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दहेज दानव

दहेज का दानव बहुत बड़ा है

मुँह विकराल किये खड़ा है ,

कितना भी रोको नही रुकता यह,

रक्तबीज जैसा अपना आकार किया,

पिताओं की पगड़ी इसने उछाली है,

बेटियों के अरमानो को तार तार किया,

कई बेटियों को इस दानव ने जला दिया,

ताने सुन सुन कर जीना हुआ मुहाल,

जो बेटी दहेज न लेकर आई ससुराल,

उस बेटी का क्या था कसूर,

मारकर घर से उसे निकाल दिया,

कैसी परंपरा जो है सब मजबूर,

देश के युवा अब करो कुछ तुम्ही उपाय,

दहेज दानव जल्द से जल्द मारा… Continue

Added by Pooja Singh on September 26, 2010 at 8:30am — 4 Comments

::: गुलिस्तान ::: ©




::: गुलिस्तान ::: © (मेरी नयी क्षणिका )


कहने को तो तुम्हें दे देने थे, यह फूल मगर, ज़माने को यह गवारा न था !!
सूख चुके हैं फूल मगर, अब भी तत्पर हूँ देने को यह गुलिस्तान तुम्हें .. !!

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 25 सितम्बर 2010 )


.

Added by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on September 26, 2010 at 1:00am — 6 Comments

चंद अश'आर: तितलियाँ --- संजीव 'सलिल'

चंद अश'आर:



तितलियाँ



--- संजीव 'सलिल'



*



तितलियाँ जां निसार कर देंगीं.

हम चराग-ए-रौशनी तो बन जाएँ..

*

तितलियों की चाह में दौड़ो न तुम.

फूल बन महको तो खुद आयेंगी ये..

*

तितलियों को देख भँवरे ने कहा.

'भटकतीं दर-दर न क्यों एक घर किया'?

*

कहा तितली ने 'मिले सब दिल जले.

कोई न ऐसा जहाँ जा दिल खिले'..

*

पिता के आँगन में खेलीं तितलियाँ.

गयीं तो बगिया उजड़ सूनी हुई..

*

बागवां के गले लगकर… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on September 25, 2010 at 10:00pm — 3 Comments

हम कौन से भले हैं....

न सोंच दिल कि तुम्हारी खता कहाँ थी

कर ले ख़्याल इतना हमारी वफा कहाँ थी



भड़कती नहीं चिंगारियां संग और आब से

रंजिश में तेरी भी दिलक़श ब्यां कहाँ थी



गै़र की बदसुलूकी से आज तुं क्यूं परेशां

बेअदबी पर खुद की शर्मो हया कहाँ थी



गै़र की करतुतो पर दिलों में शुगबूगाहट

अपनी ख़ता का दिल में चर्चा कहाँ थी



औरों से चाहत तेरी तमन्ना तहजीब की

ईमानदारी तेरी पेशगी में जवां कहाँ थी



इक वजह अदावत की दुनिया में खुदगर्जी

जब बनी थी कायनात… Continue

Added by Subodh kumar on September 25, 2010 at 4:53pm — 4 Comments

गज़ल:ज़मीर इसका ..

ज़मीर इसका कभी का मर गया है ,
न जाने कौन है किस पर गया है.

दीवारें घर के भीतर बन गयीं हैं,
सियासतदां सियासत कर गया है.

तरक्की का नया नारा न दो अब ,
खिलौनों से मेरा मन भर गया है.

कोई स्कूल की घंटी बजा दे,
ये बच्चा बंदिशों से डर गया है.

बहुत है क्रूर अपसंस्कृति का रावण ,
हमारे मन की सीता हर गया है.

शहर से आयी है बेटे की चिट्ठी,
कलेजा माँ का फिर से तर गया है.

Added by Abhinav Arun on September 25, 2010 at 3:30pm — 8 Comments

गज़ल:खुदाई जिनको

खुदाई जिनको आजमा रही है,

उन्हें रोटी दिखाई जा रही है.



शजर कैसे तरक्की का हरा हो,

जड़ें दीमक ही खाए जा रही है.



राम उनके भी मुंह फबने लगे हैं,

बगल में जिनके छुरी भा रही है .



