हर दिन जमाना दिल को मेरे आजमाता है,
मिलता है जो भी, बात उसकी ही चलाता है.
मालूम है मुझको की आईना है सच्चा पर,
ये आजकल, सूरत उसी, की ही दिखता है.
पीना नहीं चाहा कभी मैने यहाँ फिर भी,
मयखाने का साकी, ज़बरदस्ती पिलाता है.
सच है खुदा तू ही मदारी है जहाँ का बस,
हम सब कहाँ है नाचते, तू ही नचाता है.
"मासूम" अब रोना नहीं दुनिया मे ज़्यादा तुम,
इस आँख का पानी उठा सैलाब लाता है.
Added by Pallav Pancholi on October 12, 2010 at 12:00am —
1 Comment
शैतान अपना काम बनाकर चला गया
आपस में भाइयों को लड़ाकर चला गया
फिर आदतन वो मुझको सताकर चला गया
हँसता हुआ जो देखा रुलाकर चला गया
उल्फत का मेरी कैसा सिला दे गया मुझे
पलकों पे मेरी अश्क सजाकर चला गया
"जाने से जिसके नींद न आई तमाम रात"
वो कौन था जो ख्वाब में आकर चला गया
बदनाम कर रहा था जो मुझको गली गली
देखा मुझे तो नज़रें झुकाकर चला गया
कातिल को जब वफाएं मेरी याद आ गयीं
तुरबत पे मेरी अश्क बहाकर चला…
Continue
Added by Hilal Badayuni on October 11, 2010 at 11:00pm —
5 Comments
मैंने पूछा था
तट की गीली रेत से
जीवन क्या है
और क्या है
तेरी नियति ?
कुचली जाती पैरों से
क्या हुआ विलुप्त
दर्द की
अनुभूति !!!?
उसने हँसकर
कहा-
जीवन क्या
और मरण क्या
नश्वरता का है
प्रहशन ,
कूल**
परिवर्तन
ही बंधन है
मध्य है
जीवन की
निर्बाध गति ।
~शशि रंजन मिश्र
** कूल=…
Continue
Added by Shashi Ranjan Mishra on October 11, 2010 at 7:00pm —
1 Comment
लघुकथा: मोहनभोग
-संजीव वर्मा 'सलिल'
*
*
'हे प्रभु! क्षमा करना, आज मैं आपके लिये भोग नहीं ला पाया. मजबूरी में खाली हाथों पूजा करना पड़ रही है.
' किसी भक्त का कातर स्वर सुनकर मैंने पीछे मुड़कर देखा.
अरे! ये तो वही सज्जन हैं जिन्होंने सवेरे मेरे साथ ही मिष्ठान्न भंडार से भोग के लिये मिठाई ली थी फिर...?
मुझसे न रहा गया, पूछ बैठा: ''भाई जी! आज सवेरे हमने साथ-साथ ही भगवान के भोग के लिये मिष्ठान्न लिया था न? फिर आप खाली हाथ कैसे? वह मिठाई क्या…
Continue
Added by sanjiv verma 'salil' on October 11, 2010 at 6:30pm —
3 Comments
जनक छंदी मुक्तिका:
सत-शिव-सुन्दर सृजन कर
संजीव 'सलिल'
*
*
सत-शिव-सुन्दर सृजन कर,
नयन मूँद कर भजन कर-
आज न कल, मन जनम भर.
कौन यहाँ अक्षर-अजर?
कौन कभी होता अमर?
कोई नहीं, तो क्यों समर?
किन्तु परन्तु अगर-मगर,
लेकिन यदि- संकल्प कर
भुला चला चल डगर पर.
तुझ पर किसका क्या असर?
तेरी किस पर क्यों नज़र?
अलग-अलग जब…
Continue
Added by sanjiv verma 'salil' on October 11, 2010 at 5:55pm —
1 Comment
मैं करता हूँ तेरा इंतज़ार प्यार में ,
प्यार करता है तेरा इंतज़ार मुझमे ..
