Added by Ravi Prakash on December 5, 2013 at 3:30pm — 31 Comments
Added by Ravi Prakash on November 28, 2013 at 8:48pm — 15 Comments
Added by Ravi Prakash on November 6, 2013 at 7:11pm — 15 Comments
न बिजलियाँ जगा सकीं,
न बदलियाँ रुला सकीं।
अड़ी रहीं उदासियाँ,
न लोरियाँ सुला सकीं।
न यवनिका ज़रा हिली,
न ज़ुल्फ की घटा खिली।
उठे न पैर लाज के,
न रूप की छटा मिली।
जतन किए हज़ार पर,
न चाँद भूमि पे रुका।
अटल रहे सभी शिखर,
न आस्मान ही झुका।
चँवर कभी डुला सके,
न ढाल ही उठा सके।
चढ़ा के देखते रहे,
न तीर ही चला सके।
वहीं कपाट बंद थे,
जहाँ सदा यकीन था।
जिसे कहा था हमसफ़र,
वही तमाशबीन…
Added by Ravi Prakash on October 23, 2013 at 12:00pm — 37 Comments
Added by Ravi Prakash on October 17, 2013 at 7:50pm — 17 Comments
नगरी-नगरी
फूटी गगरी
लेकर पानी
पीना है।
मेरी छानी
गारा-मिट्टी
तेरा आँगन
भीना है।
रेशम-रेशम
तेरा आँचल
मेरा कुर्ता
झीना है।
शैल-शिखर सा
मस्तक तेरा
मेरा बोझिल
सीना है।
दुनिया,तूने
बीच भँवर में
आस-आसरा
छीना है।
अन्धकार में
आँखें फाड़े
जुगनू-जुगनू
बीना है।
खुली हथेली
ख़ाली बर्तन
फिर भी हमको
जीना है।
-मौलिक एवं अप्रकाशित।
Added by Ravi Prakash on October 7, 2013 at 4:30pm — 24 Comments
Added by Ravi Prakash on October 2, 2013 at 6:00pm — 26 Comments
Added by Ravi Prakash on September 30, 2013 at 1:12pm — 18 Comments
Added by Ravi Prakash on September 24, 2013 at 7:30am — 14 Comments
Added by Ravi Prakash on September 12, 2013 at 8:30am — 21 Comments
Added by Ravi Prakash on August 21, 2013 at 5:30am — 7 Comments
Added by Ravi Prakash on August 15, 2013 at 10:18pm — 7 Comments
Added by Ravi Prakash on August 11, 2013 at 9:00pm — 25 Comments
Added by Ravi Prakash on August 5, 2013 at 7:27pm — 13 Comments
प्रथम प्रयास
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1. बंजर हो धरती कितनी पर ये मन उर्वर देश वही है।
शूल गड़े दुखते तन में नित कातरता पर लेश नहीं है।
कौन मुझे समझे,परखे,उलझा अपना चिर वेश वही है।
कुंठित हो कर भी मुझमें कुछ धार अभी तक शेष कहीं है॥
2.