कहाँ से आयी है कैसी हवा है ,

हमारी अस्मिता को खा रही है.



तिलक गांधी की चेरी जो कभी थी ,

सियासत माफिया को भा रही है.



हाई-ब्रिड बीज सी पश्चिम की संस्कृति ,

ज़हर भी साथ अपने ला रही है .



शेयर बाज़ार ने हमको दिया क्या ,

गरीबी और बढती… Continue

Added by Abhinav Arun on September 25, 2010 at 3:00pm — 6 Comments

नवगीत : बरसो राम धड़ाके से.... संजीव 'सलिल'

नवगीत:



बरसो राम धड़ाके से



संजीव 'सलिल'

*

*

बरसो राम धड़ाके से !

मरे न दुनिया फाके से !



लोकतंत्र की

जमीं पर, लोभतंत्र के पैर

अंगद जैसे जम गए अब कैसे हो खैर?

अपनेपन की आड़ ले, भुना

रहे हैं बैर

देश पड़ोसी मगर बन- कहें मछरिया तैर

मारो इन्हें कड़ाके से, बरसो राम

धड़ाके से !

मरे न दुनिया फाके से !



कर विनाश

मिल, कह रहे, बेहद हुआ विकास

तम की कर आराधना- उल्लू कहें उजास

भाँग कुएँ में घोलकर,… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on September 25, 2010 at 10:30am — 7 Comments

पीड़ा… एक कविता

पीड़ा का इक पल दर्पण

टूटा पल मे, पल मे बिखर गया |

इक मोती सा विश्वास मगर,

अन्तस मे कहीं ठहर गया |



उमडाया ये खालीपन,

गहराया ये सूनापन,

एकान्त अकेला कहीं गुजर गया |

मन ने वीणा के फ़िर तार कसे

उठो, कोई चुपके से ये कह गया |

विचलित होता अन्त:मन,

उभरा हर क्षण ये चिन्तन,

मन अनजाने ये किधर गया |

ह्र्द्य मे अपना सा एह्सास लिये

भींगी आंखो मे जो उभर गया |



करता पल पल ये क्रन्दन,

धडका बूंद बूंद ये जीवन,

छांव ममता…

Continue

Added by Rajesh srivastava on September 25, 2010 at 9:00am — 4 Comments

धर्म या राजनीती © (सोचने की अभी बहुत ज़रूरत है हमें )



धर्म या राजनीति © ( सोचने की अभी बहुत ज़रूरत है हमें )



विवाद और मानव ► विवाद और मानव, दोनों का चोली दामन का साथ है ... प्राचीन काल, जब मनुष्य सभ्य नहीं था तभी से संघर्षों, ईर्ष्या, जलन आदि का चलन चला आ रहा है ...मगर उसका जो स्वरुप आज है उससे खुश होने की नहीं वरन शर्मिंदा होने की आवश्यकता है ... बच्चे ने छींक मारी, चुड़ैल पड़ोसन जिम्मेदार है ... घर, दफ्तर, बाज़ार सभी इसकी चपेट में हैं ... मंदिर के बाहर अधखाये… Continue

Added by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on September 24, 2010 at 10:31pm — 3 Comments

किससे करूं मै बात ...!!!

किससे करूं मै बात ,उन जनाब की
जिनसे की है मुहब्बत बे-हिसाब की

दीखते नही वो दिन में ,रातें भी स्याह हुई
हुई मद्धम रोशनाई मेरी वफ़ा-ए-महताब की

किससे गिला करूं कहाँ तहरीर दूं ?
कोई ढूंढ लाये तस्वीर मेरे ख्वाब की

बिखर जाएगी शर्मो -हया इस जहाँ में
जो बरसों से हिफाजत में है हिजाब की

Added by कमलेश भगवती प्रसाद वर्मा on September 24, 2010 at 10:00pm — 2 Comments

क्या होगी जिन्दगी तेरे बगैर....

