पवन का:- दुख...
लड्डू बने,थालिया बजी
लड़कों के होने पर
घर घर मिठाइयाँ बंटी
घर खुशियों से और
चेहरा अकड़ से भर गया ...
चूल्हे चाहे ठंडे रहे
अपना पेट जला…
Added by pawan amba on March 2, 2013 at 11:30pm — 8 Comments
मौलिक / अप्रकाशित
राना जी छत पर पड़े, गढ़ में बड़े वजीर |
नई नई तरकीब से, दे जन जन को पीर |
दे जन जन को पीर, नीर गंगा जहरीला |
मँहगाई *अजदहा, समूचा कुनबा लीला |…
Added by रविकर on March 2, 2013 at 5:38pm — 3 Comments
मौलिक / अप्रकाशित
बड़ा बटोरा आज तक, लोलुपता ने माल |
बेंच बेंच दूल्हा किया, शादीघर बदहाल |
शादीघर बदहाल, सुता चैतन्य आज है ।…
ContinueAdded by रविकर on March 2, 2013 at 4:44pm — 10 Comments
वसू हूँ मैं
मेरे ही अन्दर
से तो फूटे हैं
श्रृष्टि के अंकुर
आँचल की
ममता दे सींचा
अपने आप में
जकड़ कर रक्खा
ताकि वक्त
की तेज आंधियाँ
उन्हें अपने साथ
उड़ा ना ले जाएं
बढ़ते हुए
निहारती रही
पल-पल
अब वो नन्हें
से अंकुर
विशाल वृक्ष
बन चुके हैं
और मैं बैठी हूँ
उस वृक्ष की
शीतल छाँव में
आनन्दित
मगन
अपने आप में ||
मौलिक / अप्रकाशित
Added by Meena Pathak on March 2, 2013 at 4:19pm — 18 Comments
उदित सौर मंडल शिखर, ऊर्जस्वी आदित्य
विद्याभूषण में जड़ित, नग हिन्दी साहित्य
नग हिंदी साहित्य, संकलन काव्य निरूपम
छंदों की रसधार, नव निरवच्छिन्न अनुपम
काव्य कोष में छंद, मधुर कविताएँ अन्वित
ज्ञान अमिय मकरंद, पिए हिय कलिका प्रमुदित…
Added by rajesh kumari on March 2, 2013 at 1:00pm — 18 Comments
===========ग़ज़ल===========
खामोश लब पलकें झुकीं हालात देखिये
इस मौन में सिमटे हुए जज्बात देखिये
हमको मिली जो इश्क की सौगात देखिए
हर सुब्ह रोशन चाँदनी है रात देखिये
इंसानियत से बढ़ के क्या मजहब हुआ कोई
फिर भी वो हमसे पूछते हैं जात देखिये
पंजा कमल हाथी हथोडा सारे हो जमा
समझा रहे हैं आपकी औकात देखिये
पल पल मे बदले रंग वो माहौल देख के
गिरगिट के जैसे हो गयी हर बात देखिए
सब “दीप” मांगे बिन मिला हमको जुगाड़…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on March 2, 2013 at 12:00pm — 9 Comments
Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on March 1, 2013 at 11:00pm — 45 Comments
ग़ज़ल |
मेरा मज़हब यही सिखाता है !! |
सारी दुनिया से मेरा… |
Added by SALIM RAZA REWA on March 1, 2013 at 9:17pm — 6 Comments
चार दशकों
के सफर में
चढ़ लिए
मंजिल कई
कुछ ने सांकल
जड़ दिए
बन गए
घुंघरू कई
रूबरू हूं
धूप से अब
चांदनी
मिलती कहां ?
