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व्यंग्य - अब लगा भी दो शतक

हमारा देश अनंत विविधताओं से ओत-प्रोत है। 33 करोड़ देवी-देवताओं से हममें से हर कोई कुछ न कुछ मांगते रहता है। भगवान भी देर से ही सही, अपनी आराधना करने वालों की सुध लेते ही हैं। तभी तो मंदिरोें में मत्था टेकने वालों में भगदड़ मचती रहती है। भगवान हममें से कइयों को छप्पर फाड़कर देता है, ये अलग बात है कि कुछ को छप्पर भी नसीब नहीं होता। कोई दो वक्त की रोटी को ईश्वर की असीम देन कहता है तो एक दूसरा, उसकी अहमियत को नहीं समझता, फिर भी भगवान उस पर मेहरबान हुए रहते हैं।

हम भगवान से मांगते रहते हैं,…

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Added by rajkumar sahu on August 31, 2011 at 1:22am — No Comments

मुक्तिका: ये शायरी जबां है --- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:



संजीव 'सलिल'

*

ये शायरी जबां है किसी बेजुबान की.

ज्यों महकती क्यारी हो किसी बागबान की..



आकाश की औकात क्या जो नाप ले कभी.

पाई खुशी परिंदे ने पहली उड़ान की..



हमको न देखा देखकर तुमने तो क्या हुआ?

दिल ले गया निशानी प्यार के निशान की..



जौहर किया या भेज दी राखी अतीत ने.

हर बार रही बात सिर्फ आन-बान की.



उससे छिपा न कुछ भी रहा कह रहे सभी.

किसने कभी करतूत कहो खुद बयान की..



रहमो-करम का आपके सौ…

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Added by sanjiv verma 'salil' on August 31, 2011 at 12:00am — 3 Comments

अस्तित्व की तलाश

 

मेरी मित्र ने एक दिन कहा 
में" सेल्फ्मेड " हूँ 
में असमंजस में पड़ी रही ,
सोचती रही ,
क्या ये सच है ? 
भावो  की धारा ने झकझोरा 
एक नवजात शिशु की किलकारी ने …
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Added by mohinichordia on August 30, 2011 at 12:47pm — 5 Comments

आसमान की चाहत

आसमान छूने की चाहत में

कितने दूर हो जाते हैं 

हम ज़मीन से.

 

रिश्तों की…

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Added by Kailash C Sharma on August 29, 2011 at 8:00pm — 5 Comments

इस्लाह हेतु एक ग़ज़ल |

तुझ बिन तो जन्नत भी सज़ा |
तेरे संग जहन्नुम, बज़ा |

तूने दिया गर दर्द तो,
फिर दर्द मे भी है मज़ा |

इक तुम मेरे ना हो सके,
अब ना बची कोई रज़ा |

तू भी कभी मेरी गली,
ग़लती से आ, आ के न जा |

'अंकुर' ये ज़िद अच्छी नही,
ना आएँगे वो, लौट जा |

Added by Sushant Jain 'Ankur' on August 27, 2011 at 7:00pm — 2 Comments

कविता :- हम नादान ?

कविता :- हम नादान ?

 

कदम आगे कदम पीछे

कभी उभरे कभी बिछे

हमीं इंसान

हम नादान…

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Added by Abhinav Arun on August 27, 2011 at 9:00am — 9 Comments

दोहा सलिला: दोहा का रंग यमक के संग ---संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
दोहा का रंग यमक के संग
-- संजीव 'सलिल'
*
ठाकुर जी को सर झुका, ठाकुर करें प्रणाम. 
कारिंदे मुस्का रहे, पड़ा आज फिर काम.. 
*
नम न हुए कर नमन तो, समझो होती भूल.
न…
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Added by sanjiv verma 'salil' on August 27, 2011 at 8:46am — 3 Comments

एक गीत- अमराई कर दो... संजीव 'सलिल'

एक गीत-

अमराई कर दो...

संजीव 'सलिल'

*

कागा की बोली सुनने को

तुम कान लगाकर मत बैठो.