न मिलेगा सुकूने दिल सियाह चाहे रोशनी में

खलबली सी फ़कत रहेगी तेरे बगै़र जिऩ्दगी में



तुम से बिछुड़कर हाल हमारा कुछ ऐसा होगा

तेरे तस्सवुर में उम्र कटेगा हर पल बेबसी में



बहारों का क्या फायदा गर एहसास में खि़जा

माहताब भी गर्क हो जाये सबे ता़रीकी में



नजरें दरिचा बन जाये दिल ख़्यालों का मकां

दफ्न हो जाये वजूद तन्हाई के आरसतगी में



ओ रूखसत होने वाले देता जा तदवीर कोई

दिलबस्तगी का बहाना होगा तेरे नामौजुदगी में



मुश्किल से मिलता… Continue

Added by Subodh kumar on September 24, 2010 at 8:00pm — 2 Comments

गरीब की सोचः-

सोचता है एक गरीब,
मैं कैसे अमीर बन पाउँगा।

इन गरीबों के दिनों को,
मैं कैसे भगाउँगा।।

कट जाता है समय,
दो शाम की रोटी जुटाने में।

फिर भी भरता नहीं पेट,
इस महगाई भरे जमाने में।।

रोते हैं बीबी और बच्चे,
जब मैं शाम को घर जाता हूँ।

कोशते हैं इस गरीबी को,
फिर भी मैं इसे नहीं भगा पाता हूँ।।

सोचता है एक गरीब,
मै कैसे अमीर बन पाउँगा।

इन गरीबों के दिनों को,
मैं कैसे भगाउँगा।।

Added by Deepak Kumar on September 24, 2010 at 11:19am — 1 Comment

ऐ माँ.....

ऐ माँ मत मार मुझे,

मैं दुनियां में आना चाहती हूँ।



ऐ माँ मैं इस संसार में जन्म लेकर,

जीवन चक्र बढ़ाना चाहती हूँ।।



ऐ माँ मैं बड़ी होकर,

डॉक्टर, इन्जीनियर बनना चाहती हूँ।



ऐ माँ मैं किसी से शादी कर-कर,

उसका वंश बढ़ाना चाहती हूँ।।



ऐ माँ मत समझ बोझ मुझे,

मैं तेरा भी बोझ उठाउँगी।



ऐ माँ मैं तेरे बुढ़ापे को,

बेटे से ज्यादा सवारूँगी।।



ऐ माँ तुमने ये कैसे सोच लिया,

तुम भी तो किसी की बेटी हो।



ऐ माँ… Continue

Added by Deepak Kumar on September 24, 2010 at 11:00am — 1 Comment

::::: हाँ यहीं तो हो तुम ::::: ©



::::: हाँ यहीं तो हो तुम ::::: © (मेरी नयी कविता)



हाँ यहीं तो हो तुम, और जा भी कहाँ सकती हो ...

तलाशते रहेंगे एक दूसरे में खुद को मगर ...

साये के साये में, साये को खोज पाएंगे कैसे ... ?

कोशिशें, तलाश, और यही ज़द्दोज़हद ढूंढ पाने की ...

जैसे खुद में दूसरा बाशिंदा बसा रखा हो हमने ...



गर हाथ थाम लेती जो तुम पास आकर मेरा ...

मौजूद साये को साये से अलहदा भी देख पाता ...

मगर ज़रूरत ही क्या तुम्हें अलहदा… Continue

Added by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on September 23, 2010 at 10:00pm — 5 Comments

तीन क़त'आत

//कोशिश//



तूने शब् -ऐ -विसाल को आने नहीं दिया ,

मैंने भी इस मलाल को आने नहीं दिया .

रखा है खुद को दूर तेरी याद से बहुत

दिल में तेरे ख्याल को आने नहीं दिया !

