दोहे ( प्रथम प्रयास )
दर दर भटके पूजता, तू महंत फकीर ।
चरण छुये माँ-बाप के, बनती है तकदीर ॥ 1 ॥
प्यासे को पानी मिले, भूखा जाये जीम ।
ऐसे घर मे लक्ष्मी, कृपा करे आसीम ॥ 2 ॥
जर जोरु दोनो मिले, बिछ्डे पुन मिल जाँए ।
जग छोड माँ-बाप गये, फिर वापस न आँए ॥ 3॥
छ्प्पन भोग तेरे धरे, देव प्रसन्न न होए ।
जब घर पे माता पिता, भूखे बैठे होए ॥4॥
बाल रुप धर तीन देव, करते अमृतपान…
ContinueAdded by बसंत नेमा on July 24, 2013 at 11:30am — 19 Comments
फिर वही गीत दुहराओ प्रिय
मन की सूखी धरती पर
कुछ बूंद प्रेम जल छलकाओ प्रिय
वीरान हो चला है हृदय
कुछ प्रेम पुष खिलाओ प्रिय
फिर वही गीत दुहराओ....................
भग्न हदय सुप्त मन प्राण
अभिशापित सा हो चला जीवन
गहराती धुंध के बादल
कुछ रशमियां बिखराओ प्रिय
फिर वही गीत दुहराओ...............अन्नपूर्णा
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by annapurna bajpai on July 24, 2013 at 11:00am — 19 Comments
घर मकान की आड़ में , बचा नहीं कुछ शेष!
मानव मद में डूबकर,बदल दिया परिवेश !!१
जल थल दूषित हो रहे, मानव फिर क्यों मौन ?
नयन खोल जब सो रहा , इसे जगाये कौन!!३
बूँद बूँद संचय करो, पौधे भी दें रोप!
स्नेह करेगी फिर धरा,झेलेगा न…
Added by ram shiromani pathak on July 23, 2013 at 10:30pm — 14 Comments
भुलाए पर, यहाँ तक भी न कोई ।
Added by Abhinav Arun on July 23, 2013 at 9:30pm — 31 Comments
Added by Abhinav Arun on July 23, 2013 at 9:28pm — 37 Comments
212221222122212
हक़ किसी का छीनकर, कैसे सुफल पाएँगे आप?
बीज जैसे बो रहे, वैसी फसल पाएँगे आप।
यूँ अगर जलते रहे, कालिख भरे मन के दिये,
बंधुवर! सच मानिए, निज अंध कल पाएँगे आप।
भूलकर अमृत वचन, यदि विष उगलते ही रहे,
फिर निगलने के लिए भी, घट- गरल पाएँगे आप।
निर्बलों की नाव गर, मझधार छोड़ी आपने,
दैव्य के इंसाफ से, बचकर न चल पाएँगे आप।
प्यार देकर प्यार लें, आनंद पल-पल बाँटिए,
मित्र! तय…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on July 23, 2013 at 8:00pm — 49 Comments
हैं माँग रहे हम……
Added by Abhishek Kumar Jha Abhi on July 23, 2013 at 5:00pm — 14 Comments
सुनो ऋतुराज! – ११
ये मान मनौव्वल, झूमा-झटकी
बरजोरी, करजोरी और मुँहजोरी
तभी तक, जब तक
इस वैभवशाली ह्रदय का
एकछत्र साम्राज्य तुम्हारे नाम है
जिस दिन यह रियासत हार जाओगे
विस्थापित होकर कहाँ जाओगे?
