माँझी मंजिल से पृथक डालो नहीं पड़ाव
भँवर भरे मझधार में क्यों उलझाते नाव?
क्यों उलझाते नाव, लहर पथ कहाँ उकेरे
उथल-पुथल संघर्ष, लाख चौरासी फेरे ,
एकल करो विमर्श! बात करनी क्या साँझी?
क्या होगा परिणाम, राह भटके जो माँझी?
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Added by Dr.Prachi Singh on January 18, 2015 at 10:24pm — 18 Comments
दीपक जलाओ
मैं जीवन रंगोली-रंगोली सजा लूँ
....चलो आज मैं भी दीवाली मना लूँ
माटी बनूँ ! रूँध लो, गूँथ लो तुम
युति चाक मढ़ दो, नवल रूप दो तुम
स्वर्णिम अगन से
जले प्राण बाती-
मैं स्वप्निल सितारे लिये जगमगा लूँ
....चलो आज मैं भी दीवाली मना लूँ
ओढूँ विभा सप्तरंगी…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on October 19, 2014 at 12:00pm — 12 Comments
प्रेम अगन करती सदा, चेतन का विस्तार
रोम-रोम तप भाव-तन, धरे नवल शृंगार
मैं-तुम भेद-विभेद हैं, मायावी मद भ्राम
द्वैत विलित अद्वैत सत, चिदानन्द अविराम
सूक्ष्म धार ले स्थूल तन, पराश्रव्य हो श्रव्य
गुह्य सहज प्रत्यक्ष हो, सधें नियत मंतव्य
डॉ० प्राची
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by Dr.Prachi Singh on October 16, 2014 at 11:00pm — 18 Comments
अचानक ही हो गयीं कुछ पंक्तियाँ....
बदरी के पहलू में
सूरज की अठखेली....
सूरज की साज़िश ने
लहरों की बंदिश से बूँद चुराकर,
प्रेम इबारत अम्बर पर लिख दी
सतरंगी पट ओढ़ाकर,
बूझ रही फिर भोर
प्रेम की नवल पहेली....
आतुर बदरी बेसुध चंचल
लटक मटक नभ मस्तक चूमे,
अंग-अंग सिहरन बिजली सी…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on July 18, 2014 at 7:30pm — 14 Comments
रे पथिक अविराम चलना पंथ पर तू श्रेय के
बहुगुणित कर कर्मपथ पर तन्तु सद्निर्मेय के
मन डिगाते छद्म लोभन जब खड़े हों सामने
दिग्भ्रमित हो चल न देना लोभनों को थामने
दे क्षणिक सुख फाँसते हों भव-भँवर में कर्म जो
मत उलझना! बस समझना! सन्निहित है मर्म जो
तोड़ना मन-आचरण से बंध भंगुर प्रेय के
रे पथिक अविराम चलना पंथ पर तू श्रेय के
श्रेष्ठ हो जो मार्ग राही वो सदा ही पथ्य है
हर घड़ी युतिवत निभाना जो मिला…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on July 9, 2014 at 12:26pm — 24 Comments
कभी यूँ भी हुआ है
कि
मन ही मन
उन्हें बुलाया
और वो दौड़े आये हैं...
मीलों के फासलों को झुठलाते,
मुलाकातों की सौगातें लिए,
दबे पाँव
नींदों में....
मुमकिन नहीं
जिन बीजों का पनपना भी,
उनकी खुशबू से
ख़्वाबों में महकती हैं
फिजाएं अक्सर....
और,
मैं मुस्कुराती हूँ ....
क्योंकि-
दिवास्वप्न
जिनकी मंजिल तक
कोई राह नहीं जाती
शुक्र…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on July 4, 2014 at 5:00pm — 14 Comments
अहसासों को
प्रज्ञ तुला पर कब तक तोलूँ
चुप रह जाऊँ
या अन्तः स्वर मुखरित बोलूँ
जटिल बहुत है
सत्य निरखना-
नयन झरोखा रूढ़ि मढ़ा है,
यद्यपि भावों की भाषा में
स्वर आवृति को खूब पढ़ा है
प्रति-ध्वनियों के
गुंजन पर इतराती डोलूँ
प्राण पगा स्वर
स्वप्न धुरी पर
नित्य जहाँ अनुभाव प्रखर है
क्षणभंगुरता - सत्य टीसता
सम्मोहन की ठाँव, मगर है
भाव भूमि…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on March 5, 2014 at 8:30pm — 32 Comments
क़दमों में दे बहकी थिरकन
महकी नम सी चंचल सिहरन
बाँहों भर ले, रच कर साजिश
क्या सखि साजन? न सखि बारिश
हर पल उसने साथ निभाया
संग चले बन कर हम साया
रंग रसिक नें उमर लजाई
क्या सखि साजन? न सखि डाई
चाहे मीठे चाहे खारे
राज़ पता हैं उसको सारे
खोल न डाले राज़, हाय री !
