बहाव को रोकने के लिये किसी भी प्रकार के बंध या बंधन काम नहीं आ पा रहे थे। तेज बहाव के बीच एक टीले पर कुछ नौजवान अपनी-अपनी क्षमता और सोच अनुसार विभिन्न पोशाकें पहने, विभिन्न स्मार्ट फ़ोन, कैमरे और दूरबीनें लिए हुए बहती तेज धाराओं के थमने या थमाये जाने; बचाव दल के आने या बुलवाये जाने; नेताओं, मंत्री, यंत्री, धर्म-गुरुओं अथवा विशेषज्ञों के दख़ल करने या करवाने के भरोसे, प्रतीक्षा और शंका-कुशंकाओं के साथ माथापच्ची करते हुए एक-दूसरे के हाथ थामे खड़े हुए थे। कोई तटों की ओर देख रहा था, तो कोई आसमां की…
ContinueAdded by Sheikh Shahzad Usmani on April 15, 2019 at 9:31pm — 6 Comments
कई दिनों से टल रहा काम निबटा कर, थके-हारे मिर्ज़ा मासाब अपने अज़ीज़ दोस्त पंडित जी के साथ अपने घर वापस पहुंचे। अपनी नाराज़ बेगम साहिबा को कुछ इस अंदाज़ में देखने लगे कि बेगम का ग़ुस्सा फ़ुर्र से उड़ गया!
"क्या बात है पंडित जी! आज ये हमें इस तरह क्यूँ घूर रहे हैं!" कुछ शरमा कर मुस्कराते हुए बेगम ने अपने पल्लू की आड़ लेकर कहा।
"डाटा रिकवरी करवा कर आये हैं मिर्ज़ा जी के लेपटॉप की!" पंडित जी ने दोस्त का कंधा दबाते हुए कहा।
"अच्छा! वो तो बहुत बढ़िया किया आपने। बहुत…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 13, 2019 at 11:30pm — 5 Comments
कई दिनों देश-विदेश यात्राएं कर भिन्न-भिन्न परिस्थितियों और परिदृश्यों की साक्षी होने के बाद एक मशहूर पुस्तकालय का मुआयना करते हुए उन दोनों ने अपनी लम्बी चुप्पी यूं तोड़ ही दी :
"यह भी सभ्य लोगों का ही एक अड्डा है!"
"बाहर से इंसान कुछ भी दिखे, अंदर से तो प्राय: उसका चरित्र भद्दा है!" सभ्यता की बात पर असभ्यता ने कहा।
"संक्रमण-काल है! वैश्वीकरण में मिलावट का दौर है! स्वार्थी तकनीकी तरक़्क़ी का मुद्दा है!" एक आह भरते हुए सभ्यता ने कहा और पुस्तकालय में सलीके से…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 8, 2019 at 9:23pm — 7 Comments
सेल्फ़ी-स्टिक से ले डाली रे, कुल्फ़ी वाली सेल्फ़ी।
हेल्द़ी-स्टिक दो खा डालीं रे, हम सब दिखते हेल्द़ी।।
मम्मी-पापा को भी लाओ, सेल्फ़ी लेंगी मम्मी।
कुल्फ़ी सब जी भर के खाओ, मम्मी वाली कुल्फ़ी।।
सर्दी-ज़ुकाम से क्या डरना, गर्मी वाली सर्दी।
ज़ल्दी से अब और खिलादो, ठंडी कुल्फ़ी ज़ल्दी।।
सेल्फ़ी-स्टिक से ले डाली रे, मस्ती वाली सेल्फ़ी।
ले ली दादा-दादी वाली, सेल्फ़ी सुंदर ले ली।।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 8, 2019 at 3:00pm — 2 Comments
