ,
मन मचल रहा है मचलने दो ;मुझे अपनी आग में जलने दो .
दाहक,दैहिक पावक न ये ,मानस तल का दावानल है,
ज्वाला मैं जन्म पिघलने दो ,मन को शोलों में ढलने दो
मुझे जलने दो…
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Added by DEEP ZIRVI on October 9, 2010 at 3:00pm —
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इन्तहा है, हमारे सब्र की,
न जाने कब ये खत्म होगी,
जाने कब जागेंगे, और कसेंगे पीठ अपनी,
कब सचेत होंगे,
कब रोकेंगे हम विध्वंस को|
क्यों हम कहते हैं की मान जाओ,
जबकि हम जानते है,
वो कहने से नहीं मानेंगे,
वो नहीं समझेंगे मानवता को|
हम अपने सामर्थ्य से रोक सकते हैं उन्हें,
फिर भी सब्र किये बैठे हैं|
बहुत बड़ी इन्तहा है हमारे सब्र की,
अनंत तो नहीं, पर उसकी ही ओर|
Added by आशीष यादव on October 9, 2010 at 9:30am —
14 Comments
मुक्तिका...
क्यों है?
संजीव 'सलिल'
*
रूह पहने हुए ये हाड़ का पिंजर क्यों है?
रूह सूरी है तो ये जिस्म कलिंजर क्यों है??
थी तो ज़रखेज़ ज़मीं, हमने ही बम पटके हैं.
और अब पूछते हैं ये ज़मीं बंजर क्यों है??
गले मिलने की है ख्वाहिश, ये संदेसा भेजा.
आये तो हाथ में दाबा हुआ खंजर क्यों है??
नाम से लगते रहे नेता शरीफों जैसे.
काम से वो कभी उड़िया, कभी कंजर क्यों है??
उसने बख्शी थी हमें हँसती हुई जो धरती.
आज…
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Added by sanjiv verma 'salil' on October 9, 2010 at 9:00am —
3 Comments
मुक्तिका:
वह रच रहा...
संजीव 'सलिल'
*
वह रच रहा है दुनिया, रखता रहा नजर है.
कहता है बाखबर पर इंसान बेखबर है..
बरसात बिना प्यासा, बरसात हो तो डूबे.
सूखे न नेह नदिया, दिल ही दिलों का घर है..
झगड़े की तीन वज़हें, काफी न हमको लगतीं.
अनगिन खुए, लड़े बिन होती नहीं गुजर है..
कुछ पल की ज़िंदगी में सपने हजार देखे-
अपने न रहे अपने, हर गैर हमसफर है..
महलों ने चुप समेटा, कुटियों ने चुप लुटाया.
आखिर में सबका…
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Added by sanjiv verma 'salil' on October 9, 2010 at 8:57am —
2 Comments
वो कौन है जिसकी याद सताती है हमें|
न जाने किस तरफ ये रोज बुलाती है हमें||
खोजता हूँ मै उसे मिलती नहीं वो मुझको|
रात को लेकिन चुपके से जगाती है हमें||
कहीं मिले जो कभी मुझसे साफ़ कह दूँ मैं|
की कौन है और ऐसे सताती है हमें||
देर तक तन्हा बैठ कर के यूँ ही सोचते हैं|
फिर याद उसकी जमीं महफ़िल में लाती है हमें||
फूल के जैसे खिल के वो मेरे सिने में|
साथ हूँ इसका एहसास कराती है हमें||
एक अनजान सहारा सी बन गयी है वो|
अश्क…
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Added by आशीष यादव on October 9, 2010 at 8:52am —
18 Comments
कोल्हू चाक रहट मोट की आवाज़ें,
शहरों से आयातित चोट की आवाज़ें.
मान मनोव्वल कुशलक्षेम पाउच और नोट ,
सबके पीछे छिपी वोट की आवाज़ें.
लूडो कैरम विडियो गेम के पुरखे हुए ,
बच्चों के हांथों रिमोट की आवाज़ें.
ध्यान रहे इस ताम झाम में दबें नहीं ,
आयोजन में हुए खोट की आवाज़ें .
मजबूरी में बार गर्ल बन बैठी वो ,
सिसकी पर भारी है नोट की आवाज़ें.
बेटा नहीं नियम से आता मनी-ऑर्डर,
कौन सुनेगा दिल के चोट की आवाज़ें.
मेरी…
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Added by Abhinav Arun on October 9, 2010 at 8:30am —
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शक्ति की आराधना का पर्व आरंभ हो चुका है. नव दिन तक हम माँ की पूजा अर्चना करेंगे. हमारे यहाँ कन्या को भी देवी के रूप में माना जाता है और इसी लिए हम नवरात्रा के अंतिम दिन कन्या पूजन करने के बाद ही पर्व समाप्त करते हैं, किंतु यह आश्चर्य और दुख की बात है कि जो समाज कन्याओं को देवियों के रूप में पूजता है वही समाज कन्या भ्रूण हत्या का भी अपराधी बनता जा रहा है.
आइए इस पर्व पर हम सब माँ दुर्गा की सौगंध खा कर यह संकल्प लें कि हम ना तो अपने परिवार में कन्या भ्रूण हत्या के दोषी बनेगे और ना ही…
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Added by Pooja Singh on October 9, 2010 at 12:30am —
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