शाम से ही रोशन ये चाँद ,
पलकें झपकते ये सितारे तमाम ,
ख्वाबों की बार बार आती जाती मुस्कान ,
हैं सभी बेचैन तेरे इंतज़ार में..
हवाएं ,
लहरें
और मैं
इंतज़ार का ही हैं नाम , प्यार में..
ख़ामोशी करती है प्यार
और प्यार करता है ख़ामोशी,
मैं करता हूँ दोनों
प्यार और खामोश इंतज़ार ...
Added by Veerendra Jain on October 11, 2010 at 1:20pm —
2 Comments
दूर तुम हो पास अब तन्हाई है
ज़िंदगी किस मोड़ पर ले आई है
हुस्न वाले चैन छीने दर्द दें
अक्ल अब जा के ठिकाने आई है
काटनी होगी फसल तन्हाई की
पर्वतों सी हो गयी ये राई है
रात आधी चाँद पूरा नींद गुम
चोट दिल की भी उभर सी आई है
आजकल क्यूँ गुम से रहते हो बड़े
मुझसे पूछे रोज मेरी माई है
तुम न हो तो फ़िक्र करते सब मेरी
दोस्त पूछे, ध्यान रखता भाई है
दिल न लगता है किसी भी अब जगह
दिल लगाने की सज़ा यूँ पाई…
Continue
Added by vikas rana janumanu 'fikr' on October 11, 2010 at 1:00pm —
5 Comments
ज़माना याद रखे जो ,कभी ऐसा करो यारो .
अँधेरे को न तुम कोसो, अंधेरों से लड़ो यारो .
निशाने पे नज़र जिसकी ,जो धुन का हो बड़ा पक्का ;
'बटोही श्रमित हो न बात जाये जो ' बनो यारो .
जगत में भूख है ,तंगी - जहालत है जहां देखो ;
करो सर जोड़-कर चारा चलो झाडू बनो यारो .
रखे जो आग सीने में, जो मुख पे राग रखता हो ;
अगर कुछ भी नही तो राग दीपक तुम बनो यारो .
नदी भी धार बहती है,लहू भी धार बहती है ,
जो धारा प्रेम की लाये वो भागीरथ बनो यारो…
Continue
Added by DEEP ZIRVI on October 10, 2010 at 6:59pm —
5 Comments
खिलौना अपने दिल का हम तुम्हे फौरन दिला देते;
तुम्हे एस की जरूरत है;अगर तुम ये बता देते .
कभी इस से कहा तुम ने कभी उस से कहा तुम ने ;
मुझे अपना समझ क्र तुम कभी दिल की सुना देते .
deepzirvi@yahoo.co.in
Added by DEEP ZIRVI on October 10, 2010 at 6:55pm —
1 Comment
आदमी को ढूढने में खो गया है आदमी.
आँख है खुली मगर सो गया है आदमी.
खुद जला है रातदिन खुद मिटा है रातदिन ;
और खुद की खोज में ,लो गया है आदमी .
घर बना सका नही वो तमाम उम्र में ;
रात दिन बेशक कमाई को गया है आदमी.
एक दिल की दास्ताँ ये दास्ताँ नही सुनो;
दिल्लगी से दिल लगाई हो गया है आदमी.
दीप हर डगर जले ,हर नगर ख़ुशी पले;
बीज हसीन ख्वाब से बो रहा है आदमी
------------------------------------
Added by DEEP ZIRVI on October 10, 2010 at 6:30pm —
1 Comment
सूरजों की बस्ती थी, जुगनुओं का डेरा है ,
कल जहा उजाला था अब वहां अँधेरा है.
राह में कहाँ बहके, भटके थे कहाँ से हम ,
किस तरफ हैं जाते हम, किस तरफ बसेरा है.
