मिशन इज ओवर (कहानी )
लेखक -- सतीश मापतपुरी
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इंसान अगर जीने का मकसद खोज ले तो निराशा स्वत: दम तोड़ देगी. विकास को निराशा के गहरे अँधेरे कुंए में आशा की एक टिमटिमाती रोशनी नज़र आई,उसने मन ही मन सोचा -" क्यों न एड्स के साथ जी रहे लोगों के पुनर्वास और उनके प्रति लोगों के दृष्टिकोण में…
ContinueAdded by satish mapatpuri on August 11, 2011 at 1:00am — 5 Comments
Added by rajkumar sahu on August 10, 2011 at 10:25pm — No Comments
फिर नज़दीक आती स्वतंत्रता दिवस की एक और वर्षगाँठ और मन में उठते सवालों का बवंडर ,क्या यह पूर्ण स्वतंत्रता है या क्या येही स्वतंत्रता है ? की जब जिसे चाहो लूट लो ,मार दो ,उजाड़ दो ? या फिर ..आज शहीदों को नमन करो कल भूल जाओ ? या फिर गरीबों की सहायता करने के झूठे वादे करो ,अपना मतलब साधो और…
ContinueAdded by Lata R.Ojha on August 10, 2011 at 10:00pm — No Comments
Added by Atendra Kumar Singh "Ravi" on August 10, 2011 at 10:30am — 4 Comments
मै पश्चिम वाली कोठरी में आलमारी पर पड़े सामानों को इधर-उधर कर के देख रहा था| तभी मेरी नज़र एक निमंत्रण कार्ड पर पड़ी| कार्ड के ऊपर देखने पर पता चला की वो निमंत्रण भैया के नाम से था, प्रेषक वाली जगह के नाम से मै अनजान था| कौतुहल वश मैंने बड़ी आसानी से अन्दर के पत्र को निकाल कर देखा, अगले दिन बारात आने वाली थी| दर्शनाभिलाषी में पढने पर ज्ञात हुआ की वह निमंत्रण भैया के एक मित्र के बहन की शादी का था| मै और भैया एक ही स्कूल में पढ़े थे और उनके लगभग सारे मित्र मुझे भी…
ContinueAdded by आशीष यादव on August 10, 2011 at 10:00am — 11 Comments
मिशन इज ओवर (कहानी )
लेखक -- सतीश मापतपुरी
अनायास विकास एक दिन अपने गाँव लौट आया. अपने सामने अपने बेटे को देखकर भानु प्रताप चौधरी के मुँह से हठात निकल गया -"अचानक ..... कोई खास बात ......?" घर में दाखिल होते ही प्रथम सामना पिता का होगा, संभवत: वह इसके लिए तैयार न था, परिणामत: वह पल दो पल के लिए सकपका गया ............. किन्तु, अगले ही क्षण स्वयं को नियंत्रित कर तथा अपनी बातों में सहजता का पुट डालते…
ContinueAdded by satish mapatpuri on August 10, 2011 at 1:30am — 6 Comments
ग़ज़ल :- हथेली पे कैक्टस उगाने से पहले
हथेली पे कैक्टस उगाने से पहले ,
ज़रा सोचना तिलमिलाने से पहले |
मोहब्बत से तौबा तो …
Added by Abhinav Arun on August 9, 2011 at 7:00am — 19 Comments
Added by Abhinav Arun on August 8, 2011 at 2:37pm — 8 Comments
भारत देश के सब मित्रों का,
अन्तःमन से अभिनंदन है.
नैतिक मूल्यों को सदा समर्पित,
विश्व हेतु यह आह्वाहन आयी.
आओ हम इस मानवता को,
सत्य प्रेम नव पाठ पढ़ा दें,
भ्रष्ट अनैतिक आतंको का,
दुनिया से अब नाम मिटा दें.
करें मित्रता हम सब मिलकर,
विश्व एक परिवार बनाकर,
आज मित्र दिवस के अवसर पर,
यही सभी से अर्चन है.
Added by vishnukantmisra on August 7, 2011 at 11:00am — No Comments
अपने मन को मुर्झाने मत देना
अपने बच्चों की दुनियाँ को कुम्हलाने मत देना
बच्चे यदि पापा से मिलने को मचलें ,तो उन्हें ,
समन्दर की लहरें दिखा लाना ,
बगीचे में जाकर फूलों की खुशबू सुंघा लाना |
क्या हुआ जो एक जिन्दगी ने
'अपने अनगिनत बसंत देश के नाम लिख दिए ?
