पुरानी डायरी देख...
खुल गये कुछ पन्ने पुराने...
कुछ सपने... कुछ अरमाँ... कुछ यादें...
जिन्हें कभी जीया था मैनें, यूँ ही...
यँहीं इन पन्नों में...
जिनकी भीनी-भीनी महक...
आज भी गुमा रही थी मुझे...
वही ताज़गी... वही एहसास... वही मासूमियत...
पर कुछ है...
जो अब वैसा नही...
क्या है...???
शायद... ’मैं’...???
हाँ... ’मैं’...!!
नही रही अब ’मासूम’...
नही रहे अब वो… Continue
Added by Julie on September 9, 2010 at 7:28pm —
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Added by Subodh kumar on September 8, 2010 at 6:00pm —
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मित्रों ,यह कविता बिहार में अक्टूबर -नवम्बर २०१० में होने वाले चुनाव के परिपेक्ष्य में लिखा गया है ॥लालटेन
तीर ,हाथ और कमल ...विभिन्न राजनितिक दलों के चुनाव चिन्ह है //
आ गया मदारी
बजा रहा है डुगडुगी
बंदरों में होने लगी है सुगबुगी
अनेकों हैं नुस्खे
बंदरों को रिझाने के
नज़र डालिएगा इन पर जरा हंस के ॥
पिछली गल्तियाँ अब नहीं करूगाँ
सवर्णों को भी टिकट दूगाँ॥
अपने शाले ने भोंका था भाला
लगाने चला था मेरे ही घर में ताला
इसीलिए घर…
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Added by baban pandey on September 8, 2010 at 8:52am —
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बन्द कमरे में जो मिली होगी
वो परेशान जिन्दगी होगी
यूं भी कतरा के गुजरने की वजह
हममें तुममें कहीं कमी होगी
हम सितम को वहम समझ बैठे
कौन सी चीज आदमी होगी
और भी कई निशान उभरे है
तेरी मंजिल यहीं कहीं होगी
ये है दस्तूरे आशनाई तपिश
उनकी आँखों में भी नमी होगी --
मेरे काव्य संग्रह ---कनक ---से -
Added by jagdishtapish on September 8, 2010 at 8:20am —
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Added by Subodh kumar on September 7, 2010 at 3:09pm —
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आइये
यु.पी. की सैर कराते हैं ,
उस घर में लेकर चलते हैं ,
जहाँ घर नें
गवाएँ मालिक हैं ,
भला हो मीडिया की बात सामने आती हैं ,
"आजतक" पर जो देखा
आँख से आसू आती हैं ,
छोटेलाल ने
अरजी किया था ,
घर में बिजली पाने की ,
घर में बिजली नहीं
आयी ,
नजर लगी बिजली वालो की ,
आया बिल सवा लाख का ,
बेचारा का सर
चकरा गया ,
गया बिचली ऑफिस में ,
कुर्की जप्ती का फरमान पा गया ,
बहुत कोशिश की पर नहीं…
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Added by Rash Bihari Ravi on September 7, 2010 at 2:00pm —
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रेशम के शहर आ बसा हूँ इस यकीन से
कोई तो मिले इश्क जिसे पापलीन से !
मैं चाँद सितारों के ज़िक्र में हूँ अनाड़ी,
इन्सान हूँ जुड़ा हुआ अपनी ज़मीन से !.
सच्चाई की तासीर तो कड़वी ही रहेगी,
आएगी न मिठास कभी भी कुनीन से !
मजबूरी-ए-हालात है कुछ और नहीं है,
जो मस्त लगा नाग सपेरे की बीन से !
बंगले मकान तो यहाँ लाखो ही मिलेंगे
घर ढूँढना पड़ेगा मगर दूरबीन से !
सर को उठाऊँ ग़र तो चूल्हा रहे ठंडा,
सर को झुकाऊँ गर तो गिरता हूँ…
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Added by योगराज प्रभाकर on September 7, 2010 at 10:00am —
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▬► Photography by : Jogendrs Singh ©
The little girl in dis pictire is my daughter "Jhalak"..
::::: चाँद की चाहत ::::: Copyright © (मेरी नयी शायरी)
जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 08 अगस्त 2010 )
▬► NOTE :- कृपया झूठी तारीफ कभी ना करिए.. यदि कुछ पसंद नहीं आया हो तो Please साफ़ बता दीजियेगा.. मुझे अच्छा ही लगेगा..
▬►…
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Added by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on September 5, 2010 at 10:30pm —
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.
▬► Photography by : Jogendrs Singh ©
::::: मैं एक हर्फ़ हूँ ::::: Copyright © (मेरी नयी कविता)
जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 09 अगस्त 2010 )
मेरे मित्र आर.बी. की लिखी एक रचना जो नीचे ब्रैकेट्स में लिखी है से प्रेरित होकर मैंने अपनी रचना रची है..
आर.बी. की मूल रचना नीचे है आप देख सकते हैं ► ► ►
((hum dono jo harf hain....
hum ek roz mile....
ek lafz bana...
aur humne ek maane…
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Added by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on September 5, 2010 at 10:00pm —
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आज...
