1222 1222 1222 1222
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सिखाते क्यों हमें हो तुम वही इतिहास की बातें
दिलों में घोलकर नफरत नये विश्वास की बातें
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बताओ घर बनेगा क्या हमारा आसमानों में
जमीनें छीन के करते सदा आवास की बातें
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कहाँ से हो कठौती में हमारे गंग की धारा
बिठाई ना मनों में जब कभी रविदास की बातें
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बहाकर अश्क भी यारो कहाँ दुख दूर होते हैं
गमों से पार पाने को करो परिहास की…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 29, 2014 at 7:30am — 29 Comments
2122 2122 2122
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आदमी को आदमी से बैर इतना
भर रहा अब खुद में ही वो मैर इतना
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दुश्मनो की बात करनी व्यर्थ है यूँ
अब सहोदर ही लगे है गैर इतना
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चादरें छोटी मिली हैं किश्मतों की
इसलिए भी मत पसारो पैर इतना
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दे रहे आवाज हम हैं बेखबर तुम
कर रहे हो किस जहाँ में सैर इतना
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किस तरह आऊं बता तुझ तक अभी मैं
गाव! उलझन दे गया है नैर इतना
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झूठ होते हैं सियासत के …
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 24, 2014 at 8:30am — 20 Comments
1222 1222 1222 1222
किया माथे तिलक झट से कहा नाकाम भी मुझको
बहुत ठोका लुहारों सा दिया आराम भी मुझको
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गिरा तो भी समझ मेरी न आयी शातिरी उसकी
बिठाया पास भी अपने किया बदनाम भी मुझको
*
पता है साथ उसके तो न आया था कभी सूरज
जलाता क्यो न जाने फिर शरद का घाम भी मुझको
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हसाता चोट देकर भी बड़ा जालिम खुदा पाया
रूला देता न मरने का सुना पैगाम भी मुझको
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अजब सी रहमतें उसकी अजब ही सब…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 20, 2014 at 6:30am — 14 Comments
1222 1222 1222 1222
हमारे दुख दिखाई कब दिए हैं देवताओं को
हमेशा आँकते वो कम हमारी आपदाओं को
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मरें या जी रहे हों हम उन्हें पूजा करें हरदम
न जब भी पूज पाए हम निकल आए सजाओं को
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नहीं फिर भी हुए खुश वो भले ही सब किया अर्पण
गरल रख पास शिव जैसा सदा सौपा सुधाओं को
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पुकारा जब गया उनको दुखों से हो परेशा ढब
किया है अनसुना बरबस हमारी सब सदाओं को
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लगा करता जरूरी नित न जाने क्यों उन्हे…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 6, 2014 at 11:30am — 17 Comments
1222 1222 1222 1222
समझ लूँ मैं गुनाहों को भला अतवार1 से कैसे
मगर पूछूँ तरीका भी किसी अबरार2 से कैसे
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सभी की थी दुआएं तो जला जब भी यहाँ दीपक
मिटाया पर गया ना तब बता अनवार3 से कैसे
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हमेशा बोलता था तू नहीं रिश्ता रहा कोई
गले लगती बता कमसिन किसी अगियार4 से कैसे
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जुटा पाया न मैं साहस अना5 की बात कहने को
उलझ वो भी गई पूछे किसी अफगार6 से कैसे
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सदा लेते जनम वो तो गलत को ठीक करने…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 25, 2014 at 7:00am — 7 Comments
2122 2122 2122 212
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बचपने में चाँद को रोटी समझना भूल थी
कमसिनी में एक कमसिन से लिपटना भूल थी
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तात ने डाटा किताबें पढ़, मुहब्बत में न पड़