कोयल की बोली में कूको,

इस घर को  अमराई कर दो...

*

तुमसे मकान घर लगता है,

तुम बिन न कहीं कुछ फबता है..

राखी, होली या दीवाली

हर पर्व तुम्हीं से सजता है..

वंदना आरती स्तुति तुम

अल्पना चौक बंदनवारा.

सब त्रुटियों-कमियों की पल में

मुस्काकर भरपाई कर दो...

*

तुम शक्ति, बुद्धि, श्री समता हो.

तुम दृढ़ विनम्र शुचि ममता हो..…

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Added by sanjiv verma 'salil' on August 26, 2011 at 7:26pm — 6 Comments

धारावाहिक कहानी : कौन देगा इस रिश्ते को नाम ? अंक- 5

कौन देगा इस रिश्ते को नाम ?

लेखक -- सतीश मापतपुरी

अंक -- पाँच (अंतिम )

भीड़ में खलबली मच गयी थी. जबरन उन दोनों को बाहर खींच निकालने की योजना बनने लगी.

नाजिमा सोच नहीं पा रही थी कि अब उसे क्या करना चाहिए, किस तरह अपने मेहमानों की रक्षा करनी चाहिए, भीड़ में से दो-चार युवक आगे बढ़ने लगे,इसी बीच बड़े मियां आंगन में आ पहुचें. उन्हें देखते ही जमात बांधकर आये लोग सकपका गये. बड़े मियां जैसे ही नाजिमा के पास आये,नाजिमा उनके सीने से लगकर फफक पड़ी.…

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Added by satish mapatpuri on August 26, 2011 at 3:25am — 1 Comment

धारावाहिक कहानी : कौन देगा इस रिश्ते को नाम ? अंक- 4

कौन देगा इस रिश्ते को नाम ?

लेखक -- सतीश मापतपुरी

अंक -- चार

भयवश दबी जबान से रहीम ने उन दोनों को पनाह देने पर एतराज किया.

किन्तु नाजिमा ने अपने अब्बा को ऐसा फटकारा कि उनकी बोलती बंद हो गयी . दीवारों के सिर्फ कान ही नहीं होते , शायद आँखें भी होती हैं . ना जानें कैसे सुबह रुसुलपुर में यह बात आग की तरह फैल गयी कि रहीम मियां के घर में हिन्दू भाई-बहन को पनाह दिया गया है . फिर क्या था, कुछ लोग रहीम मियां के आंगन में आ धमके. उनमें से दो-चार ही रुसुलपुर…

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Added by satish mapatpuri on August 25, 2011 at 12:02am — 1 Comment

फिर भी प्यारी ये जिंदगानी है ...

 

साँसे बोझिल हैं , आँखों में पानी है 

फिर भी प्यारी ये जिंदगानी है |

हर सुबह नई परेशानी है ,

फिर भी प्यारी ये जिंदगानी है |

 

कैसी सोची थी कैसी पाई है 

जाना था कहाँ , कहाँ ले आई है |

कौन सोचे और कैसी बितानी है ,

फिर भी प्यारी ये जिंदगानी है…

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Added by Veerendra Jain on August 24, 2011 at 11:59am — 9 Comments

कविता :- ठहराव का सच

कविता :- ठहराव का सच

 

इच्छाओं की चिकनी सड़क पर फिसलती - संभलती ज़िंदगी की बाइक…

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Added by Abhinav Arun on August 24, 2011 at 9:17am — 2 Comments

धारावाहिक कहानी : कौन देगा इस रिश्ते को नाम ? अंक- 3

कौन देगा इस रिश्ते को नाम ?

लेखक -- सतीश मापतपुरी

अंक -- तीन

 

आँगन में आते ही युवक इस तरह उछल पड़ा मानों उसके पाँव तले विषधर आ गया हो

आँगन में बधना देखकर युवक के गले से हल्की चीख निकल पड़ी. वह भयभीत नजरों से नाजिमा की तरफ देखा.

