Added by neeraj tripathi on July 17, 2011 at 10:24am — No Comments
Added by rajkumar sahu on July 16, 2011 at 10:17pm — No Comments
[ विशेष - ओ.बी.ओ. के साहित्य मर्मज्ञ सुधि पाठकों के समक्ष अपनी यह रचना रख रहा हूँ. इसमें मैंने जीवन और आयु के विशेष सन्दर्भ इस मंतव्य के साथ प्रयोग किये हैं कि जीवन सदैव कम होता जाता है जबकि आयु सदैव बढ़ती ही जाती है...इसी भावना को ध्यान में रखकर रचना का अवलोकन करें...मुझे उम्मीद है कि ये विशिष्ट सन्दर्भ प्रयोग आप सभी को पसंद आएगा...]
कब यह पीर मिटेगी मन की.…
ContinueAdded by डॉ. नमन दत्त on July 15, 2011 at 10:00pm — 1 Comment
(१)
बाँटना तो चाहते हैं हम तेरे रंजो अलम पर,
वक़्त ने पाँव में जंजीर जो पहनाई है |
सो जाते हैं जब--सब--तब हम उठ के देखते हैं,
बरसों से सिरहाने में तस्वीर जो छुपाई है ||
(२)
उसने पूछा भी नहीं और हमने बताया भी नहीं,
बस इसी जद्दोजेहद में कट गई है ज़िन्दगी |
मेरे मालिक ये कैसा इम्तिहान ले रहे हो तुम,
वो लौट के आये हैं अब---जब बट गई है ज़िन्दगी ||
(३)
जिसकी थी जरुरत हमें वो तो नहीं मिली,
किसको बताते क्या मिला…
Added by jagdishtapish on July 15, 2011 at 9:00pm — No Comments
Added by Dhirendra Asthana on July 15, 2011 at 12:40pm — No Comments
Added by satish mapatpuri on July 15, 2011 at 1:00am — No Comments
है मरने वालों की लंबी बड़ी दास्तां
कुछ मरे हैं यहाँ कुछ मरे हैं वहाँ
एक इंसा की गर्दन है अब तक बची
उसके बदले में ये सब तबाही मची
कितनी बार ऐसे हो चुके हैं हादसे
मुजरिम है सलामत बेगुनाह जा फँसे
आतंकी अपनी हठ पर हैं कबसे अड़े
बहाया है खून लोगों के कर लोथड़े
कितनों का बचपन पिता बिन लुटा
सुहागिनों का सिन्दूर माँगों से छुटा
माँ-बाप के कलेजों के चिथड़े हुये
हालात देश के और भी हैं बिगड़े हुये
हमने दिये हैं सबर…
ContinueAdded by Shanno Aggarwal on July 14, 2011 at 4:00pm — 6 Comments
Added by Aakarshan Kumar Giri on July 14, 2011 at 2:42pm — No Comments
(१)
बे वजह उसने क्यों दूरी कर दी ,
बिछड़ के मोहब्बत अधूरी कर दी !
मेरी किस्मत में गम आये तो क्या,
खुदा उसकी ख्वाहिश तो पूरी कर दी !!
(२)
आइना कुछ नहीं नज़र का धोखा है,
नज़र वही आता जो दिल में होता है !
आईने और दिल का एक ही…
Added by Niraj kumar on July 14, 2011 at 2:00pm — No Comments
वो लोगों के, दिलों में, झांकता है |
वो कुछ, ज्यादा ही लम्बी, हांकता है ||
Added by Shashi Mehra on July 14, 2011 at 10:00am — No Comments
Added by rajkumar sahu on July 14, 2011 at 1:29am — No Comments
Added by rajkumar sahu on July 14, 2011 at 12:01am — No Comments
Added by Rohit Dubey "योद्धा " on July 13, 2011 at 11:00pm — 3 Comments
कुछ कहते कहते रुक जाते हैं,
चंचल, मदभरे, नयन तुम्हारे...
पल - पल देखो डूब रहे हम,
झील से गहरे नयन तुम्हारे....
मूक आमंत्रण तुमने दिया था,
अधरों से कुछ भी कहा नहीं,
मुझको अपने रंग में रंग गए,
हाथों से पर छुआ नहीं,
नैनो से सब बातें हो गयीं,
रह गए लब खामोश तुम्हारे....
स्पर्श तुम्हारा याद है मुझको,
सदियों में भी भूली नहीं,
कोई ऐसा दिन नहीं जब,
यादों में तेरी झूली नहीं,
बिन परिचय…
ContinueAdded by Anita Maurya on July 13, 2011 at 10:49pm — 2 Comments
कुदरत है अनमोल !
कुदरत है बड़ी अनमोल
देख ले तू ये आँखें खोल ;
चल कोयल के जैसा बोल
कानों में तू रस दे घोल .
कुदरत है ........................
तितली -सा तू बन चंचल ;
सरिता सा तू कर कल-कल ;
बरखा जल सा बन निर्मल ;
घुमड़-घुमड़ कर बन बादल;
भौरा बन तू इत-उत डोल.
कुदरत है .............................
सूरज बन तू खूब चमक ;
चंदा सा तू बन मोहक ;
फूलों सा तू महक-महक ;
चिड़ियों जैसा चहक-चहक…
Added by shikha kaushik on July 13, 2011 at 9:00pm — No Comments
Added by Shashi Mehra on July 13, 2011 at 12:30pm — 1 Comment
तिनका हूँ, शहतीर नहीं हूँ |
ज़िन्दां हूँ, तस्वीर नहीं हूँ ||
Added by Shashi Mehra on July 13, 2011 at 9:30am — No Comments
Added by Shashi Mehra on July 12, 2011 at 6:00pm — 2 Comments
व्यंग्य - ले लीजिए स्वर्णकाल का आनंद यह बात सही है कि हर किसी की जिंदगी में कभी न कभी स्वर्णकाल आता ही है। उपर वाला निश्चित ही एक बार जरूर छप्पर फाड़कर देता है, ये अलग बात है कि कुछ लोग उस छप्पर में समा जाते हैं तो कुछ लोग पूरे छप्पर को समा लेते हैं। कर्म तो प्रधान होना चाहिए, मगर भाग्य से भरोसा भी नहीं उठना चाहिए, क्योंकि यह तो सभी जानते हैं, जब स्वर्णकाल का दौर चलता है तो फिर फर्श से अर्श की दूरी मिनटों में तय होती है, मगर जब संक्रमणकाल चलता है तो फिर अर्श से फर्श तक आने में पल भर नहीं…
ContinueAdded by rajkumar sahu on July 12, 2011 at 1:20am — 1 Comment
इब्तदा थी मैं, इन्तहां समझा |
एक गुलचीं को, बागवान समझा ||
भूल कह लो, इसे या नादानी |
बेरहम को,था मेहरबाँ समझा ||
ज़हन में, इतने चेहरे, बसते हैं |
मैंने खुद को ही, कारवाँ समझा ||
खुद फरेबी में, ज़िन्दगी गुजरी |
झूठ को, सच सदा, यहाँ समझा ||
कोई मकसद नहीं है, जीने का |
बाद सब कुछ, 'शशि' गँवा समझा ||
Added by Shashi Mehra on July 11, 2011 at 8:03pm — 1 Comment
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