आदमी न रहते हों बसते हों जहां पर बुत ,
वो किसी का हो तो हो, वो नगर न मेरा है.
रहबरों के कहने पर रहजनों ने लूटा है ,
रौशनी-मीनारों पे ही बसा अँधेरा है .
मछलियों की सेवा को जाल तक बिछाया है ,
आजकल समन्दर में गर्दिशों का डेरा है.
दीप को तो जलना है, दीप तो जलेगा ही…
Continue
Added by DEEP ZIRVI on October 10, 2010 at 6:30pm —
2 Comments
हाइकु मुक्तिका:
संजीव 'सलिल'
*
*
जग माटी का / एक खिलौना, फेंका / बिखरा-खोया.
फल सबने / चाहे पापों को नहीं / किसी ने ढोया.
*
गठरी लादे / संबंधों-अनुबंधों / की, थक-हारा.
मैं ढोता, चुप / रहा- किसी ने नहीं / मुझे क्यों ढोया?
*
करें भरोसा / किस पर कितना, / कौन बताये?
लूटे कलियाँ / बेरहमी से माली / भंवरा रोया..
*
राह किसी की / कहाँ देखता वक्त / नहीं रुकता.
साथ उसी का / देता चलता सदा / नहीं जो…
Continue
Added by sanjiv verma 'salil' on October 10, 2010 at 2:39pm —
6 Comments
मैं तो बस एक प्रतिभागी हूं.
वक्ता के समर्थन में
सिर हिलाना ही
मेरी नियति है.
संवाद बोलने को तरसता,
एक्सप्रेशन्स दर्शाने को लालायित,
मूव्मेंट्स करने को निषिद्ध,
किंकर्तव्यविमूढ़ सा,
अश्व की भाँति
सिर हिलाता,
मन ही मन
परमात्मा से विनती करता रहता हूं,
कि हे ईश्वर,
ये वक्तागण ख़ूब ग़लतियाँ करें.
ताकि मुझ 'एक्सट्रा कलाकार' की,
एक दिन की…
Continue
Added by moin shamsi on October 10, 2010 at 12:56pm —
No Comments
हमारा शक सही हो ऐसा अक्सर नहीं होता,
हर आदमी के हाँथ में पत्थर नहीं होता.
मेरे दुखों की बाबत मुझसे न पूछिए,
जो ज्वार को रोये वो समुन्दर नहीं होता.
मैं अपने घर के लोगों से मिलता हूँ उसी रोज,
जिस रोज मेरे घर मेरा दफ्तर नहीं होता.
सच बोलता हूँ मान न होने का गम नहीं,
नासूर कितने होते जो नश्तर नहीं होता.
कितने बरस से बन रही हैं योजनाएं पर,
लाखों हैं जिनके सर पर छप्पर नहीं होता.
गढ़ते हैं किले आपके कर पेट पीठ एक,
उनको…
Continue
Added by Abhinav Arun on October 10, 2010 at 10:00am —
2 Comments
याद जाने कहाँ खो गयी,
बात आयी गयी हो गयी .
दिन में हल मैं चलाता रहा,
रात में बीज वो बो गयी.
बंद थीं मछलियाँ जार में,
तितली पानी से पर धो गयी.
बाद मुद्दत के आयी खुशी ,
मेरे हालात पर रो गयी.
तुमने बच्ची को डाटा बहुत ,
लेके टेडी बीयर सो गयी.
उसकी यादों में खोया था मैं,
इसका तस्कीन कर वो गयी.
एक नौका नदी से मिली ,
और मंझधार में खो गयी.
माँ ने कुछ भी तो पूछा न था,
कैसे मन को मेरे टो…
Continue
Added by Abhinav Arun on October 10, 2010 at 10:00am —
1 Comment
उसकी हद उसको बताऊंगा ज़रूर,
बाण शब्दों के चलाऊंगा ज़रूर.
