तंगी नट भैरव हुई और भूख मदमाद ,
महंगाई के कंठ से फूटे अभिनव राग.
हांथी की चिंघाड से दहके सब आधार,
साइकिल पंचर हो गयी और कमल बेकार.
महंगाई बढती गयी नहीं बड़ी तनख्वाह,
अभिनव इस सरकार को बहुत लगेगी आह.
योजना के संदूक पर बैठे सौ सौ नाग,
भूखा पेट गरीब का कैसे गाये फाग.
राजनीति के खेल में कैसी शह और मात,
संसद में सुबह हुई हवालात में रात.
स्वयं मलाई खा रहे हमें सिखाते योग,
सन्यासी के भेस में कैसे कैसे लोग.
(बाबा…
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Added by Abhinav Arun on October 16, 2010 at 3:30pm —
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फिल्मकार भी कभी-कभी नहीं, अधिकतर अपनी फिल्मों के जरिए परिवार में परेशानियां ही पैदा कर देते हैं। बाॅबी देओल ने बरसात में नीला चष्मा पहना तो मेरा सुपुत्र ;फिलहाल सुपुत्र ही कहना पड़ेगाद्ध जिद पर अड़ गया कि उसे भी नीला चष्मा पहनना है, टीवी सीरियल पर कोमलिका नाम के कैरेक्टर को देखकर अर्धांगिनी ने चढ़ाई कर दी कि उसे भी कोमलिका जैसे गहने, सौंदर्य प्रसाधन चाहिए। इन सब परेशानियों से तो जैसे तैसे निपट लिया, पर सबसे बड़ी परेशानी पैदा की भैंस की पूंछ ने, अरे भई, मैं शाहरूख खान अभिनीत चक दे इंडिया की बात कर…
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Added by ratan jaiswani on October 16, 2010 at 11:30am —
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कोहरे से और बर्फ से, मिला हवा ने हाथ!
अबकी जाड़े में दिया, फिर सूरज को मात !! १
काँप रहा है भीति से, लोक तंत्र का बाघ!
संबंधों में शीत है, और फिजां में आग !!२
रिश्ते नातों में लगा, शीतलता का दाग !
काँप रही है देखिये, कैसे थर-थर आग !!३
फिर पतझड़ की याद में, वृक्ष हो गए म्लान!
छेड़ रहे हैं रात भर, दर्द भरी एक तान !!४
धूप भली लगती कहाँ, याद आ रही रात !
ऊष्ण वस्त्र तो हैं नहीं होना है हिमपात !!५
पहरा देती है हवा,…
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Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on October 15, 2010 at 11:00pm —
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इक अट्टहास... गूंजा...
पल को चौंक... देखा चारो ओर...
पसरा था सन्नाटा... ... ...
वहम समझ, बंद की फिर आँखें...
मगर फिर हुई पहले से भयानक, और ज्यादा रौद्र गूँज...
उठ बैठ... तलाशा हर कोना डर से भरी आँखों ने...
सिवाए मेरे और सन्नाटे के, ना था किसी का वजूद मगर...
तभी सन्नाटे को चीरती इक आवाज नें छेड़ा मेरा नाम...
कौन... ... ...???
बदहवास-सी... इक दबी चीख निकली मेरी भी...
तभी देखा... अपना साया... जुदा हो…
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Added by Julie on October 15, 2010 at 10:30pm —
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अभी तो शहर मैं हंगामा बहुत है
फिर इस के बाद इक सन्नाटा बहुत है
हवाओं इक ज़रा झोंका इसे भी
चीरगे राह इतराता बहुत है
भला सूरज से कैसे लड़ सके गा
जो चिंगारी से घबराता बहुत है
हुआ क्या है मेरे चेहरे को आख़िर
उदासी को यह छलकाता बहुत है
मुझे महलों की ज़ीनत मत दिखाओ
मुझे मिट्टी का काशाना बहुत है
Added by SYED BASEERUL HASAN WAFA NAQVI on October 15, 2010 at 8:30pm —
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तितलियाँ
तितलियाँ जां निसार कर देंगीं.
हम चराग-ए-रौशनी तो बन जाएँ..
*
तितलियों की चाह में दौड़ो न तुम.
फूल बन महको तो खुद आयेंगी ये..
*
तितलियों को देख भँवरे ने कहा.
भटकतीं दर-दर, न क्यों एक घर रहीं?
कहा तितली ने मिले सब दिल जले.
कौन है ऐसा जिसे पा दिल खिले?.
*
पिता के आँगन में खेलीं तितलियाँ.
गयीं तो बगिया उजड़ सूनी हुई..
*
बागवां के गले लगकर तितलियाँ.