फिर हम कहाँ और तुम कहाँ
सुनो ऋतुराज
हर नगरी की हर चौखट पर
पी की बाट जोहती सुहागिने
मुझ जैसी अभागन नही होती
खोने को सुख चैन
पाने को बेअंत रिक्त रैन
सुख की अटारी और दुख की पिटारी
अब दोनो तुम्हारे नाम…
Added by Gul Sarika Thakur on July 23, 2013 at 3:30pm — 12 Comments
तुम्हारा प्रेम -
खुद तुम्हारा ही
गढ़ा फलसफा
सुविधाजीवी सोच से
तौला हुआ
नुक्सान नफ़ा
जब तुम कहते हो -
प्रेम है तुम्हें
बुनते हो
मोहक भ्रमजाल
अंतस- द्वीपों में
ज्यों भित्तियां
रचते प्रवाल
१- मित्रों की मंडली में
वह अनर्गल सी हंसी
देह के ही व्याकरण में
उलझकर रहती फंसी
हो न सकती
उसमें मुखरित
सहचरी या प्रेयसी
जब तुम कहते हो-
प्रेम है तुम्हें
झूठ होता है
वह…
Added by Vinita Shukla on July 23, 2013 at 3:00pm — 12 Comments
चाँद यहाँ भी ,
Added by shubhra sharma on July 23, 2013 at 12:00pm — 20 Comments
अधिकार भरी मादकता से,दृष्टिपात हुआ होगा;
मन की अविचल जलती लौ पर,मृदु आघात हुआ होगा।
साँसों की समरसता में भी,आह कहीं फूटी होगी;
सूरज के सब संतापों से,चन्द्रकिरण छूटी होगी।
विभावरी ने आते-जाते,कोई बात सुनी होगी;
सपनों ने तंतुवाय हो कर,नूतन सेज बुनी होगी।
कितने पल थम जाते होंगे,बंसीवट की छाँव तले;
मौन महावर पिसता होगा,आकुलता के पाँव तले।
सन्ध्या का दीप कहीं बढ़ कर,भोरों तक आया होगा;
मस्तक का चंदन अनायास,अलकों तक छाया होगा।…
Added by Ravi Prakash on July 23, 2013 at 12:00pm — 7 Comments
एक कोशिश विरह रस की कविता कहने की आशा है आप सब को पसंद आएगी
फिर से सावन की घटा छाई है
तन्हाई में मुझे तेरी याद आई है
क्यों है दूर मुझसे तू न जानू
क्यों है मजबूर मैं न जानू
है कुछ मेरी भी मज़बूरी
बिन तेरे मैं भी अधूरी
क्या बताऊ दिल का हाल
करता है मुझे ये बेहाल
तुमसे मैं क्या करू सवाल
मेरा क्या तुम बिन हाल
मैं कहु कैसे मेरी प्रियतम
सहा है कितना मैंने सितम
मैं समझती हूँ तेरे दिल का हाल
तेरे…
Added by Ketan Parmar on July 23, 2013 at 11:30am — 8 Comments
रात स्वप्न में, प्रभु थे खड़े
बोले मांगो वत्स क्या मांगते हो
जमीं चाहते हो या आस्मां चाहते हो
बड़ी गाडी बड़ा घर नोटों की गट्ठर
या सत्ता सुख कुर्सी से हो कर
जो चाहो अभी दे दूँ
एक नयी ज़िन्दगी दे दूँ
मैंने माँगा तो क्या माँगा
एक बेंच पुरानीं सी
वो पीछे वाली मेरे स्कूल की
चाहिए मुझे
वो बचपन के ज़माने
दोस्त पुराने
मदन के डोसे पे टूटना
चेतन का वो टिफिन लूटना
अपना टिफिन बचाने में
टीचर…
Added by shashiprakash saini on July 23, 2013 at 11:00am — 7 Comments
छोटी बह्र में गजल-2122, 2122
तुम मुझे अच्छी लगी हो।
मन से तुम सच्ची लगी हो।।
रोज गुल की कामना सी,
शहर की बच्ची लगी हो।
शाम की मुश्किल घड़ी में,
जीत की बस्ती लगी हो।
हुस्न की मलिका सुनो तुम,
आज फिर हस्ती लगी हो।
बाग के हर बज्म में तुम,
राग सी मस्ती लगी हो।
शोर है सागर में तूफां,
मौज की कश्ती लगी हो।
चढ़ गया छत पर पकड़ कर,
सांप सी रस्सी लगी हो।
तुम…
ContinueAdded by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 22, 2013 at 8:51pm — 9 Comments
Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on July 22, 2013 at 8:00pm — 22 Comments
सार छंद / ललित छंद [प्रथम प्रयास]
छन्न पकैया छन्न पकैया के स्थान पर
गुरु का आओ सम्मान करें
....................................................