लोग पतंगों की मानिंद जी कर…
ContinueAdded by mohinichordia on August 7, 2011 at 10:00am — 2 Comments
“.....चलो....... चलो हर हाल में चलो ”
पाँव फिसले जमीं पर तो घबराना क्या....
आसमां से कदम तुम मिलाते चलो ...
लाख तोड़े समंदर घरोंदे तो क्या ...
रेत के फिर भी घर तुम बनाते चलो…
ContinueAdded by प्रदीप सिंह चौहान on August 6, 2011 at 4:00pm — 4 Comments
मौसम आया लुभावना मनभावना
चलो सखी झूला झूलें |
झूला झुलाने सखी पी मेरे आये
तन मन हुआ लुभावना
चलो सखी झूला झूलें |…
Added by mohinichordia on August 6, 2011 at 3:28pm — 3 Comments
Added by Rash Bihari Ravi on August 6, 2011 at 1:30pm — 7 Comments
बरसे पानी
संजीव 'सलिल'
*
रिमझिम रिमझिम बरसे पानी.
आओ, हम कर लें मनमानी.
बड़े नासमझ कहते हमसे
मत भीगो यह है नादानी.
वे क्या जानें बहुतई अच्छा
लगे खेलना हमको पानी.
छाते में छिप नाव बहा ले.
जब तक देख बुलाये नानी.
कितनी सुन्दर धरा लग रही, …
Added by sanjiv verma 'salil' on August 6, 2011 at 10:30am — 6 Comments
दान मनुज का परम धर्म और मानवता का गहना है.
दिखलाना कार्पण्य समय से पहले ही मरना है.
मंदिर के निर्माण हेतु चन्दा देना कोई दान नहीं.
हवन -कुण्ड में अन्न जलाना भी है कोई दान नहीं.
निज तर्पण के लिए विप्र को धन देना भी दान नहीं.
ईश्वर-पूजा की संज्ञा दे भोज कराना दान नहीं.
दान नहीं नाना प्रकार से मूर्ति -पूजन करना है.
दान मनुज का परम धर्म और मानवता का गहना है.
करना मदद सदा निर्धन की दान इसे ही कहते हैं.
जो पर…
ContinueAdded by satish mapatpuri on August 5, 2011 at 12:00am — 6 Comments
बचपन में
एक दिन
एक संटी को
मुँह में दबाकर
मैं गन्ना
समझ बैठी
आज लिखते हुये
फिर भूल से
किसी के पन्ने को
मैं अपना पन्ना
समझ बैठी
न जाने कितनी
होती रहती हैं
मिस्टेक जिंदगी में
कुछ अनजाने में
कुछ नादानी में
फिर आती है
झेंप…
ContinueAdded by Shanno Aggarwal on August 4, 2011 at 6:00pm — 8 Comments
Added by rajkumar sahu on August 4, 2011 at 11:17am — No Comments
एक अश्क गिरा और फूट गया छन से
Added by Atendra Kumar Singh "Ravi" on August 4, 2011 at 10:30am — 1 Comment
हम करते रहे खेतों में अनवरत काम
सबका पेट भरते, कहलाते 'किसान'
भोर हुई कि चल पड़े डूबके अपने रंग
ले हल कांधो पे और दो बैलों के संग
बहते खून पसीना तज कर अपने मान
सबका पेट भरते, कहलाते 'किसान' ---१
हैं उपजाते अन्न सब मिलकर खेतों में हम
फिर भी मालियत पे इसके हैं अधिकार खतम
सबकुछ समझ कर भी हम बनते है नादान
सबका पेट भरते, कहलाते 'किसान' ---२
भूखे हैं हमसब या अपना है पेट…
ContinueAdded by Atendra Kumar Singh "Ravi" on August 4, 2011 at 9:29am — 2 Comments
काँटों से नहीं मुझको तो फूलों से डर लगता है.
मतलब परस्त दोस्तों के वसूलों से डर लगता है.
घबडाते नहीं है अब हम तो गम के आने-जाने से.
हाँ,चौक जरूर जाते है खुशियों के झलक दिखाने से,
अश्कों की आँख-मिचौली में नैनों के सपने टूट गये.
सदा डरते रहे हम गैरों से, अपनों के हाथों लूट गये.
अब तो बदनामों से ज्यादा मक़बूलों से डर लगता है.
मतलब परस्त दोस्तों के वसूलों से डर लगता है.
अफ़सोस,ये जिंदगी दुनिया के रंग में हम ऐसे घूल…
ContinueAdded by Noorain Ansari on August 3, 2011 at 7:30pm — 6 Comments
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