बिदा होते हँसीं, चुप हो, रो…
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Added by sanjiv verma 'salil' on October 15, 2010 at 4:00pm —
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यूँ कट- कटकर लकीरों का मिलना कसूर हो गया,
मिलकर उनसे बिछड़ना तो दस्तूर हो गया II
ज़िंदा रहने को कर दी खर्च साँसें तो मैने,
जिंदगी जीने को उनका होना पर ज़रूर हो गया II
तेरी आँखों ने बातें चंद मेरी आँखों से जो कर ली,
पिए बिन ही मेरी साँसों को तेरा सुरूर हो गया II
ज़रा- ज़रा सा है दिखता तू मेरे महबूब के जैसा,
कहा मैने ये चंदा से तो वो मगरूर हो गया II
चला गया जो तू जल्दी जल्द उठने की ख्वाहिश मे,
तेरे जाते ही मेरा ख्वाब वो बेनूर हो…
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Added by Veerendra Jain on October 14, 2010 at 11:43pm —
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► निर्झरण से झरण की ओर ::: ©
समय का बहाव, पवन का प्रवाह,
सख्त भौंथरी चट्टान,
अब तीखे नक्श पाने लगी है,
न चाहते हुए भी,
मन का खुद को बरगलाना,
जैसे पानी का बर्फ बन,
चट्टान के भ्रम संग,
खुद को बरगलाना,
वक्ती थपेड़े पड़े हैं मगर,
आज नहीं कल ही सही,
बदलेगा प्रारब्ध मेरा भी,
क्षण-भंगुर हो,
भटक-चटक रही है,
चंचलता-कोमलता, मेरे मन की,
पिघल-बहाल हो रही…
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Added by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on October 14, 2010 at 2:08am —
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बदले बदले से यह इन्सान नजर आते हैं
अब तो हर गाम पे शेतान नजर आते हैं
गर्क कश्ती मैं मरी आन के तूफान हुआ
फिर तमाशाई क्यूँ हैरान नजर आते हैं
शोर दरयाओं मैं केसा हॅ रयाकरी का
मुझ को उठते हुए तूफान नजर आते हैं
चमन गर मैं महका हूँ वो फूलों की तरह
मेरे सूखे हुए गुल्दान नजर आते हैं
यह तो सूरज का लहू पी के जमा हैं चेहरा
आप क्यूँ देख के हैरान नजर आते हैं
Added by mohd adil on October 13, 2010 at 4:30pm —
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देखा न तुझे
जाना भी नहीं
तेरा रूप है क्या
और रंग कैसा
पर माँ तू मुझमें रहती है.
मैं चलता हूँ
पर राह है तू
हैं शब्द तेरे और भाव तेरे
माँ फूलों सा सहलाती तू
और काँटों को तू चुनती है.
हैं हाँथ मेरे कविता तेरी
ये अलंकार ये छंद सभी
माँ तू ही सबकुछ गढ़ती है
मैं लिखता रहता हूँ बेशक
तू सबसे पहले पढ़ती है.
तू पालक है और पोषक भी
तू ही माँ सुबह का सूरज
और चाँद की शीतल छाँव भी तू
माँ मैं जब भी तितली…
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Added by Abhinav Arun on October 13, 2010 at 4:09pm —
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दस रंग भरे
दस रूप धरे
दशहरा हरा कर दे जग को.
दस आशाएं
दस उम्मीदें
दस आकांक्षाएं पूरी हों.
दस आँचल हों
दस गोद भरें
दस बूटे बेल सजे संग संग.
दस द्वेष जलें
दस ईर्ष्याएँ
दस तर्क वितर्क हों धूमिल भी.
दस अलंकार
दस विद्याएँ
दस सिद्धि मिलें दस दीप जलें.
दस ओर हमारा यश गूंजे
दस पदकों की खन-खन भी हो
दस पद अंतर की ओर चलें
दस परिमार्जित हों इच्छाएं .
दस मित्र बने
दस बातें…
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Added by Abhinav Arun on October 13, 2010 at 3:30pm —
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उड़ता जाता
परवाज भरता
मन पखेरू
- - - - -
झूठ की आँधी
तो क्या बुझ जाएगा
सत्य का दीप
- - - - -
मरते रहे
मरते दम तक
दम्भ भरते
- - - - -
क्यों करते हो
जग में रहकर
जग से बैर
Added by Neelam Upadhyaya on October 13, 2010 at 10:10am —
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राष्ट्रीय और क्षेत्रीय चैनलों में प्रतिस्पर्धा लगातार बढ़ती जा रही है। ऐसे में पत्रकारिता की मान-मर्यादा कैसे बचेगी, यह किसी को तो सोचना होगा। तमाम दुनिया को आईना दिखाने वाले और खुद को पाक साफ होने का दावा करने वाले चैनल या अखबार क्या वास्तव में वैसे ही हैं, जैसा वे खुद को पेश करते हैं ? पीत पत्रकारिता लगातार हावी होती जा रही है। आए दिन खबरें सुनने को मिल रही हैं कि फलां पत्रकार ब्लेकमेलिंग करते धरा गया, फलां रिपोर्टर महिला शोषण के आरोप में जेल गया, फलां पत्रकार को लोगों ने पीटा। खबरों के साथ…
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Added by ratan jaiswani on October 13, 2010 at 8:30am —
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मैं ना तेरी बात का कायल
करता मेरा मन तू घायल
घर का आंगन झूम रहा है
छ्म-छ्म करती तेरी पायल
कांव-कांव है कौवा करता
मीठा-मीठा बोले कोयल
बरसेगा ये बेदम हो कर
आसमान पर उमड़ा बादल
माथे पे तेरे दमके बिंदिया
आंखो में है चमके काजल
"अभिनव"तू क्यूं चिंता करता
हम अच्छे हैं सब में पागल
Added by abhinav on October 13, 2010 at 3:37am —
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जो लोग इस जहाँ में वफ़ादार होते हैं
दुनिया में आज वो ही गुनाहगार होते हैं
ऐसा न हो कहीं के सजा इनको भी मिले
कुछ लोग क्यूँ हमारे तरफदार होते हैं
वो ज़ुल्म भी करें तो उन्हें सब मुआफ है
हम उफ़ भी करते हैं तो ख़तावार होते हैं
हरगिज़ न उतरें इश्क के दरिया में नौजवान
दरया-ऐ-इश्क में कई मझदार होते हैं
एहसास-ऐ-कमतरी में रहते हैं जो मुब्तिला
वो भी दिल-ओ-दिमाग से बीमार होते है
छब्बीस जनवरी हो या स्वतंत्रता दिवस
हम लोगों…
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Added by Hilal Badayuni on October 12, 2010 at 11:55pm —
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जिसके पैर न रुकना जाने ,
जिसके हाथ न थकना जाने
सुनो ध्यान से ;
हरदम उसका
भाग्य-लक्ष्मी पीछा करती...