मैं बहुत खुश हूँ...
पूरी दुनिया 'कल' थी...
पर 'मैं' आज हूँ..
क्योंकि आ ज मिला है मुझे...
एक नया खिलौना...
जिसे सब कह रहे थे 'तिरंगा'...
कल था ये सबके हाथों में...
चाहता था मैं भी...
इसे छूना...
लहराना...
फेहराना...
पर किसी ने ना दिया इसे हाथ लगाना...
जैसे ना हो 'हक' मुझे इन सबका...
कल था तरसता सिर्फ 'एक' को...
आज पाया है पड़ा 'अनेक' को...
कल… Continue
Added by Julie on September 5, 2010 at 9:37pm —
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Added by Subodh kumar on September 5, 2010 at 3:30pm —
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नफरत के बदले प्यार को लुटा रहा हूँ मैं
सदियों पुरानी रस्म को ठुकरा रहा हूँ मैं
मेरी ज़ात को समा ले अपनी ही ज़ात में
है बचा खुचा जो चेहरा वो मिटा रहा हूँ मैं
गीतों में मेरे ख़ुशबू अब होने लगी दोबाला
अब इनमे तेरी रंगत को मिला रहा हूँ मैं
नगमे वफ़ा के शायद निकले तुम्हारी रूह से
यही सोच शेख साहिब तुझे पिला रहा हूँ मैं
तेरे मतब पे जाकर भी इन्सां बना रहूँगा
तेरी रिवायत की जड़ें हिलाने जा रहा हूँ मैं
देता रहा वाईज मुझे जो…
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Added by Shamshad Elahee Ansari "Shams" on September 5, 2010 at 11:19am —
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अक्सर कई मित्र पूछ लेते हैं हंसी मजाक में --भाई ये ग़ज़ल क्या होती है --
ग़ज़ल कह के ही समझाओ हमें --ऐसी ही मुश्किल को आसान करने का छोटा सा प्रयास
किया है हमने ---उन्हीं मित्रों को सादर समर्पित है
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शमां से आँख लड़ी हो तो ग़ज़ल होती है ---
या के फिर खूब चढ़ी हो तो ग़ज़ल होती है |
तुम किसी शोख हसीना को छेड़ कर देखो --
जेल जाने की घडी हो तो ग़ज़ल होती है --|
वो शाम से ही अगर ले रहे हों अंगड़ाई --
तमाम रात…
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Added by jagdishtapish on September 5, 2010 at 9:30am —
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Added by Subodh kumar on September 5, 2010 at 6:30am —
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Added by Subodh kumar on September 4, 2010 at 9:30pm —
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यह जानते हुए
सच की खुशबू
एक दिन फैलेगी ही
उर्जा व्यर्थ गंवाते है हम
ढकने में उसे
झूठ की चादरों से ॥
सच वह ओस है
जिसे प्रत्येक दिन
झूठ का तमतमाता सूरज
गायब कर देता है ॥
मगर पुनः
कल सबेरे
सच का ओस
फिर हाज़िर हो जाता है
अपने चमकीले रूप में ॥
मेरे दोस्त ...
सच को परास्त करना नामुमकिन है
छोड़ दो जिद
झूठ बोलने की ॥
Added by baban pandey on September 4, 2010 at 5:00pm —
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तुम कौन ?
तुम कौन जो धीमे सा एक गीत सुना देते हो ,
मन के अन्दर एक रौशन करता दीप जला देते हो|
बंद कर ली मैंने सुननी कानों से आवाजें ,
जब से सुन ली मैंने अपने दिल की ही आवाजें ||
तुम भूखे बच्चो के मुंह से निकली क्रंदन वेदना सी,
तुम जर्जर होते अपेक्षित माँ बापू के विस्मय सी |
तुम पेट की भूख की खातिर दौड़ते बेरोजगार युवा सी,
तुम खुद को स्थापित करती एक नारी की कोशिश सी,
तुम आतंकियों की भेदी…
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Added by Dr Nutan on September 4, 2010 at 4:00pm —
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वो ज़हान
मेरा नही
जहाँ
तेरी खुशबू
न हो
तेरी यादें न हो
जिक्र न हो
जहाँ तेरा
वो महफिल
मुझे रास आती नही
Added by rajni chhabra on September 4, 2010 at 3:30pm —
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बन्दूक .....
एक भय है
एक डर है
लोगों को डराने की चीज है
मारने की नहीं ॥
इससे गोलीयाँ
शायद ही कभी निकलती हो ॥
जो इस बात को समझ गया
वह बन्दूक से नहीं डरता ॥
बल्कि ...
चाकू दिखाकर
छीन लेता है बन्दूक ॥
हमारे नक्सली
सरकारी बंदूकों की भाषा
अच्छी तरह पढ़ चूके है ॥
Added by baban pandey on September 4, 2010 at 2:00pm —
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Added by Subodh kumar on September 4, 2010 at 1:00pm —
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