लो फिर से गर्मियों की छुट्टियां आ गईं। दो महीने पहले से परिवारजन और बच्चे इन छुट्टियों के सही व नये इस्तेमाल के बारे में अपनी-अपनी राय दे रहे थे। बच्चों की योजनाओं पर बड़ों की व्यस्तताओं और योजनाओं के कारण बच्चों के मन के फैसले नहीं हो पा रहे थे। आम चुनावों का भी माहौल चल रहा था। किसी के मम्मी-पापा किसी ज़िम्मेदारी में फंसे थे, तो किसी के किसी और काम में। बहरहाल इन छुट्टियों के एक-एक दिन का सही इस्तेमाल होना बहुत ज़रूरी था।
मुझे फुरसत देख घर के और पड़ोस के बच्चों ने मुझे यह…
ContinueAdded by Sheikh Shahzad Usmani on April 7, 2019 at 10:34am — 3 Comments
डियर संस्कार,
चौंक तो गये होगे! मोबाइल एप्स से, सोशल मीडिया पर या ऑनलाइन अपनी बात कहने के बजाय इस ख़त से ही अपने अंजाम से वाक़िफ़ करा रहा हूं तुम्हें। आख़िर तुमने ही तो सुसाइड के लिए मज़बूर कर दिया! ख़ूब घमंड था मुझे अपनी ऑनलाइन पढ़ाई पर! माडर्न अपडेटिड छात्र समझने लगा था मैं अपने आपको। स्कूल की पढ़ाई, ट्यूशनों की पढ़ाई और फिर सोशल मीडिया, मोबाइल गेम, आधुनिक दोस्त-यारी, फ़ोटो-वीडियोग्राफ़ी इन सब में मशगूल रहते हुए ऑनलाइन अपने हसीन करियर की हसीन रणनीति बनाया करता था मैं! रात भर…
ContinueAdded by Sheikh Shahzad Usmani on March 31, 2019 at 11:00am — 4 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on March 29, 2019 at 10:04pm — No Comments
तीनों प्यासे थे। अपनी-अपनी सामर्थ्य अनुसार वे पानी की तलाश कर चुके थे। मुश्किल से एक सुनसान जगह पर एक झुग्गी के द्वार के पास एक मटका उन्हें दिखाई दिया। बारी-बारी से तीनों ने उसमें झांका। फिर गर्दन झुकाकर एक दूसरे को उदास भाव से देखने लगे। मटके में पानी का तल काफी नीचे था।
बहुत ज़्यादा प्यासे कौए ने पुरानी लोककथा अनुसार काफी कंकड़-पत्थर चोंच से उठा-उठा कर मटके में डाल कर पानी का स्तर ऊपर लाने की कोशिश की, लेकिन उसे उस कथा की कल्पना की सच्चाई समझ में आ गई। थक कर वह बैठ…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on March 22, 2019 at 6:30pm — 6 Comments
आज होलिका दहन दिवस था। पहले से लिए गए फैसले के अनुसार अधिकतर लोग कोई न कोई सफ़ेद पोशाक पहन कर आये थे। होली अवकाश के पहले विद्यालय में छुट्टी होने के एक घंटे पूर्व परीक्षा मूल्यांकन कार्य के बीच स्टाफ को गुलाल से होली खेलने की अनुमति जैसे ही मिली महिला स्टाफ लायी हुई अपनी गुलाल की पुड़ियें खोलकर एक-दूसरे को तिलक कर गालों पर रंगीन गुलाल पोतने लगीं। एक-दो नौजवान पुरुष शिक्षक भी उनमें शामिल हो गये। शेष परीक्षा-मूल्यांकन कार्य में जुटे रहे। मोबाइल कैमरों से फ़ोटो, सेल्फ़ी व वीडियो का दौर भी शुरू…
ContinueAdded by Sheikh Shahzad Usmani on March 20, 2019 at 3:56pm — 9 Comments
अपने दिल के टुकड़े को अपने सीने से अचानक चिपटे देख उसने कहा -"स्वागत-अभिनंदन, ख़ैर-मक़्दम बहादुर, मेरे लख़्ते-जिगर!"
