सन्नाटे की साँय-साँय
झींगुर की झाँय-झाँय
सूखे पत्तों पे कीट की सरसराहट
दर्जनों ह्रदयों की बढाती घबराहट
हरेक मानो मौत की डगर पर...
चलने को अग्रसर...
पपडाए होंठ सूखा हलक
ज़िन्दगी नहीं दूर तलक
चाँद की रौशनी भी
हो चली मद्धम जहाँ..
ऐसे मौत के घने जंगल हैं यहाँ,
हाथ में बन्दूक,ऊँगली घोड़े पर
ह्रदय है विचलित पर स्थिर है नज़र..
ना जाने और कितनी साँसें लिखी हैं तकदीर में..
एक बार फिर तुझे देख लूं तस्वीर में..
जेब को अपनी…
Continue
Added by Roli Pathak on November 2, 2010 at 11:00pm —
3 Comments
एक बार सब अपने रूठ गये मुझसे
पर क्यों थे रूठे यह पता नही
क़दमों में ला के रख दीं सब नैंमतें उनके
पर उनके दिलों में नफरत वही रही
कोशिश की उनके दिलों में वसने की
मगर उनकी सोच तो वही रही
कशिश की लाख मानाने क़ी मैंने उनको
पर उन पर इसका कोई असर नही
उनके लिए मांगी थीं लाखों दुआएं
पर उनको शायद यह खबर ही नही
दिल खोलकर भी रख देता सामने उनके
पर शायद वो पत्थर दिल पिघलते नही
न जाने वो सब क्यों शक करते हैं मुझपे
अब तक मुझे इस नाइंसाफी की खबर…
Continue
Added by Ajay Singh on November 2, 2010 at 3:30pm —
4 Comments
कल मर गया
किशनु का बूढा बैल,
अब क्या होगा...
कैसे होगा...
चिंतातुर,सोचता-विचारता
मन ही मन बिसूरता
थाली में पड़ी रोटी
टुकड़ों में तोड़ता
सोचता,,,बस सोचता...
बोहनी है सिर पर,
हल पर
गडाए नज़र,
एक ही बैल बचा...
हे प्रभु,
ये कैसी सज़ा...!!!
स्वयं को बैल के
रिक्तस्थान पे देखता..
मन-ही-मन देता तसल्ली
खुद से ही कहता,
मै ही करूँगा...हाँ मै ही करूँगा...
बैल ही तो हूँ मै,
जीवन भर ढोया बोझ,
इस हल का भी…
Continue
Added by Roli Pathak on November 2, 2010 at 2:00pm —
3 Comments
सरकार के काम करने के अपने तौर-तरीके होते हैं और वह जैसा चाहती है, वैसा काम कर सकती है। भला आम जनता की इतनी हिम्मत कहां कि उन्हें रोक सके। सरकारी कामकाज में सरकार और उनके मंत्रियों की मनमानी तो जनता वैसे भी एक अरसे से बर्दाष्त करती आ रही है। जनता तो बेचारी बनकर बैठी रहती है और सरकार भी हर तरह से उनकी आंखों में धूल झोंकने से बाज नहीं आती। विकास के नाम पर सरकार के सरकारी पुलाव तो जनता पचा जाती है, मगर जब सुुरक्षा की बात आती है तो फिर जनता के पास रास्ते नहीं बचते। वैसे तो सरकार का दायित्व बनता है…
Continue
Added by rajkumar sahu on November 2, 2010 at 11:37am —
1 Comment
पांच छत्तीस थे...घडी में जब...
शाम की धूप वेंटिलेटर से सरकी थी,
दूर तक साये चले आये थे... बीते मौसम को छोड़ने के लिए....
दर्द बहने लगा था पलकों से,
तुमने आँखों से उतारी थी...आंसुओं की नज़र..