तात से इस बात पर मेरा झगड़ना भूल थी
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कोख में जब मात ने पाला न माना कुछ उसे
इक कली के द्वार पर माथा रगड़ना भूल थी
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मिट गया वो, पात ने कर ली हवा से प्रीत जब
बेखुदी में डाल से उसका बिछड़ना भूल थी
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लूटता इज्जत भ्रमर नित दोष उसको कौन…
ContinueAdded by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 18, 2014 at 7:30am — 11 Comments
2122 2122 2122 2122
राह में अवरोध जितने, ओ! जमाने तूँ लगा ले
है मुहब्बत चीज ऐसी, रास्ता फिर भी बना ले
हर जुनूँ कमतर है इसको, आग इसकी कौन रोके
आशिकी पीछे हटी कब, इम्तहाँ गर जो खुदा ले
कैश की हर पीर लैला, खीच लेती ओर अपनी
है मुहब्बत को बहुत कम, जुल्म जग जितने बढ़ा ले
इस मुहब्बत की बदौलत, शिव फिरे ले शव सती का
अंध देखे रंग दुनिया, नेह में जब मन रमा ले
खत्म …
ContinueAdded by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 14, 2014 at 7:00am — 13 Comments
2122 2122 2122
आँख में उनकी छिपा डर देख लेते
जल गये जो आप वो घर देख लेते
कर दिया अंधा सियासत ने सहज ही
आप वरना खूँ के मंजर देख लेते
क्यों किसी के आसरे पर आप बैठे
कुछ नया खुद आजमाकर देख लेते
बात करते हो बहुत तुम न्याय की जब
हाकिमों नित क्यों कटे सर देख लेते
खूब सुनते है तेरी जादूगरी की
आग पानी से जलाकर देख लेते
सोच लेता मैं कि जन्नत पा गया हूँ …
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 12, 2014 at 7:30am — 16 Comments
2122 2122 2122 2122
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दीप को जलना नहीं है भूल से भी द्वार मेरे
आप नाहक कोशिशें क्यों कर रहे हो यार मेरे
खून हाथों पर लगा है किन्तु कातिल मैं नहीं हूँ
फूल से अठखेलियों में चुभ गये थे खार मेरे
छा गया है आजकल जो इस मुहब्बत में कुहासा
क्या बताऊँ आपको मैं देवता बीमार मेरे
दीन में रखना मुझे क्यों आप फिर भी चाहते हो
मयकदे में भेज बदले जब सदा आचार …
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 6, 2014 at 8:00am — 8 Comments
1222 1222 1222 1222
मुहब्बत की नहीं उससे , वफा भी फिर निभाता क्या
खबर थी ये उसे भी जब , मुझे तोहमत लगाता क्या
सपन में रात भर था जो , उसे भी ले गया सूरज
मिला साथी मुझे भी है , जमाने फिर बताता क्या
जिसे डर हो सजाओं का, उसे यारों सताता डर
हुए पैदा सलीबों पर , बता डरता डराता क्या
न हो तू अब खफा ऐसे , रहा है भाग बंजारा
न था कोई ठिकाना जब, पता तुझको लिखाता क्या…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 2, 2014 at 7:00am — 11 Comments
तुम कोमल कमसिन लता नवीन और विजन में खड़ा विटप मैं ।
चाहो तो तुम आलिंगित हो, मेरा तरूण सन्नाटा तोड़ो ।।
वात झूमती चलती जब भी, मौन मेरा भी वाणी पाता ।
लेकिन इसका लाभ कहो क्या, कौन विजन में गुनने आता ।
भाग में मेरे लिखा दिवाकर, तरस तनिक जो कभी न खाता ।
तूफानों से हुआ जो नाता, गिरने का भय डँसता जाता ।
निभर्य स्नेहिल जीवन जी लूँगा, मुझसे यदि नाता जोड़ो ।
चाहो तो तुम आलिंगित हो, मेरा तरूण सन्नाटा तोड़ो ।।
मेरे सूने जीवन की…
ContinueAdded by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 26, 2014 at 8:46pm — 19 Comments
1222 1222 1222 1222
हमारी प्यास ले जाओ, जरा सूरज घटाओं तक
समय इतना नहीं बाकी, खबर भेजें हवाओं तक
तुम्हारी कोशिशें थी नित, यहाँ केवल दवाओं तक
हमारा भाग भा खोटा, न जा पाया दुआओं तक
कहाँ से भेजता रब भी, मदद को रहमतें अपनी
पहुचनें ही न पायी जब, सदा मेरी खलाओं तक
कहो तुम चाँद से इतना, सितारों रोशनी मकसद
रहा मत कर सदा इतना, सिमटकर तूँ कलाओं तक
सुना है हो गये हो अब, खुदा तुम भी मुहब्बत के
हमारी हद सहन तक ही,…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 23, 2014 at 7:30am — 12 Comments
आत्मकथन
जब जब बनाना चाहा
शब्दों को मिसरी
कुछ पूर्वाग्रह
घोल गये कड़ुवाहट
नहीं बना पाया मैं
खुद को मधुमक्खी
तब कैसे होते मधु
मेरे कहे गये शब्द
मैंने चाहा दिखना
बगुले सा धवल
तब कहां से आती
कोयल सी मधुरता
काक होकर भी
कहां निभा पाया
काक का धर्म
बस जमाये रखी