अपने ही भू-खंड पर पैराशूट समेत गिरा जवां पायलट सैनिक पहले तो भौंचक्का था, इस भ्रम में कि यह भू-खंड उसका अपना वाला है या पड़ोसी मुल्क द्वारा हथियाया हुआ! फ़िर जब उसने कुछ युवकों से पुष्टि करनी चाही, तो उनके जवाब सुन वह चौकन्ना हो गया। उसके ज़ख़्मी मुख से देशभक्ति के नारे समां में गूंज उठे।
"अभिनंदन मेरे अज़ीज़ शेर-ए-हिंद!" एक अजीब सी क़ैद से रिहा…
ContinueAdded by Sheikh Shahzad Usmani on March 3, 2019 at 8:11pm — 6 Comments
मिर्ज़ा मासाब को रिटायर होने में आठ-दस साल ही बाक़ी थे। परिवार के प्रति सारे फ़र्ज़ अदा कर चुके थे । एक बढ़िया सा मकान हो जाये और हज अदा हो जाये; बस यही आरजू रह गई थी। पैसों का इंतज़ाम तो हो गया। अब इस सदी में मुल्क के ऐसे हालात में इस बस्ती का पुराना घर बेचकर नये ज़माने का मकान कब, कहां व कैसे बनवाएं या बना बनाया ख़रीदें; बस यही उनके दिमाग़ में था। इसी सिलसिले में एक चर्चित सोसाइटी में वे अज़ीज़ दोस्त महफ़ूज़ का फ्लैट देखने पहुंचे। मुआयना किया। जानकरियां जमा कीं। सकारात्मक व नकारात्मक…
ContinueAdded by Sheikh Shahzad Usmani on March 3, 2019 at 2:30pm — 4 Comments
"न बाबा, तुम भले इसे बस्ता या स्कूल-बैग कह लो; लेकिन मेरी नज़र में यह बालक के कंधे पर समय का बोझ है! समय-चक्र की मार!" सड़क पर स्कूल से घर लौटते एक बालक के बोझिल झुके कंधे देखकर मिर्ज़ा जी ने अपने दोस्त राजवीर मासाब से कहा।
"भाईजान, समय के साथ हमें और विद्यार्थियों को चलना ही पड़ेगा। हमारे, उनके और मुल्क के हालात अपनी जगह और ज़माने के साथ हमारी लय-ताल अपनी जगह!"
"हा हा हा.. लय-ताल! ... या पाठ्यक्रमों का सुनियोजित बवाल! नई आयातित शिक्षण-पद्धतियों के सागर या सुर-ताल। न तैराक…
ContinueAdded by Sheikh Shahzad Usmani on February 18, 2019 at 8:00pm — 4 Comments
"तुम भी सिर्फ़ एक क़िताबी कीड़े ही हो! कभी तुमने अपनी सूरत आइने में देखी है? कभी किसी ने तुम्हारी सूरत पर कोई अच्छी सी टिप्पणी की है?"
"क्या मतलब?"
"मतलब यह कि न तो तुम्हारी सूरत देखकर मुझे ख़ुशी मिलती है, न ही तुम्हारी बातें सुनकर! तुम्हारे दिलो-दिमाग़ की सीमाएं नापी जा सकती हैं! तुम ज्ञानी ज़रूर हो, लेकिन तुम भी मेरे किसी काम के नहीं?"
"काम का कैसे नहीं हूं? बताओ क्या सुनना है मुझसे? कहानी, लघुकथा, कविता, इतिहास, नीति-शास्त्र, राजनीति या धर्म संबंधी?"
"वह सब तू…
ContinueAdded by Sheikh Shahzad Usmani on February 4, 2019 at 12:00am — 3 Comments
स्वार्थ बाधित
अहिंसा का अस्तित्व
पशुतावाद
**
हिंसा सिखाती
है स्वार्थलोलुपता-
वेदनाहीन
**
हिंसा की धाक
गांधीगीरी मज़ाक
व्यापारिकता
***
सह-अस्तित्व
हिंसा-आधुनिकता
धन-प्रभुत्व
**
लुप्त अस्तित्व…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on January 29, 2019 at 7:30pm — 5 Comments
कुछ हाइकु :
1-
तेजस्वी नेता
ख़ून दो, आज़ादी लो
सदी-आह्वान
2-
नेताजी बोस
तेईस जनवरी
क्रांति उद्भव
3-
सच्चाई, फ़र्ज़
जीवन-बलिदान
बोस-आह्वान
4-
शहीद-मौत
स्वतंत्रता-मार्ग
इच्छा-शक्ति से
5-
शक्ति-संचार
असली राष्ट्रवाद
बोस-चिंतन
6-
नेताजी बोस
सैनिक आध्यात्मिक
भक्ति…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on January 22, 2019 at 8:06pm — 4 Comments
वह नंगा हो चुका था। फिर भी इतरा रहा था। घमंड का भूत अब भी सवार था।
"आयेगा.. वह आयेगा, मेरी ही छत्रछाया में!" विदेशी धरती, देशी राजनीति, देशी-विदेशी उद्योग-जगत और देशी-विदेशी ग्लैमर-जगत की छतरियां बारी-बारी से अपने अनुभव आधारित दावे पेश करने लगीं।
"तुम सबने इसे नंगा तो कर ही दिया है! न ईमान रहा इसके पास, न ही धर्म! तन अंदर से खोखला कर लिया है इसने और मन.. मन का धन कर रहा है इसका!" उसके तन को सहारा देती रीढ़ की हड्डी के ऊपरी यानि कंधों वाले भाग पर बोझिल गठरी ने…
ContinueAdded by Sheikh Shahzad Usmani on January 20, 2019 at 11:00pm — 6 Comments
"क्या कर रहे हो, गुड्डू अब तुम यहां? तुमने नई डिक्शनरी की पैकिंग आज भी नहीं खोली! कब से पढ़ना शुरू करोगे, बेटे?"