"भाईजान, मुसलमानों के भय से छिपते-छिपाते आपने एक मुसलमान का ही दरवाजा खटखटा दिया है. किन्तु, आपको भयभीत होने की जरूरत नहीं है. गलियों में मजहब और जाति के नाम पर दंगे करने वाले दरअसल न…

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Added by satish mapatpuri on August 24, 2011 at 2:14am — 1 Comment

प्यार की बाँसुरी

 

तुम्हारे प्यार की फुहार से 

इस कदर भीगा तन-मन, कि, 

जीवन में फैले शुष्क रेगिस्तान की तपन 

झुलसा न सकी…

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Added by mohinichordia on August 23, 2011 at 9:00pm — 8 Comments

धारावाहिक कहानी : कौन देगा इस रिश्ते को नाम ? अंक-२

कौन देगा इस रिश्ते को नाम ?

लेखक -- सतीश मापतपुरी

करवट बदल कर नाजिमा ने सर तक कम्बल खींच लिया, तभी उसे लगा कि बाहर के दरवाज़े पर कोई दस्तक दे रहा है .................. एकबारगी उसका पूरा बदन…

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Added by satish mapatpuri on August 22, 2011 at 10:30pm — 1 Comment

धारावाहिक कहानी : कौन देगा इस रिश्ते को नाम ? अंक १

 

कौन देगा इस रिश्ते को नाम ? (कहानी )

लेखक -- सतीश मापतपुरी

  • अंक -- एक

उफ़ ! बड़ी भयानक रात थी .................. हवा की सांय-सांय भी अन्दर तक हिला कर रख देती . दिन के उजालों में तो किसी तरह वक़्त सरक जाते.............. किन्तु, रात के अंधेरों में जैसे थम कर रह जाते हों. कुछ लोग किसी हादसा को हर साल याद दिला कर कटुता एवं नफ़रत को भड़काने से बाज नहीं आते. दिसंबर का महीना शुरू हो चुका था .......................... 6 दिसंबर की उस पुरानी…

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Added by satish mapatpuri on August 22, 2011 at 2:30am — 1 Comment

आख़िरी सोपान तक ,पहुंचे नहीं हैं हम अभी.

 कुछ चले हैं ,कुछ बढ़े हैं, कुछ चढ़े हैं हाँ मगर,

 आख़िरी सोपान तक ,पहुंचे नहीं हैं हम अभी.

 बांटते हैं रोज लाखों लाख खुशियाँ , हाँ मगर,

 आख़िरी इन्सान तक पहुंचे नहीं हैं हम अभी.

 

 कौन समझाए हमें, ये है हमारी त्रासदी,

 जागने भर में, अभी तक खर्च…

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Added by राजेश शर्मा on August 21, 2011 at 4:54pm — 2 Comments

हल नहीं होते हैं कुछ मुश्किल सवाल...

हल नहीं होते हैं कुछ मुश्किल सवाल ......

मसअले नाज़ुक हैं , टाले जायेंगे .......



ये शहर पत्थर का और हम काँच के ......…

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Added by Prabha Khanna on August 21, 2011 at 4:30pm — 10 Comments

लघुकथा : बहू-बेटी

लघुकथा : बहू-बेटी



“अम्मा ! तुम भी घर का कोई काम किया करो, नहीं तो इस तरह तुम्हारे हाथ-पैर जुड़ जाएंगें।” घुटनों के दर्द से करहाती अपनी माँ की दुर्दशा देखकर ससुराल से आई बेटी ने कहा।

“ हाँ बेटी ! तू ठीक ही कहती है, किया करूंगी कुछ काम....”

“ हाँ दीदी, मैने भी कई बार अम्मा जी से कहा है कि आप भी कुछ काम किया करें .......” पास बैठी बहू ने कहा

” काम किया करूँ, तो तुझे ब्याह कर लाने का मुझे क्या फायदा........... काम किया करो....” सास ने बहू की बात को बीच में ही काटते हुए तीखे…

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Added by Ravi Prabhakar on August 21, 2011 at 1:00pm — 7 Comments

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