ठंडी काफी में घुल गए थे जाने कितने पहर,
पांच छत्तीस हैं घडी में अब,
शाम की धूप वेंटिलेटर से सरकी है,
वक़्त गुज़रा है मगर,अब तलक नहीं बीता
Added by Sudhir Sharma on November 2, 2010 at 9:03am —
3 Comments
मैंने स्वीकार तो कर ली है हार
किन्तु मैं कभी हारा नहीं हूँ
मेरी अपने ही दृष्टि में सही
मैं पूर्वाग्रहों में घिरा नहीं हूँ
मेरी हार में भी विजय हुई है
मैं इस मर्म को बिसरा नहीं हूँ
तुमसे तर्क वितर्क नहीं करता
किन्तु मैं कोई बेचारा नहीं हूँ
मैं हँसता भी संजीदा ही हूँ
किसी गम का मारा नहीं हूँ
मेरे जीवन में बहुत सुख है
दर्द का तलाशता सहारा नहीं हूँ
Added by Udaya Shankar Pant on November 1, 2010 at 9:57pm —
2 Comments
ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार के नये सदस्यों को दिक्कत हो रही है कि "OBO लाइव महा इवेंट" मे अपनी रचना कैसे पोस्ट करे ?
मैं कुछ स्क्रीन शाट के सहयोग से बताना चाहूँगा ...................
१- सबसे पहले मुख्य पृष्ठ से फोरम से "OBO लाइव महा इवेंट" को क्लिक करे ........

२- जो बॉक्स खुला उसमे अपनी रचना लिख पोस्ट करे

३- यदि किसी की रचना के ऊपर टिप्पणी देनी हो तो नीचे दिये स्क्रीन शाट को देखे ...…
Continue
Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on November 1, 2010 at 5:58pm —
1 Comment
मिटा सके जो
अन्तस का अंधेरा
रौशनी कहाँ
सागर में भी
गहराइयाँ कहाँ
डुबा सके जो
पैसा ही पैसा
पर नहीं है कहीं
मन का सुख
खुश हो सकें
सबकी खुशी पर
वो खुशी कहाँ
Added by Neelam Upadhyaya on November 1, 2010 at 1:55pm —
8 Comments
आपको हँसना हसाना चाहिए
pyar का vaada निभाना चाहिए
कब तलक मैं ही निभाऊं रस्म-ए-इश्क़
आपको भी कुछ निभाना चाहिए
याद तो आएगी पल भर को मगर
भूलने को इक ज़माना चाहिए
खुद सर-ए-आईना हों वो एक दिन
खुद को भी तो आज़माना चाहिए
बोया जो है काटना होगा बही
सोच कर ही कुछ उगाना चाहिए
सारी फसलें खुद रखो कि))सान जी
चिड़िया को बस एक दाना चाहिए
मंदिर-ओ-मस्जिद ना जाओ हर्ज़ क्या
मैकदे हर शाम जाना चाहिए
फिर…
Continue
Added by vikas rana janumanu 'fikr' on November 1, 2010 at 11:30am —
2 Comments
गीत:
आँसू और ओस
संजीव 'सलिल'
*
हम आँसू हैं,
ओस बूँद मत कहिये हमको...
*
वे पल भर में उड़ जाते हैं,
हम जीवन भर साथ रहेंगे,
हाथ न आते कभी-कहीं वे,
हम सुख-दुःख की कथा कहेंगे.
छिपा न पोछें हमको नाहक
श्वास-आस सम सहिये हमको ...
*
वे उगते सूरज के साथी,
हम हैं यादों के बाराती,
अमल विमल निस्पृह वे लेकिन
दर्द-पीर के हमीं संगाती.
अपनेपन को अब न छिपायें,
कभी कहें: 'अब बहिये' हमको...
*
ऊँच-नीच…
Continue
Added by sanjiv verma 'salil' on November 1, 2010 at 9:25am —
1 Comment
हाँ तुमने ही तो किया था वादा,
मेरा समंदर भर दोगे।
जाने किस - किस से तुमने,
माँगा इसके लिए स्नेह।
पर अब भी रीता है,
मेरा समंदर, अधभरा . . .