"नहीं पापा, मैं नहीं पढ़ूंगा! मैंने दिल्ली में ही पिछले विश्व पुस्तक मेले में कह दिया था कि ख़रीदो, तो मेरे पक्के दोस्त के लिए भी ख़रीदो!"
"बेटे, मैंने वैसे भी पांच हज़ार रुपए की पुस्तकें ख़रीद लीं थीं, इसलिए केवल तुम भाई-बहन के लिए ही दो डिक्शनरियां ख़रीदीं थीं। वहां तुम्हारे लिए भी तो कुछ ख़रीदना था दिल्ली के बाज़ार से!"
"कुछ भी हो, मेरे दोस्त को बहुत बुरा लगा है।…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on January 6, 2019 at 8:52am — 3 Comments
1-
स्वागत देख
भौंचक्का नववर्ष
बीते को देख
2-
अद्भुत हर्षा
वर्ष विदाई-रात
दुआ की बात
3-
हे नववर्ष
दुआयें बरसाता!
स्वप्न दिखाता!
4-
ख़र्चीले दिन
आते-जाते वर्ष के
दो जश्नों के!
5-
सत्य, असत्य
आते-जाते वर्ष के
मिथ्या धूम के
(छद्म धूम के)
(धूम/जश्नों)
6-
है नेतागिरी…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on December 29, 2018 at 6:30pm — 5 Comments
पिछले महीने की ही बात है। गुड्डू को लेकर हम सभी सपरिवार अपने बच्चों के स्कूल में आयोजित 'फ़न-फ़ेअर' दिखाने ले गये। उसके दोनों बड़े भाई-बहन ने मेले में समोसे-पकोड़े की स्टॉल में सहभागिता की थी। बच्चों के प्रोत्साहन और टिकट-ड्रॉ की लालसा में हमने बीस टिकट पहले ही ख़रीद लिये थे, जो गुड्डू के ही पर्स में सुरक्षित रखे हुए थे।
"वाओ! कितना सुंदर गेट सज़ा है! हमारे स्कूल का फ़न-फ़ेअर देखते ही रह जाओगे आप लोग!" वह ऐसे बोला जैसे कि वह यह मेला पहले ही घूम चुका हो या बहुत जानकारी हासिल कर चुका हो।…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on December 23, 2018 at 5:30pm — 3 Comments
ट्रेन की बोगी में वह बालक न तो ख़ुश बैठा हुआ था और न ही दुखी। सजे-धजे किन्नरों से भरी बोगी में, पैसे गिनते हुए एक बुज़ुर्ग किन्नर को वह देख ही रहा था कि एक फेरी वाला मूंगफली बेचता हुआ वहां आया और दो-चार सवारियों को मूंगफलियां बेच कर,पैसे गिन कर उन्हें बाक़ी पैसे लौटाने लगा।
"अरे देखो, यह लंगड़ा और दोनों आंखों से अंधा है, फ़िर भी पैसों का सही हिसाब कर रहा है !" वह बालक बगल में बैठे उस किन्नर से बोल पड़ा, जो उसे समझा-बुझाकर उसके घर से अपने दल में शामिल करने के लिए लाया था उसके…
ContinueAdded by Sheikh Shahzad Usmani on December 3, 2018 at 4:00pm — 5 Comments
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2019
2018
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