क्या सखि साजन? न सखि डायरी
उसने सारे बंध…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on February 21, 2014 at 6:00pm — 44 Comments
दायरा...
सोच का,
मन की उड़ान के
परिचित आसमान का,
अंतर्भावनाओं के विस्तार का,
अनुभूतियों के सुदूर क्षितिज का,
समयानुरूप
स्वतः विस्तारित हो, तो कैसे ?
तन मन बुद्धि अहंकार की
लोचदार चारदीवारी मैं कैद...
संकुचन के बल-प्रतिबल
से संघर्षरत,
होता क्लिष्ट से क्लिष्टतर
जटिल से दुर्भेद फिर अभेद
कर्कश कट्टर असह्य
आखिर
कौन सचेत, पहचानता है…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on February 11, 2014 at 1:00pm — 15 Comments
अनकही बातें धड़कतीं
मुस्कुराती
पल रही हैं.
थाम यादों की उँगलियाँ
स्वप्न जो
गुपचुप सजाये
शब्द आँखों में उफनते
क्या हुआ जो
खुल न पाये
भाव लहरें
तलहटी में
व्यक्त हो अविरल बही हैं.
रच गए जब
स्वप्न पट पर
नेह गाथा चित चितेरे
रंग फागुन से चुरा कर
कल्पनाओं में बिखेरे...
श्वास में
घुल कर बहीं जो
वो हवाएँ निस्पृही…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on February 4, 2014 at 9:30am — 23 Comments
विश्व विख्यात शोध संस्थान के पूर्व निदेशक प्रो० सुब्रह्मण्यम को रिटायरमेंट के बाद एकाकी जीवन जीते 15 साल हो चले थे. अनेक एवार्ड, शोध पत्र, सम्मान-पत्र, पुस्तकें यही कुछ उनकी जीवन भर की पूंजी थी. जब भी कोई शोध संस्थान किसी व्याख्यान के लिए आग्रह करता तो बहुत उत्साह से वैज्ञानिकों को दिशा निर्देशन देने के लिए अवश्य ही जाते थे.
ऐसे ही एक व्याख्यान में देश के कोने-कोने से आये चुनिन्दा युवा शोधार्थियों को संबोधित करते हुए व्याख्यान के बीच में अचानक एक दुर्लभ सी पुस्तक के बारे में…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on February 1, 2014 at 12:00am — 18 Comments
नत-मस्तक वंदन करूँ, हे प्रभु! प्राणाधार
तमस क्षरण कर ज्ञान का, प्रभु कीजै विस्तार
कर्म रती या रिक्त मन, हो सुमिरन अविराम
क्षणिक न विस्मृत उर करे, प्रभु तव शुचिकर नाम
नयन मूँद - अन्तः रमे, दर्शन - तव विस्तार
झंकृत वीणा तार पर, श्रव्य मधुर मल्हार
क्षणभंगुर जग बंध से, मुक्त रहे चैतन्य
नित्य पंक अस्पृष्ट है, ज्यों प्रसून जल-जन्य
प्राप्य प्रयोजन पूर्ण कर, हो विदीर्ण स्वयमेव
विरह मिलन भव मुक्त उर,…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on January 31, 2014 at 2:30pm — 18 Comments
नित्य प्रगति सोपान गढ़ें हम
वर्ष नवल शुभ मंगलमय हो ......
गत्य धुरी पर आगत नित नव
युग्म सतत, प्रति क्षण हो उत्सव,
सद्विचार सन्मार्ग नियामक
ऊर्ध्व करें मानवता मस्तक,
मिटे कलुषता का अँधियारा, हृदय ज्ञान से ज्योतिर्मय हो ......
नित्य प्रगति सोपान गढ़ें हम, वर्ष नवल शुभ मंगलमय हो ......