उजली आँखों से निहारता,
टकटकी लगाए देखता।
शायद तुम अभी भी,
भरने को उत्साहित हो।
मांग लो किसी प्रेमी से,
थोड़ा और स्नेह।
न दे तो छीनो, मिटा दो,
प्रेम की बसती किसी की दुनिया।
उजाड़ दो किसी का घर,
और भर दो मेरा समंदर।
चाहे उसमें प्रेम की जगह,
किसी की खुशियों की दाह हो।
हाँ…
Continue
Added by Jaya Sharma on November 1, 2010 at 6:00am —
2 Comments

► हूँ अभी गर्भ में ::: ©
हूँ अभी गर्भ में
ले रही आकर
हुआ ही है शुरू
स्पंदन ह्रदय का
कि जान लिया
कौन हूँ मैं
जताने लायक
हैं यंत्र नए
क्या करती
तैयार हूँ कट जाने को
आएगा जोड़ा यंत्रों का
होगी कोख कलंकित
कर रहे हैं पुर्जा-पुर्जा
अलग मुझे माँ से
न सोच न ही समझ है मुझे
करूँ क्रंदन कैसे
पर दर्द समझती हूँ
तडपा रहा कटना अंगों का
बिन…
Continue
Added by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on November 1, 2010 at 1:00am —
2 Comments
सुख दिए हैं आपने
मन में बड़ा उत्साह है …
उत्साह से उल्लास को कैसे मिटाऊँ
क्या करूँ ?
कैसे तुम्हारा प्रिय बनूँ ?
हर्ष जो उपजा हमारे ह्रदय में ,
मै छिपाऊँ या जताऊँ
किस तरह ?
क्या करूँ ?
कैसे तुम्हारा प्रिय बनूँ ?
शोक में या क्रोध में ,
मै शांत हो जाऊं ,
बताओ किस तरह ?
क्या करूँ ?
कैसे तुम्हारा प्रिय बनूँ ?
शांत मन जो व्यक्ति हैं ,
वे , तुम्हारे सर्वदा ही प्रिय रहे हैं .
मांग कर जो नित्य ही… Continue
Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on October 31, 2010 at 10:00pm —
3 Comments
उफ्फ..! ये सभ्य समाज के लोग..
कहते हैं इंसान स्वयं को
पर इंसानियत को समझ ना पाएँ I
जिस माँ ने पाल-पोसकर
इनको इतना बड़ा बनाया
बाँधकर उनको जंज़ीरों में
जाने कितने बरस बिताएँ I
उफ्फ..! ये सभ्य समाज के लोग..
तेईस बेंचों की कक्षा इनको
भीड़ भरा इक कमरा लगती
पर डिस्को जाकर
हज़ारों की भीड़ में
अपना जश्न खूब मनाएँ I
उफ्फ..! ये सभ्य समाज के लोग..