इस घुटन में सांस भी चलती नहीं,
सुरंग बारूदी लगाऊंगा ज़रूर.
यह व्यवस्था एक रूठी प्रेयसी,
सौत इसकी आज लाऊंगा ज़रूर.
सच के सारे धर्म काफिर हो गए,
झूठ का मक्का बनाऊंगा ज़रूर.
इस शहर में रोशनी कुछ तंग है,
इसलिए खुद को जलाऊंगा ज़रूर.
आस्था के यम नियम थोथे हुए,
रक्त की रिश्वत खिलाऊंगा ज़रूर.
आख़री इंसान क्यों मायूस है ,
आदमी का हक दिलाऊंगा…
Continue
Added by Abhinav Arun on October 10, 2010 at 9:30am —
2 Comments
जीवन... जीतें हैं लोग...
वही... जो, जैसा मिल जाता है उन्हें...
पर इस एक जीवन में... है एक और जीवन...
जिसे, अक्सर भूल जातें हैं हम...
वो है 'रंगों' का जीवन...
हर रंग एक जीवन खुद में...
हर जीवन एक रंग खुद में....
हर रंग की अपनी कहानी...
हर कहानी का अपना रंग...
खुशियाँ, उदासियाँ, उल्लास, विश्वास...
जीवन की तरह हर मोड़ है यहाँ...
हर खुशबू है, हर सपना है...
कभी उदासी में साथ…
Continue
Added by Julie on October 9, 2010 at 5:00pm —
10 Comments
चाँद घुटनों पे पड़ा था
अम्बर की किनारी पे
शब-ए-काकुल मे
तरेड़ पड़ गयी थी
चांदनी की .......
"जैसे तेरी कोरी मांग,
मैंने अभी भरी नहीं "
माँ ने अंजल भर के तारो से
चरण-अमृत छिड़का हो
सारा आसमान जैसे सजाया हो
आरती की थाली की मानिंद
तेरा गृह-प्रवेश करने के लिए ....... !
.. पर इतना बड़ा आसमान
कैसे मेरे छोटे से घर मे समाता .....
" अच्छा होता मैं घर ही न बनाता"
मैं घर ही न बनाता ...…
Continue
Added by vikas rana janumanu 'fikr' on October 9, 2010 at 3:30pm —
6 Comments
(सब से पहले यहीं पर प्रस्तुती कर रहा हूँ इस रचना की , आशीर्वाद दीजियेगा)
जलने दो मुझे जलने दो ,अपनी ही आग में जलने दो .
ये आग जलाई है में ने , मुझे अपनी आग में जलने दो .
तू मेरी चिंता मत करना ,ठंडी आहें भी मत भरना ;
मैं जलता था मैं जलता हूँ ,सम्पूर्णता को मचलता हूँ ,
मन मचल रहा है मचलने दो ;मुझे अपनी आग में जलने दो .
दाहक,दैहिक पावक न ये ,मानस तल का दावानल है,
ज्वाला मैं जन्म पिघलने दो ,मन को शोलों में ढलने दो
मुझे जलने दो…
Continue
Added by DEEP ZIRVI on October 9, 2010 at 3:00pm —
2 Comments
इन्तहा है, हमारे सब्र की,
न जाने कब ये खत्म होगी,
जाने कब जागेंगे, और कसेंगे पीठ अपनी,
कब सचेत होंगे,
कब रोकेंगे हम विध्वंस को|
क्यों हम कहते हैं की मान जाओ,
जबकि हम जानते है,
वो कहने से नहीं मानेंगे,
वो नहीं समझेंगे मानवता को|
हम अपने सामर्थ्य से रोक सकते हैं उन्हें,
फिर भी सब्र किये बैठे हैं|
बहुत बड़ी इन्तहा है हमारे सब्र की,
अनंत तो नहीं, पर उसकी ही ओर|
Added by आशीष यादव on October 9, 2010 at 9:30am —
14 Comments