Added by Bhasker Agrawal on December 24, 2010 at 12:04pm — 8 Comments
Added by sanjiv verma 'salil' on December 24, 2010 at 8:16am — 3 Comments
जनक छंदी सलिला : १.
संजीव 'सलिल'
*
आत्म दीप जलता रहे,
तमस सभी हरता रहे.
स्वप्न मधुर पलता रहे..
*
उगते सूरज को नमन,
चतुर सदा करते रहे.
दुनिया का यह ही चलन..
* हित-साधन में हैं मगन,
राष्ट्र-हितों को बेचकर.
अद्भुत नेता की लगन..
*
सांसद लेते घूस हैं,
लोकतन्त्र के खेत की.
फसल खा रहे मूस हैं..
*
मतदाता सूची बदल,
अपराधी है कलेक्टर.
छोडो मत दण्डित…
ContinueAdded by sanjiv verma 'salil' on December 23, 2010 at 11:30pm — 4 Comments
आया जब मैं उज्जवल बेला ,
हसी ख़ुशी का मस्त सवेरा ,
था सब अपना नही पराया ,
ये सब उन लोगो से पाया ,
सोचता हूँ मैं अक्सर यारा ,
मेरी बारी कब आएगी !…
Added by Rash Bihari Ravi on December 23, 2010 at 7:00pm — 3 Comments
Added by Lata R.Ojha on December 23, 2010 at 4:30pm — 6 Comments
Added by Bhasker Agrawal on December 23, 2010 at 11:14am — 7 Comments
Added by Bhasker Agrawal on December 22, 2010 at 11:48pm — 1 Comment
कोई अभिनव कोई बागी कोई हैं प्रभाकर ,
सच कहू धन्य हुआ OBO इन्हें पाकर ,
सलिल जी की शायरी मस्त भरी गीत हैं ,
आती हैं मस्ती मन में जोगेंद्र ब्लॉग पाकर ,
नविन राकेश राणा इसके तो सितारे हैं ,
नीलम जी, रंजना जी, अनीता जी आकर
दीपक शर्मा जी की बाते निराली हैं ,
बिजय , प्रीतम , और रत्नेश भाई अक्सर ,
गुरु भी धन्य हुए इन सब को संग पाकर ,
सतीश जी के गीत मन को भोराकर ,
लिखते अच्छे ब्लॉग…
Added by Rash Bihari Ravi on December 22, 2010 at 7:30pm — 6 Comments
Added by Abhay Kant Jha Deepraaj on December 22, 2010 at 2:30pm — 3 Comments
Added by Lata R.Ojha on December 22, 2010 at 2:00pm — 9 Comments
ये पेट की आग भी
क्या क्या न कराती है ...
चैन नहीं दिन में
रातें भी घबराती हैं ...
जीवन जीने की इच्छा
मन को ललचाती है ...
आगे बढ़ने की ख्वाइश
मेहनत खूब कराती है ...
न गर्मी से तपता है तन
न ठण्ड डरा पाती है .....
ये पेट की आग भी
क्या क्या न कराती है ...
Added by Anita Maurya on December 22, 2010 at 1:30pm — 7 Comments
Added by Abhinav Arun on December 22, 2010 at 10:30am — 4 Comments
Added by Amit Prabhu Nath Chaturvedi on December 22, 2010 at 10:19am — 4 Comments
मुक्तिका:
कौन चला वनवास रे जोगी?
संजीव 'सलिल'
**
कौन चला वनवास रे जोगी?
अपना ही विश्वास रे जोगी.
*
बूँद-बूँद जल बचा नहीं तो
मिट न सकेगी प्यास रे जोगी.
*
भू -मंगल तज, मंगल-भू की
खोज हुई उपहास रे जोगी.
*
फिक्र करे हैं सदियों की, क्या
पल का है आभास रे जोगी?
*
गीता वह कहता हो जिसकी
श्वास-श्वास में रास रे जोगी.
*
अंतर से अंतर मिटने का
मंतर है चिर…
Added by sanjiv verma 'salil' on December 21, 2010 at 11:36pm — 7 Comments
बहकाती है क्यूँ जिंदगी...? ©
शुरू में गज़ल सी , फिर भटकती लय है क्यूँ जिंदगी......
हर रंग भरा इसमें तुमने , सवाल सी है क्यूँ जिंदगी.......
ज़वाब दिए खुद तुम्हीं ने , फिर अधूरी है क्यूँ जिंदगी.....
माना है डगर कठिन , कदम बहकाती है क्यूँ जिंदगी.....
मंजिल का पता नहीं पर , राह भटकाती है क्यूँ जिंदगी.....
Photography & Creation by :- जोगेन्द्र सिंह…
Added by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on December 21, 2010 at 11:30pm — 6 Comments
Added by Lata R.Ojha on December 21, 2010 at 11:30pm — 5 Comments
"क्या यह बात सच है कि कल तुम्हारी बेटी से बलात्कार किया गया ?"
"हाँ साहब, कल शाम खेतों से लौटते हुए मेरी बेटी की इज्ज़त लूटी गई !"
"क्या तुम जानते हो कि दोषी कौन है !?"
"मैं ही नही साहब, सारा गाँव जानता है उस पापी को जिसने मेरी बेटी को बर्बाद किया है !"
"मगर इतनी बड़ी बात होने के बावजूद भी तुमने थाने जाकर रिपोर्ट क्यों नहीं लिखवाई ?"
"क्योंकि मैं अपनी बेटी का सामूहिक बलात्कार नही चाहता था ! "
Added by योगराज प्रभाकर on December 21, 2010 at 4:30pm — 24 Comments
सच्चाई सूरत लेगी एक दिन
माटी मूरत होगी एक दिन
क्यों भागता है यों रूठकर तू मुझसे
मुझे तेरी जरूरत होगी एक दिन
कभी राज अपने भी बतलाऊंगा तुझे
जो सुनने कि फुरसत होगी तुझे एक दिन
क्यों लगाया है मन तूने में चोखट पे
खुद तेरे दर पे आऊंगा बनके जोगी एक दिन
बहुत ठोकरें खाई हैं तूने इन राहों में
कभी मंजिल भी दिखलाऊंगा तुझे एक दिन
बहता पानी है तू चलाती है ये ज़मीं तुझे
बहते बहते समुन्दर बन जायेगा तू एक दिन
गम ना…
Added by Bhasker Agrawal on December 21, 2010 at 3:51pm — 1 Comment
गीत:
निज मन से हांरे हैं...
संजीव 'सलिल'
*
कौन, किसे, कैसे समझाये
सब निज मन से हारे हैं.....
*
इच्छाओं की कठपुतली हम
बेबस नाच दिखाते हैं.
उस पर भी तुर्रा यह, खुद को
तीसमारखां पाते हैं.
रास न आये सच कबीर का
हम बुदबुद-गुब्बारे हैं.....
*
बिजली के जिन तारों से
टकरा पंछी मर जाते हैं.
हम नादां उनका प्रयोग कर,
घर में दीप जलाते हैं.
कोई न जाने कब चुप हों
नाहक बजते इकतारे हैं.....
*
पान, तमाखू,…
Added by sanjiv verma 'salil' on December 21, 2010 at 12:00am — 5 Comments
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