सादर है अधिकार तुम्हें तुम रूप-सुधा अविराम लुटाना।
तारक,हीरक या मणि-कांचन-मंडित जीवन पे इतराना।
यौवन की चिनगी दिखला कर प्रेम-हुताशन भी सुलगाना।
प्यास बुझे न नदी-जल से जब सागर के तट गागर लाना॥…
Added by Ravi Prakash on August 2, 2013 at 8:00am — 11 Comments
1.धार तू,मझधार तू,सफ़र तू ही,राह तू,
घाव तू,उपचार तू,तीर भी,शमशीर भी।
जाने कितने वेश है,दर्द कितने शेष हैं,
गा चुके दरवेश हैं,संत ,मुर्शिद,पीर भी।
ध्वंस किन्तु सृजन भी,भीड़ तू ही,विजन भी,
छंद है स्वच्छन्द किन्तु,गिरह भी,ज़ंजीर भी।
भाग्य से जिसको मिला,उसे भी रहता गिला,
पा तुझे बौरा गए,हाय,आलमगीर भी॥
2.डूब चले थे जिनमें,उनसे ही पार चले,
जिनमें थे हार चले,वो पल ही जीत बने।
कितने साँचों में ढले,सारे संकेत तुम्हारे,
कुछ ग़ज़लों…
Added by Ravi Prakash on July 29, 2013 at 8:00am — 9 Comments
मैंने बस धीरज माँगा था,तुमने ही अधिकार दिया;
कितने पत्थर रोज़ तराशे,फिर मुझको आकार दिया।
बादल,बरखा,बिजली,बूँदें,क्या कुछ मुझमें पाया था;
पथ-भूले को इक दिन तुमने,दिग्दर्शक बतलाया था।
लेकिन मेरे पथ पर चलना,श्रद्धा लाना शेष रहा।
धड़कन के दरबान बने तुम,मन तक आना शेष रहा॥
आशा को थकन नहीं होती,इच्छा को विश्राम कहाँ;
जब तक साँसों में उष्मा है,जीवन को आराम कहाँ।
कण-कण जमते हिमनद में भी,बाक़ी रहता ताप कहीं;
मनभावन आलिंगन में भी,छू जाता संताप…
Added by Ravi Prakash on July 27, 2013 at 5:30pm — 7 Comments
-एक दुधमुँहा प्रयास-
बहर -ऽ।ऽऽ ऽ।ऽऽ ऽ।ऽऽ ऽ।ऽ
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पाँव कीचड़ से सने हैं और मंज़िल दूर है।
शाम के साए घने हैं और मंज़िल दूर है॥
तुम मिलोगे फिर कहीं इस बात के इम्कान पे,
फास्ले सब रौंदने हैं और मंज़िल दूर है॥
कौन हो मुश्किलकुशा अब कौन चारागर बने,
घाव ख़ुद ही ढाँपने हैं और मंज़िल दूर है॥
कल बिछौना रात का सौगात भारी दे गया,
अब उजाले सामने हैं और मंज़िल दूर है॥
धड़कनें भी मापनी हैं थामनी कंदील भी,
रास्ते…
Added by Ravi Prakash on July 24, 2013 at 10:30pm — 14 Comments
अधिकार भरी मादकता से,दृष्टिपात हुआ होगा;
मन की अविचल जलती लौ पर,मृदु आघात हुआ होगा।
साँसों की समरसता में भी,आह कहीं फूटी होगी;
सूरज के सब संतापों से,चन्द्रकिरण छूटी होगी।
विभावरी ने आते-जाते,कोई बात सुनी होगी;
सपनों ने तंतुवाय हो कर,नूतन सेज बुनी होगी।
कितने पल थम जाते होंगे,बंसीवट की छाँव तले;
मौन महावर पिसता होगा,आकुलता के पाँव तले।
सन्ध्या का दीप कहीं बढ़ कर,भोरों तक आया होगा;
मस्तक का चंदन अनायास,अलकों तक छाया होगा।…
Added by Ravi Prakash on July 23, 2013 at 12:00pm — 7 Comments
वज़न-।ऽऽऽ ।ऽऽऽ ।ऽऽऽ ।ऽऽऽ
1. नहीं शिकवा नज़ारों से अगर नज़रें फिसल जाएँ,
भले ख़ामोश आहों में सुहाने पल निकल जाएँ।
तेरी मग़रूर चौखट पे नहीं मंज़ूर झुक जाना,
हमेशा का अकेलापन भले मुझ को निगल जाए॥
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2. तुम्हारे रूप की गागर न जाने कब ढुलक जाए,
चटख रंगीनियों में भी पुरानापन झलक जाए।
मगर मेरी मुहब्बत तो सदानीरा घटाएँ है,
वहीं अंकुर निकलते हैं जहाँ पानी छलक जाए॥
.
3. किसी जुम्बिश में धड़कन के अभी अहसास बाक़ी है,
अपरिचित आहटों में भी तेरा…
Added by Ravi Prakash on July 20, 2013 at 7:00am — 15 Comments
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