सखा उसी का होता ईश्वर...
जग में वही सफल होता है .
और वही रोता है हरदम...
दुखी दरिद्री भी होता है
पाप उसी को सदा दबाते
कर्महीन जो नर होता है.
त्याग नींद आलस्य इसीसे
शुभ कर्मो को करो निरंतर ...
.......चलो निरंतर -१-
सोये पड़े व्यक्ति का देखो
सोया पड़ा भाग्य रहता है
उठ बैठे तो भाग्य उठेगा
चल पड़ने से चल निकलेगा…
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Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on October 12, 2010 at 11:00pm —
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उदासी के अँधेरे हटा कर
नई रौशनी फैलाये गी
मेरे मन के वन उपवन में
सबरंग के फूल खिलाये गी
आस कि मासूम कली
नहीं जब मुर्झायेगी
मेरी उम्मीदों की नय्या
लहरों पर समय की .
चलेगी
पर जायेगी'
मन हर्शाएगी;
कभी तो कोई सुबह,
मेरे लिए
ढेर खुशियाँ लेकर आयेगी .
वो सुबह जरूर आयेगी
--
दीप्ज़िर्वि९८१५५२४६००
Added by DEEP ZIRVI on October 12, 2010 at 10:28pm —
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अजी लो आप को भी इश्क आखिर हो गया ना .
अरे सुख चैन देखो आप का भी खो गया ना.
बड़ा दावा ,ये था किह इश्क से होता क्या है ?!
अजी लो देखलो दिल आपका तोह भी गया ना .?!
हमे कहते थे मजनूं; आप लेकिन आप का ही ,
जनून-ए-इश्क की वहशत में दिल अब खो गया ना ?!
चिरागां हो सकेगा गर जलाओगे यहाँ दिल
करोगे कुछ नया तो ही कहोगे कुछ नया ना
तराना प्यार का ;दिलबर ! सुनाओ, तो सुनेंगे ;
फसाना इश्क का ,हर बार होता है नया ना
जलेंगे दीप से जब दीप ऐ…
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Added by DEEP ZIRVI on October 12, 2010 at 7:44pm —
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(मेरी ये रचना बिल्कुल नवीन, अप्रकाशित और अप्रसारित है।)
इस बार दशहरे पे नया काम हम करें,
रावण को अपने मन के चलो राम हम करें ।
दूजे के घर में फेंक के पत्थर, लगा के आग,
मज़हब को अपने-अपने न बदनाम हम करें ।
उसका धरम अलग सही, इन्सान वो भी है,
तकलीफ़ में है वो तो क्यूं आराम हम करें ।
माज़ी की तल्ख़ याद को दिल से निकाल कर,
मिलजुल के सब रहें, ये इन्तिज़ाम हम करें ।
अपने किसी अमल से किसी का न दिल दुखे,
जज़बात का सभी…
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Added by moin shamsi on October 12, 2010 at 5:25pm —
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राम थक चूके थे
रावण को बाण मारते -मारते
विभीषण ने बताया
उसकी नाभि में तो अमृत है
राम ने अमृत घट फोड़ दिया
रावण मारा गया ॥
तुम भी थक जाओगे
मेरे दोस्त !!!
सत्य को मारते -मारते
क्योकि ....
सत्य रूपी मानव के
अंग -अंग में अमृत -कलश है ॥
अगर , सत्य को
जिंदा भी दफ़न कर दोगे
मेरे दोस्त ... तो वह
कब्र से निकलकर भी दौड़ने लगेगा ॥
Added by baban pandey on October 12, 2010 at 4:41pm —
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