अक्स मेरा
घुल गया है
सब्ज कर
सारा जहां
(मौलिक रचना)
Added by राजेश 'मृदु' on March 1, 2013 at 6:15pm — 9 Comments
मौलिक / अप्रकाशित
जीना मुश्किल हो गया, बोला घपलेबाज |
पहले जैसा ना रहा, यह कांग्रेसी राज |
यह कांग्रेसी राज, नियम से करूँ घुटाला |
पर सांसत में जान, पडा इटली से पाला |…
Added by रविकर on March 1, 2013 at 5:30pm — 9 Comments
अब रंग रंग के फूल खिले हैं,
मेहनत कर रहा माली |
बरसों से था आस लगाये,
रब कब महकेगी डाली |
तड़के उठ कर बाग़ सजाये,
आ जाती है घर वाली |
हरा भरा है बाग़ सुहावन,
देख मनाएं खुशिहाली…
ContinueAdded by Shyam Narain Verma on March 1, 2013 at 5:30pm — 5 Comments
मौलिक - अप्रकाशित
खर्राटों के बीच में, सोया आँखें मीच |
पता नहीं किस तरफ से, देह दबाया नीच |
देह दबाया नीच, सींच कर खेत हटा था-
मग में बीचो बीच, सिंह दमदार डटा था |…
Added by रविकर on March 1, 2013 at 5:15pm — 5 Comments
बजट 2013
लो आ ही गया नवीन बजट
कुछ खिले चेहरे, कुछ गए लटक
शक्कर महंगी, पत्ती सस्ती
बजट हुआ चुनावी कश्ती
गाड़ी लेना है आसान
बढ़ा दिए पेट्रोल के दाम
मँहगा हुआ रेल सफ़र
महगाई से झुकी कमर
चढ़ा सीमेंट उतरा लोहा
मँहगा हो गया कोकोकोला
शून्य व्याज पर मिलेगा लौन
सबके हाथ मै होगा फोन
सस्ती गैस महँगा राशन
बचा रहे अपना…
ContinueAdded by Dr.Ajay Khare on March 1, 2013 at 3:30pm — 4 Comments
''सोनू आज तुमने फिर आने में देर कर दी ,देखो सारे बर्तन जूठे पड़ें है ,सारा घर फैला पड़ा है ,कितना काम है ।''मीना ने सोनू के घर के अंदर दाखिल होते ही बोलना शुरू कर दिया ,लेकिन सोनू चुपचाप आँखे झुकाए किचेन में जा कर बर्तन मांजने लगी ,तभी मीना ने उसके मुख की ओर ध्यान से देखा ,उसका पूरा मुहं सूज रहा था ,उसकी बाहों और गर्दन पर भी लाल नीले निशान साफ़ दिखाई दे रहे थे । ''आज फिर अपने आदमी से पिट कर आई है ''?उन निशानों को देखते हुए मीना ने पूछा ,परन्तु सोनू ने कोई उत्तर नही दिया ,नजरें…
ContinueAdded by Rekha Joshi on March 1, 2013 at 3:00pm — 15 Comments
सुबह की ख्वाहिसों में रात की तन्हाईयाँ क्यूँ हैं
नहीं है तू मगर अब भी तेरी परछाईयाँ क्यूँ हैं ||
नहीं है तू कहीं भी अब मेरी कल की तमन्ना में
जूनून -ए - इश्क की अब भी मगर अंगड़ाइयां क्यूँ हैं ?
मिटा डाले सभी नगमे…
Added by Manoj Nautiyal on March 1, 2013 at 2:00pm — 8 Comments
मौलिक / अप्रकाशित
करकश करकच करकरा, कर करतब करग्राह ।
तरकश से पुरकश चले, डूब गया मल्लाह ।
डूब गया मल्लाह, मरे सल्तनत मुगलिया ।
जजिया कर फिर जिया, जियाये बजट हालिया ।
धर्म…
Added by रविकर on March 1, 2013 at 10:45am — 22 Comments
Added by सतवीर वर्मा 'बिरकाळी' on March 1, 2013 at 10:38am — 9 Comments
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