कॉलेज में नेता के आगे
बाल मज़दूरी पर
वाद विवाद कराएँ
और…
Continue
Added by Veerendra Jain on October 30, 2010 at 5:30pm —
3 Comments

ग़ज़ल
कहूँ कैसे कि मेरे शहर में अखबार बिकता है
डकैती लूट हत्या और बलात्कार बिकता है |
तेरे आदर्श तेरे मूल्य सारे बिक गए बापू
तेरा लोटा तेरा चश्मा तेरा घर-बार बिकता है |
बड़े अफसर का सौदा हाँ भले लाखों में होता हो
सिपाही दस में और सौ में तो थानेदार बिकता है |
वही मुंबई जहाँ टाटा अम्बानी जैसे बसते हैं
वहीं पर जिस्म कईओं का सरे बाज़ार बिकता है |
चुने जाते ही नेता सारे…
Continue
Added by Abhinav Arun on October 30, 2010 at 3:24pm —
12 Comments

पांव रिश्तों के जम रहे आखिर
हम हकीकत में कम रहे आखिर |
जिनके दिल पर भरोसा पूरा था
उनके हाथों में बम रहे आखिर |
तीर उस ओर थे दिखाने को
पर निशाने पर हम रहे आखिर |
दिन में लगता है भोग पंचामृत
शाम को पी तो रम रहे आखिर |
सच कहे और लड़े सिस्टम से
उसमे दम तक ये दम रहे आखिर |
नोट संसद में जेल में हत्या
काम के क्या नियम रहे आखिर |
जाने क्यूँ महलों तरफ…
Continue
Added by Abhinav Arun on October 30, 2010 at 2:30pm —
6 Comments
बदलते समय के साथ पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में कई बदलाव आए हैं और बाजार में जब से पत्र-पत्रिकाओं की बाढ़ आई है, तब से लिखने वाले कलमकारों की रूतबे कहां रह गए हैं, अब तो दिखने वाले कलमकारों का ही दबदबा रह गया है। सुबह होते ही काॅपी, पेन और डायरी लेकर निकलने वाले कलमकारों के क्या कहने, वैसे तो ऐसे लोग अपनी पाॅकिट में कलम रखना नहीं भूलते, लेकिन यह जरूर भूले नजर आते हैं कि आखिर वे लिखे कब थे। लोगों को अपनी कलम की धार दिखाने उनके लिए जुबान ही काफी है, जहां से बड़ी-बड़ी बातें निकलती हैं। ऐसे में…
Continue
Added by rajkumar sahu on October 30, 2010 at 11:54am —
1 Comment
आओ आ जाओ किसी रोज़ मेरे आँगन में...
अपने चेहरे के उजालों की तीलियाँ लेकर
लौट आयीं हैं यहाँ सर्द हवाएं फिर से
आओ आ जाओ किसी रोज़ मेरे आँगन में...
धूप सुलगा के बैठ जाएँ हम..
ताप लें रूह में जमी यादें
सुखा लें आंसुओं की सीलन को..
आओ आ जाओ किसी रोज़ मेरे आँगन में...
धूप सुलगा के बैठ जाएँ हम..
एक रिश्ते की आंच से शायद...
कोई नाराज़ दिन पिघल जाये...
Added by Sudhir Sharma on October 29, 2010 at 11:30pm —
6 Comments
का भाई जी ध्यान बा न ?
बड़ा ही अजीब शब्द है,लेकिन आजकल धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है भैया.....ये शब्द मानो लोगो की परछाई बन के चिपक सी गयी है ......जी ये शब्द है चुनावी महाकुम्भ में डुबकी लगाने के वास्ते उतरे हुए उम्मीदवारों के ...राह चलते हुए किसी पहचान वाले को देख लिए तो जल्दी से गाड़ी रुकवाते है ...और हाथ जोड़ते हुए कहते है "का भाई जी ध्यान बा न?" या "का जी बाबा तनी हमरो पर ध्यान देब"
कुछ भी कहा जाये पर बिहार के उन जिलो में चुनावी महापर्व रंग ला रहा है, जहा अभी चुनाव होना बाकि है.…
Continue
Added by Ratnesh Raman Pathak on October 29, 2010 at 6:00pm —
1 Comment
अक्सर कहा जाता है कि क्रिकेट अनिश्चितताओं का खेल है और राजनीति भी इससे जुदा नहीं है। राजनीति में भी कई बार अनिश्चितताओं के दौर से राजनेताओं को गुजरना पड़ता है और वे जो चाहते हैं, वह सब नहीं होता तथा परिणाम उलट हो जाता है। ऐन चुनाव के पहले कई तरह के दावे उंची शाख रखने वाले नेताओं द्वारा किया जाता है, मगर जब नतीजे सामने आते हैं तो उन्हीं नेताओं के पैरों तले जमीं खिसक जाती है या यूं कह,ें सभी दावे की हवा निकल जाती है और मतदाताओं के रूख के आगे नेताओं के दावे बौने साबित हो जाते हैं। बावजूद कई नेता…
Continue
Added by rajkumar sahu on October 29, 2010 at 10:54am —
1 Comment