गिद्ध दृष्टि
हर जीवित-मृत पर
समझ सकते हैं आप
कितना तुच्छ जीव
बनकर रह गया हूं मैं…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 19, 2014 at 6:00am — 18 Comments
सभी सम्माननीय पाठकवृंदों को नववर्ष कि शुभकामनाओं सहित
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1222 / 1221 / 1212 / 1222
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सुबह उसकी महक लेकर , हवा मेला सजाती है,
उदासी जुल्फ से उसकी , चुरा के शाम लाती है
वो जब काँपती अंगुली , मेरी लट में फिराती है
यादे बूढ़ी माई की , वो फिर से मन जगाती है
पहुचता हूँ जो उस तक मैं , गुजरती साँझ बेला को
वो दिन भर की कथा…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 2, 2014 at 8:00am — 6 Comments
गरीब का पेट
बड़ा जालिम होता है
गरीब का पेट
नहीं देता देखने
सुन्दर-सुन्दर सपने
गरीबी के दिनों में
छीन लेता है वह
सपना देखने का हक
जब कभी
देखना चाहती है आंख
सुंदर सा सपना
मागने लगता है पेट
एक अदद सूखी रोटी
आंख ढूंढ ने लगती है तब
इधर उधर बिखरी जूठन
और फैल जाते हैं हाथ
मागने को निवाला
गरीबी के दिनों में
दूसरों के सम्मुख फैले हुए हाथ
सपना देखती आंख के
मददगार नहीं होते…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 25, 2013 at 6:30am — 10 Comments
हैं कपड़े साफ सुथरे से , पड़ा काँधे दुशाला है
शहर में भेडि़यों ने आ, बदल अब रूप डाला है
कहानी रोज पापों की, उघड़ कर सामने आती
किसी ने झूठ बोला था, ये दुनिया धर्मशाला है
समझ के आम जैसे ही, आमजन चूसे जाते नित
बनी ये सियासत अब, महज भ्रष्टों की खाला है
मथोगे गर मिलेगा नित, यहाँ अमृत भी पीने को
है सिन्धु सम जीवन, कहो मत विष का प्याला है
किया सुबह शाम झगड़ा , रखी वाणी में दुत्कारें
'मुसाफिर'…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 23, 2013 at 7:30am — 13 Comments
2112 2112 2112 112
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दाग चंदा को लगे हैं, सूरज का क्या गया
ढूँढ लेगा रात को वो, फिर से कोई घर नया
बादलों को थी मनाही , कैसे करते बारिसें
उसके सूखे दामनों पर, आँसुओं ने की दया
कौन बोले, किसको बोले, इस सियासत में बुरा
सब हमामों के चरित्तर, शेष किसमें है हया
बाज के थे सहायक चील , कौवे औ’ उलूक
फिर अकेली बाज से, कब तलक लड़ती बया
सोच…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 20, 2013 at 7:00am — 8 Comments
1221 1221 1221 121
हमेशा राह में नदियों, बिछे पत्थर नहीं होते
मिला वनवास जिनको हो, उनके घर नहीं होते
.
किसी से बावफा तो, किसी से बेवफा क्यों दिल
कभी इन सवालों के, कोई उत्तर नहीं होते
.
कभी चलके, कभी तर के, जहाँ घूम लेते हैं
परिन्दे जिनके उड़ने को, वदन पे पर नहीं होते
.
चला देते हैं झट खन्जर, नीदों में भी साये पे
ये ना समझो जहन में कातिलों के डर नहीं होते
.
गर जीना हो भोलापन, रहो भीड़ से…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 3, 2013 at 11:00am — 11 Comments
बताई बात मिलने की अगर तूँने जमाने को
बचेगा पास मेरे क्या बताओ फिर गँवाने को
न दिल को लगने पाएगा ये गम जुदाई का
तुम्हारी याद जो होगी हमें हँसने-हँसाने को
लगी सूंघने दुनिया तेरी खुशबू हवाओं में
लिखी जब गयी चिट्ठी किताबों में छुपाने को
किया फौलाद जैसा दुखों ने पालकर तन से
खुशी एक ही काफी हमें जी भर रूलाने को
गिरे अनमोल मोती जो सुख की कड़ी टूटी
सहेजे दामनों ने हैं नयन में फिर सजाने को…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 17, 2013 at 7:00am — 8 Comments
मिली जब से पनाहें सच, यहां इल्जाम को घर में
लिए बदनामी संग फिरते, छुपाकर नाम को घर में
बुलाकर नेह को रखो, यहां सम्मान से तुम नित
मगर भूले से भी मत देना, “शरण काम को घर में
निपट लेगा फिर वन में, अकेली ताड़का से तो वो
यहां सौ-सौ लंकेश बैठे हैं, बुलाओ राम को घर में
सुना है सबसे रखवाया, वचन बेटी की इज्जत का
मगर बोलो कि कब दोगे, इसी अंजाम को घर में
अभी तो साथ चलनी है, कर्ज में लिपटी हुर्इ सुबहें
भला फिर कैसे रोकें हम, धुआंती…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 5, 2013 at 6:00am — 7 Comments
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