परिष्कार को प्रतिक्षण तत्पर
संकल्पित अभ्यास सतत कर,
नित्य ज्ञान हित सर्व समर्पित
क्षुद्र अहम् कर पूर्ण…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on December 31, 2013 at 11:30am — 43 Comments
1 2 2 1 2 2 1 2 2 1 2 2
कहा कब कि दुनिया ये ज़न्नत नहीं है
तुम्हे पा सकें ऐसी किस्मत नहीं है //1//
मोहब्बत को ज़ाहिर करें भी तो कैसे
पिघलने की हमको इजाज़त नहीं हैं //2//
तो वादों की जानिब कदम क्यों बढ़ाएं
निभाने की जब कोई सूरत नहीं है. //3//
बहुत सब्र है चाहतों में तुम्हारी
नज़र में ज़रा भी शरारत नहीं है //4//
सुलगती हुई आस हर बुझ गयी, पर
हमें आँधियों से…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on December 19, 2013 at 12:00am — 61 Comments
छंद त्रिभंगी
विधान : चार पद, दो दो पदों में सम्तुकांतता,
प्रति पद १०,८,८,६ पर यति,
पदांत में गुरु अनिवार्य
प्रत्येक पद के प्रथम दो चरणों में तुक मिलान
जगण निषिद्ध
यह जीवन मृण्मय , बंधन तृणमय , भास हिरण्मय , भरमाए
इन्द्रिय बहिगामी , कृत…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on December 7, 2013 at 10:10pm — 12 Comments
भाव भँवर को पार कर , अर्पण कर सर्वस्व
जड़ता जो चेतन करे , उसका चिर वर्चस्व // 1 //
संवेदन से हीन जो , भाव भक्ति से मुक्त
प्रस्तर सम वह जड़ हृदय , अहंकार से युक्त // 2 //
मूढ़ व्यक्ति के मौन में , परिलक्षित अज्ञान
संत जनों के मौन का , मूल तत्व निज ज्ञान // 3 //
सजग बुद्धि को दृष्ट है , चित्त वृत्ति का नृत्य
ज्ञान अगन तप वृत्ति का , सधता है हर कृत्य // 4 //
नहिं अनंत में वृद्धि है , नहिं अनंत का…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on December 5, 2013 at 3:00pm — 35 Comments
शब्द तरंगहीन
गहनतम
सान्द्रतम
और
निर्बाध उन्मुक्तता में अवस्थित
विलगता-विलयन के
सुलझे तारों पर स्पंदित
मन का अंतर्गुन्जन... / मदमस्त
जब चुन बैठे कोई स्वप्न
और
नियति
चरितार्थ करने को हो बाध्य !
तब,
विधि विधान…
Added by Dr.Prachi Singh on November 27, 2013 at 3:00pm — 34 Comments
वर्जना के टूटते
प्रतिबन्ध नें-
उन्मुक्त, भावों को किया जब,
खिल उठीं
अस्तित्व की कलियाँ
सुरभि चहुँ ओर फ़ैली,
मन विहँस गाने लगा मल्हार...
...फिर गूँजी फिजाएं …
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on November 21, 2013 at 4:30pm — 41 Comments
देश काल निमित्त की सीमाओं में जकड़े तुम
और तुम्हारे भीतर एक चिरमुक्त 'तुम'
-जिसे पहचानते हो तुम !
उस 'तुम' नें जीना चाहा है सदा
एक अभिन्न को-
खामोश मन मंथन की गहराइयों में
चिंतन की सर्वोच्च ऊचाइंयों में
पराचेतन की दिव्यता में.....
पूर्णत्वाकांक्षी तुम के आवरण में आबद्ध 'तुम'
क्या पहचान भी पाओगे
अभिन्न उन्मुक्त अव्यक्त को-
एक सदेह व्यक्त प्रारूप में......?
(मौलिक और…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on November 11, 2013 at 2:30pm — 39 Comments
हरिगीतिका छंद
हरिगीतिका हरिगीतिका हरिगीतिका हरिगीतिका (५, १२, १९, २६ वीं मात्रा लघु, अंत लघु गुरु) x ४
ब्रह्माण्ड सदृश विराटतम निःसीम यह विस्तार है
हर कर्म जिसमें घट रहा संतृप्त समयाधार है
सापेक्षता के पार है चिर समय की अवधारणा
सद्चेतना से युक्त मन करता वृहद…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on October 18, 2013 at 9:30pm — 17 Comments
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |