शैक्षिक व्यस्तताओं तथा गाँव यात्रा के कारण काफी समय तक ओबीओ से दूर रहना पड़ा ! इतने दिनों में काफी याद आया अपना ये ओबीओ परिवार ! लगभग पाँच महीने बाद आज पुनः ओबीओ पर लौटा हूँ ! सर्वप्रथम सभी आदरणीय मित्रों को नमस्कार, तत्पश्चात ये एक छोटी-सी गज़ल नज़र कर रहा हू ! इसके गुणों-दोषों पर प्रकाश डालकर, मुझ अकिंचन को कृतार्थ करें ! सादर आभार !
अरकान : २१२२/२१२२
जिन्दगी की क्या कहानी !
गर नही आँखों में पानी !
भ्रष्टता…
ContinueAdded by पीयूष द्विवेदी भारत on July 20, 2013 at 4:30pm — 24 Comments
बहुत देर से
धूप ही धूप थी
दूर तक
कोई दरख्त नहीं
जिसकी छाँव तले मै
आ जाऊं !
बहुत दिनों से
कंठ सूखा था
दिनों तक कोई
लहर नहीं
जिसे जी भर मै
पी जाऊं !
कई जेठों से
स्वेद की कितनी बूंदें
माथे छलछलाती थीं
कब शीतल पुरवाई में
समा जाऊं !
आ जाओ
बस आ ही जाओ
मेरी जिन्दगी
छाँव, तृप्ति और श्वास
मेरी तुम !
-जीतेन्द्र…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on July 20, 2013 at 4:00pm — 29 Comments
!!! चौपाई !!!
//प्रत्येक चरण में 16 मात्राएं, अन्त में दो गुरू या एक गुरू दो लघु होता है। जगण-121 तथा तगण-221 निषेध है//
मेघ तुम्हारा तन है काला।
मन है निर्मल गंगा वाला।!
चाल तुम्हारी गड़बड़ झाला।
बोल कड़क बिजली भय वाला।।
बरसे झम-झम हवा झकोरे।
रिसता तरल अमी वन भोरे।।
खेत खलिहान हुए विभोरे।
कृषक चले तन हल धर जोरे।।
हरषे रिम-झिम सावन जैसे।
छपरा झर-झर झरता…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 20, 2013 at 10:12am — 12 Comments
कभी कभी
खामोश हो जाते हैं शब्द।
जीवन में
कब अपना चाहा होता है
सब।
बहुत कुछ अनचाहा
चलता है संग।
इस दीवार से
झरती पपड़ियाँ;
दरारों में उगते
सदाबहार और पीपल;
गमले में सूखता
आम्रपाली।
दिये की रोशनी सहेजने में
जल जाती हैं उंगलियाँ।
गाँठ खोलने की कोशिश में
ढूंढे नहीं मिलता
अमरबेल का सिरा।
तुम
किसी स्वप्न सी खड़ी
बस…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on July 20, 2013 at 10:00am — 25 Comments
वज़न-।ऽऽऽ ।ऽऽऽ ।ऽऽऽ ।ऽऽऽ
1. नहीं शिकवा नज़ारों से अगर नज़रें फिसल जाएँ,
भले ख़ामोश आहों में सुहाने पल निकल जाएँ।
तेरी मग़रूर चौखट पे नहीं मंज़ूर झुक जाना,
हमेशा का अकेलापन भले मुझ को निगल जाए॥
.
2. तुम्हारे रूप की गागर न जाने कब ढुलक जाए,
चटख रंगीनियों में भी पुरानापन झलक जाए।
मगर मेरी मुहब्बत तो सदानीरा घटाएँ है,
वहीं अंकुर निकलते हैं जहाँ पानी छलक जाए॥
.
3. किसी जुम्बिश में धड़कन के अभी अहसास बाक़ी है,
अपरिचित आहटों में भी तेरा…
Added by Ravi Prakash on July 20, 2013 at 7:00am — 15 Comments
औरत
मैंने
औरत बन जन्म लिया
हाँ मैं हूँ
एक औरत
और औरत ही
बनी रहना चाहती हूँ
क्यूंकि
मैं इक बेटी हूँ
मैं इक बहन हूँ
मैं इक पत्नी हूँ
सर्वोपरि इक माँ हूँ
मैं इक पूरी कौम हूँ
एवं
इनसे जुडे हर रिश्ते
की बिन्दू हूँ मैं
वो सभी घूमते रहते हैं
मेरे चारों ओर
एक वृत्त की तरह
और मैं
चाहे…
ContinueAdded by vijayashree on July 19, 2013 at 10:32pm — 15 Comments
द्रोणाचार्य आश्चर्यचकित थे। कुत्ते को बिना कोई नुकसान पहुँचाये उसका मुँह सात बाणों से भरकर बंद कर दिया था एकलव्य ने। ये विद्या तो द्रोणाचार्य ने कभी किसी को नहीं सिखाई। एकलव्य ने उनकी मूर्ति को गुरु बनाकर स्वाध्याय से ही धनुर्विद्या के वो रहस्य भी जान लिये थे जिनको द्रोणाचार्य अपने शिष्यों से छुपाकर रखते थे।
द्रोणाचार्य को रात भर नींद नहीं आई। उन्हें यही डर सताता रहा कि एकलव्य ने अगर स्वाध्याय से सीखी गई धनुर्विद्या का ज्ञान दूसरों को भी देना शुरू कर दिया तो द्रोणाचार्य के…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 19, 2013 at 9:00pm — 12 Comments
बरसे बदरा नीर बहाये
ज्यों गोरी घूँघट शरमाये
चाल चले ऐसी मस्तानी
ज्यूँ बह चली पुरवा रानी
बादल गरजे प्रेमी तड़पे
झलक तेरी को गोरी तरसे
आजा अंगना दरस दिखा जा
नयन मेरे तू शीतल कर दे
ज्यूँ घटा का रूप लेके
यूँ लटें चेहरे पर छाई
मोती सी पानी की बूंदें
छलक रही चेहरे पर ऐसे
स्पर्श तेरा स्वर्णिम पाने को
पानी की बूँदें भी तरसे.
"मौलिक व…
ContinueAdded by Aarti Sharma on July 18, 2013 at 10:30pm — 13 Comments
मात्रा बह्र
2 2 / 22 / 22 / 22 / 22 / 2
सोचा हमने तुमको इक ख़त लिख देंगे।
और तुम्हारी एक शिकायत लिख देंगे।।
ये जंग न हो दुनियाँ में मेरे मौला ।
दुनिया भर के नाम इबारत लिख देंगे।।
कर सकते हो हर एक खता दुनिया में।
हम ये तेरे नाम इजाजत लिख देंगे।।
मिलते मिलते बिछड़ा है वो भी मुझसे।
करता मेरा यार सियासत लिख देंगे।।
इक दिन मिट जायेगा पूरा ये ज़माना।
होगी जो मातम की सूरत लिख देंगे।।
दिल…
Added by Ketan Parmar on July 18, 2013 at 9:00pm — 17 Comments
देहरी लांघ चली
आशाएं
मुंह बाएं प्रीत
भगोना
अँखुवाती भर देह
विवशता
जिद अपनी छोड़े ना
आदिम सब
चट्टान…
ContinueAdded by राजेश 'मृदु' on July 18, 2013 at 4:30pm — 5 Comments
मणिपुर में बिताए दिन सपनों जैसे थे. एक रूमानी फ़साने की तरह जिसमें एक राजकुमार, एक राजकुमारी और पंख लगा कर उड़ने और उड़ाने को ढेर सारे ख्व़ाब थे. हक़ीकत जहां इक पहाड़ की तरह सीना तान कर खड़ी थी वहीं रूमानियत की रुपहली फंतासी नस-नस में नशा घोल रही थी. ज़िंदगी में हर चीज़ का इक मुअय्यन (तय) वक़्त होता है- मुहब्बत के दौर में अल्हड़ और अंजान बने बेफ़िक्र जीते रहे और फ़र्ज़ के दौर में दिल लगा के कई अपनों का दिल तोड़ दिया.
घुमावदार…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 18, 2013 at 4:00pm — No Comments
ज़िंदगी भी क्या मज़ाक़ है? माज़ी को अपने शानों (कांधों) से पीछे मुड़कर देखो, सब एक मज़ाक़ ही तो है. जवानी का जोशोखरोश, कमसिनी (कमउम्री) की नाज़ुकी, वफ़ा की दोशीज़गी (तरुणावस्था), लबेचश्म (आँखों के किनारे) हैरान मुहब्बत की मजबूरियां, पएविसाल (मिलन के लिए) माशूक का जज़्बाएइंतेशार (उलझन का भाव), किसी तनहा शाम के धुंधलके में लौटते कदमों की चीखती सी आहटें.....उससे मिलके घर लौटते सफ़र की कचोटती तनहाइयाँ, घर के गोशे गोशे में (कोने कोने में) दुबकी वीरानियाँ, दीवार पे लटकती तस्वीरों की तरह अपना लटका…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 18, 2013 at 4:00pm — No Comments
मैं लिखा करता हूँ
भाव की ध्वनियों को;
उतारता हूँ
नए शब्दों में
नए रूपों में।
रस, छंद, अलंकार
तुक, अतुक
सब समाहित हो जाते हैं
अनायास।
ये ध्वनि के गुण हैं;
शब्द के श्रंगार।
इन्हें खोजने नहीं जाता।
मुझे तो खोज है
उस सत्य की
जिसके कारण
मैं सब कुछ होते हुए भी
कुछ नहीं
और कुछ न होते हुए भी
सब कुछ हो जाता हूँ।
शायद किसी दिन
किसी…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on July 18, 2013 at 3:00pm — 20 Comments
Added by Lata tejeswar on July 18, 2013 at 1:30pm — No Comments
वो बिलकुल साफ़ ओ सफ्फाफ़ थी, टाटा साल्ट की तरह फ्री फ्लोइंग, एक एक दाने की तरह उसकी शख्सियत के रेज़े (कण) धुले धुले और चमकते से. मगर साथ साथ हालात-ओ-सिफात (स्थितियां और स्वभाव) की बंदिशें (बंधन) भी आयद (लागू) थीं और कुदरत (प्रकृति) ने हमारी निस्बतों की हदें (मिलने जुलने की सीमाएं) और मुबाहमात की मिकदार (संबंधों की मात्रा) तय कर दी थी. हम मिल तो सकते थे, मगर घुल मिल नहीं सकते थे...एक दूसरे को चाह और समझ तो सकते थे मगर एक दूसरे में शामिल नहीं हो सकते थे...वरना तमाम रिश्तों के ज़ायके बिगड़…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 18, 2013 at 1:00pm — 2 Comments
"दस हजार रूपये की व्यवस्था कर ले रमेश, मुझे मेरे बच्चो को स्कूल ड्रेस और किताबें दिलानी है"
किशन ने लापरवाही से अपने छोटे भाई रमेश को दवाब देते हुए बोला.
पिछले बड़े कर्जे से अभी अभी निपटा रमेश, अपने साले द्वारा भी की गयी रुपयों की मांग को लेकर परेशान होते हुये बोला "हाँ, ठीक है, मै मालिक से बात करता हूँ." अपने दोस्त लखन के साथ रमेश मालिक के पास पैसे मांगने गया.
मालिक युगल ने अचरज करते हुए पूछा " अरे! तुझे इतनी बड़ी रकम की जरुरत पड गयी? तू अभी तो कर्जे से निपटा…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on July 18, 2013 at 11:30am — 8 Comments
सावन आया झूम के,देखो लाया तीज
रंगबिरंगी ओढ़नी, पहन रही है रीझ
पहन रही है रीझ, हार कंगन झाँझरिया
जुत्ती तिल्लेदार, आज लाये साँवरिया
उड़ती जाय पतंग, लगे अम्बर मनभावन…
Added by Sarita Bhatia on July 18, 2013 at 10:30am — 6 Comments
बहर : हज़ज मुरब्बा सालिम
1222, 1222
परेशानी बढ़ाता है,
सदा पागल बनाता है,
अजब ये रोग है दिल का,
हँसाता है रुलाता है,
दुआओं से दवाओं से,
नहीं आराम आता है,
कभी छलनी जिगर कर दे,
कभी मलहम लगाता है,
हजारों मुश्किलें देकर,
दिलों को आजमाता है,
गुजरती रात है तन्हा,
सवेरे तक जगाता है,
नसीबा ही जुदा करता,
नसीबा ही मिलाता…
ContinueAdded by अरुन 'अनन्त' on July 18, 2013 at 10:30am — 20 Comments
वज्न - 2122 1122 22
महफिलें यूँ ही सजाये रखना
हौसला अपना बनाये रखना
चाँद के पहलू में अन्धेरा है
इन चिरागों को जलाये रखना
रविशे-आम आज हरीफ़ाना है
संग हाथों में उठाये रखना
अपनी यादों के वही दिलकश पल
इन निगाहों में छिपाये रखना…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on July 18, 2013 at 10:00am — 19 Comments
चाँद नगर को जाते-जाते,जिनका अश्व भटकता है;
उडुगण की उजली बस्ती में,चुँधियाया सा रुकता है।
स्वर्णकिरण की राहों पर जो,चलते हुए झिझकते हैं;
जिनके स्वप्न जहाँ विस्फारित,होते वहीं पिघलते हैं।
नीरदमाला बन कर उनके,निःश्वासों में गलना है।
मेरी कविते! साथी हो कर,हमको दूर निकलना है॥
जग में चौराहे कितने हैं,कितनी परम्पराएँ भी;
बनती-मिटती बस्ती भी है,अडिग अट्टालिकाएँ भी।
जीवन भर दोराहे पर जो,पथ-निर्धारण करते हैं;
आशा की कच्ची गागर में,सदा हताशा भरते हैं।…
Added by Ravi Prakash on July 18, 2013 at 7:00am — 8 Comments
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