गुरु का आओ सम्मान करें , 'गुरु' मतलब समझाएं
'गु' से होता अज्ञान तिमिर का, 'रु' से उसको हटाएँ
गुरु का आओ सम्मान करें ,गुरु पूर्णिमा आई
अज्ञान तिमिर का जो हर रहे ,सबके मन का भाई
गुरु का आओ सम्मान करें, अँधेरा दूर हटाएँ
गुरु दक्षिणा आज उसे देवें, ज्ञान प्रकाश…
Added by Sarita Bhatia on July 22, 2013 at 8:00pm — 7 Comments
याद आ गया फिर
मुझे मेरा बचपन ,
पिता की उंगली थामे,
नन्हें कदमों से नापना,
दूरियाँ, चलते चलते ,
वो थक कर बैठ जाना ,
झुक कर फिर पिता का ,
मुझको गोदी उठाना ,
चलते चलते मेहनत का,
पाठ वो धीरे से समझाना ।
बच्चों पढ़ना है सुखदाई,
मिले इसी मे सभी भलाई,
पहले कुछ दिन कष्ट उठाना,
फिर सब दिन आनंद मनाना,
फिर आ गया याद,
उनका ये गुनगुनाना ,
सिर पर वो उनका हाथ,
भर देता है मुझमे…
ContinueAdded by annapurna bajpai on July 22, 2013 at 6:30pm — 13 Comments
1
क्यूँ तुम खामोश रहे
पहले कौन कहे
दोनों ही तड़प सहे .
२
आसान नहीं राहे
पग पग में धोखा
थामी तेरी बाहें .
३
यह जीवन सतरंगी
राही चलता जा
है मन तो मनरंगी .
४
साचे ही करम करो
छल तो काला है
जीवन में रंग भरो .
- शशि पुरवार
मौलिक और अप्रकाशित
Added by shashi purwar on July 22, 2013 at 1:00pm — 9 Comments
मेरी पाती
मेरे नन्हे नन्हे पाँव,
पगडंडियों पर लम्बी दौड़,
पलकों में तिरती सुनहरी तितली,
फूलझड़ी से सपने -
सखी ! आज मैं उन सपनों को
मैके के झरोखों में टाँक आयी हूँ.
नभ का विस्तार,
धरती अम्बर का मिलन,
झिलमिल तारे पुँज,
सब मुझे लुभाते -
सखी ! मैं सितारों की चुनरी ओढ़
बाबुल का आकाश छोड़ आयी हूँ.
समुद्र की उत्ताल तरंगें,
रेत पर खींची लकीरें,
मेरे चुने हुए रंगीन सीपों का झुरमुट -…
Added by coontee mukerji on July 22, 2013 at 2:14am — 17 Comments
है ज़मी पर शोर कितना , आसमाँ खामोश है ।
मन में लाखों हलचलें हैं , आत्मा खामोश है ।
ना कभी करता सवाल , ना कभी देता जवाब ,
हमको देकर ज़िन्दगी , परमात्मा खामोश है ।
आदमीयत सड़ रही , लुट रहा बागे जहाँ ,
पर कहीं चुप चाप बैठा , बागबाँ खामोश है ।
चाहतें दुनिया की ज्यादा , देर तक चलती नहीं,
ताज़ की बरबादियों पर , शाहजहाँ खामोश है ।
जो हकीकत थे कभी, बनकर फ़साने रह गए ,
वक्त के हाथों लुटा , हर कारवाँ खामोश है…
ContinueAdded by Neeraj Nishchal on July 20, 2013 at 6:00pm — 18 Comments
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