------------------------------------------

//पहचान//



नाम -ओ -निशान मेरा मिटेगा नहीं कभी

गुलशन में खुश्बुओ की झलक छोड़ जाऊंगा

गुलचीं मसल के देख मुझे मै वो फूल हूँ

हाथो में तेरे अपनी महक छोड़ जाऊंगा… Continue

Added by Hilal Badayuni on September 23, 2010 at 7:00pm — 3 Comments

तुम आग हो ये मैं जानता हूँ ,

तुम आग हो ये मैं जानता हूँ ,

फिर भी जलने को दिल करता है ,

तुम्हारी तपिश से दिल में ,

एक हलचल सी उठती है ,

उसी हलचल में खो जाता हूँ ,

तुम आग हो ये मैं जानता हूँ ,



मगर तुम्हे आग कहना ग़लत होगा ,

कारण, तुम्हारा वो रूप भी देखा है ,

जो बर्फ की शीतलता लिए ,

तन मन को रोमांचित कर देता है ,

और मैं तुम्हारा हो जाता हूँ ,

तुम आग हो ये मैं जानता हूँ ,



कभी कभी लगता हैं मुझे ,

सावन की रिमझिम फुहार हो ,

और तुम जब बरसती हो… Continue

Added by Rash Bihari Ravi on September 23, 2010 at 6:30pm — 1 Comment

चाँद दरिया में

चाँद दरिया में शब भर उतरता रहा .

उनकी आगोश में मैं पिघलता रहा.

एक जवां हुस्न के करवटें लेने से.

चाँदनी का बदन सर्द जलता रहा.

उनकी आगोश में मैं पिघलता रहा.

चाँद छिपने का होता रहा तब भरम.

गेसू रुखसार पे जब बिखरता रहा.

उनकी आगोश में मैं पिघलता रहा.

आ ना जाए क़यामत ये डर भी हुआ.

जब-जब सीने से आँचल सरकता रहा.

उनकी आगोश में मैं पिघलता रहा.

मापतपुरी से तन्हाई में जब मिले.

आईना शर्म का खुद चटकता रहा.

उनकी आगोश में मैं पिघलता… Continue

Added by satish mapatpuri on September 23, 2010 at 5:30pm — 2 Comments

विस्मृति

विस्मृति



पोस्त के लाल फूल

असंख्य

उन्हें छूकर बहती प्रमत्त हवा

ठंडी गुफा के मुहाने पर

पालथी मारे बैठा सूरज

देख रहा है फेनिल

धारा का झर-झर झरना ...

झागों के पत्ते अभी टूट कर बिछ गए हैं ..

पतझड़ जो लगा है ..

चट्टानों के बिछौनों पर ...

अपने चारों ओर

देवदार , चीड़ के गुम्बदों में कैद

एक फंतासी ...

जिस पर मखमल -सी बर्फ

अपना आसमान ताने खड़ी है



और ढरक रही है… Continue

Added by Aparna Bhatnagar on September 23, 2010 at 3:00pm — 3 Comments

कविता

अन्तर्ध्वन्द

अमर प्रेम के अंकुर को ,
संकोच और अनजानी धूप ने,
यूँ झुलसाया,
पतझड़ आने को बौराया है,
मन बसंत में उलझा है,
उम्र ढलने को आई,
मन यौवन में अटका है,
संस्कार,मर्यादा,मान,परिधि,
सब पीछे छूटा,
मन विकल हो भागा,
रिश्ते नातों के फंदों से,
बुन गया यौवन सारा,
जब सबसे मुक्त हुआ,
मन बंधने को भागा........

अलका तिवारी

Added by alka tiwari on September 23, 2010 at 11:00am — 3 Comments


प्रधान संपादक
"OBO लाईव तरही मुशायरा 3"- एक रपट !

"ओपन बुक्स ऑनलाइन" के मंच से हमारे अजीज़ दोस्त राणा प्रताप सिंह द्वारा आयोजित तीसरे तरही मुशायरे में इस बार का मिसरा 'बशीर बद्र' साहब की ग़ज़ल से लिया गया था :



"ज़िंदगी में तुम्हारी कमी रह गई"



मुशायरे का आगाज़ मोहतरमा मुमताज़ नाज़ा साहिबा कि खुबसूरत गज़ल के साथ हुआ ! यूं तो मुमताज़ नाज़ा साहिबा की गज़ल का हर शेअर ही काबिल-ए-दाद और काबिल-ए-दीद था, लेकिन इन आशार ने सब का दिल जीत लिया :



//कारवां तो गुबारों में गुम हो गया

एक निगह रास्ते पर जमी रह गई

मिट गई… Continue

Added by योगराज प्रभाकर on September 23, 2010 at 10:30am — 11 Comments

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