निराशा की ऊँची लहरों
और आशा के सपाट प्रवाह के बीच
मन हिचकोले खा रहा है
कभी निराशा अपने पाश में बाँध कर खींच ले जाये
कभी आशाएँ
मुझे ले जाकर किनारे पहुँचा दें
कभी सोचता हूँ
बह चलूँ लहरों के साथ
कभी लगे
बाहर आ जाऊँ इस गर्दिश से
ये किस मुकाम पर हूँ
ये कौन सा मोड़ है
पल-पल उठती रौशनी भी
भ्रमित कर दे कुछ देर को
कि रास्ता बदल लूँ
या चलता रहूँ
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by शिज्जु "शकूर" on July 17, 2014 at 1:02pm — 20 Comments
2122 1212 22/112
हो किसी बात पर यकीं यारो
हौसला दिल में अब नहीं यारो
इक दफ़ा शोरे इन्क़िलाब उठा
दब गई फिर सदा वहीं यारो
काफिले रौशनी के दूर हुए
छुप गया चाँद भी कहीं यारो
दिल सुलगता है मेरा रह-रह के
बैठे चुपचाप हमनशीं यारो
आबले पड़ गये हैं पैरों में
गर्म होने लगी ज़मीं यारो
आइने का बिगड़ता क्या लेकिन
तर हुई खूँ से ये ज़बीं यारो
मेरा महबूब बनके इस ग़म…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on July 15, 2014 at 4:24pm — 21 Comments
2122/ 2122/ 2122/ 212
इस ख़मोशी से कभी तो एक मुबहम शोर से
दिल धड़कने लगता है क्यूँ मेरा इतनी ज़ोर से
कौन सा है रास्ता महफूज़ जाऊँ किस तरफ़
आफ़तें तो आफ़तें हैं आयें चारों ओर से
एक झटके में बिखर जाते हैं रिश्ते टूटकर
इतना क्यूँ मुश्किल इन्हें है बाँधना इक डोर से
और कितने राज़ अँधेरा अब छुपा ही पाएगा
इक किरण उठने लगी आफ़ाक़ के उस छोर से
बेसदा टूटा है दिल मेरा ये हालत हो गई
आँसुओं के नाम पर…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on July 13, 2014 at 7:45pm — 17 Comments
22- 22- 22- 22- 22- 2
दिल को अब के शायद चैन मयस्सर हो
तेरी क़ुर्बत में जब दिन रात गुज़र हो
मेरी बातों का सीधा दिल पे असर हो
गर सुनने का इक तेरे पास हुनर हो
बरसें जब सर्द फुहारें रिमझिम-रिमझिम
क्या कहना क्या खूब सुहाना मंज़र हो
इक रौ में बहते हैं चश्मे तो भी क्या
बारिश सा बरसो तो ये आलम तर हो
मज़्मून लगे जैसे हो इक आईना
तुम एक सुखनवर हो या शीशागर हो
सन्नाटे में कोई…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on July 10, 2014 at 10:00am — 13 Comments
2122- 2122- 2122- 212
नक्श भी कोई नहीं औ' रास्ता कोई नहीं
है सफ़र में काफ़िला पर रहनुमा कोई नहीं
भीड़ चेहरे सिर्फ़ कहने के लिये मौजूद हैं
घूम के देखा मगर मुझको मिला कोई नहीं
आशनाई बस ज़रूरत की है रिश्ते नाम के
इनका अब जज़्बात से ही वास्ता कोई नहीं
नफ़रतों के ज़ह्र में डूबी ज़बाँ के तीर का
आदमीयत है निशाना दूसरा कोई नहीं
सिर्फ़ बातों से बहल जायें यहाँ कुछ लोग तो
सच सुने कोई नहीं सच देखता…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on July 8, 2014 at 4:34pm — 25 Comments
2122 1122 22
बिजलियाँ हैं न हवा सावन में
गुज़री बेआब घटा सावन में
गर्म रातें ये सहर भी बेचैन
यूँ बुरा हाल हुआ सावन में
गुल खिले हैं न शिगूफ़े हँसते
है न रंगों का पता सावन में
खेत तालाब शजर भी सूखे
आसमाँ सूख गया सावन में
मुन्तज़िर सर्द फुहारों के अब
थक गई है ये फ़िज़ा सावन में
याद आती है हवा की ठण्डक
सब्ज़रंगी वो रिदा सावन में
मुन्तज़िर= इन्तज़ार…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on July 2, 2014 at 8:11am — 16 Comments
221 2121 1221 212
ताज़ा लहू के सुर्ख़ निशाँ छोड़ आया हूँ
हर गाम एक किस्सा रवाँ छोड़ आया हूँ
वो रोज़ था, मुझे न मयस्सर ज़मीं हुई
ये हाल है कि अब मैं जहाँ छोड़ आया हूँ
परदेस में लगे न मेरा मन किसी तरह
बच्चों के पास मैं दिलो-जाँ छोड़ आया हूँ
उड़ती हुई वो ख़ाक हवाओं में सिम्त-सिम्त
जलता हुआ दयार धुआँ छोड़ आया हूँ दयार= मकान
मौजूदगी को मेरी तरसते थे रास्ते
चलते हुये उन्हें…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on June 29, 2014 at 11:59am — 24 Comments
1212 1122 1212 22
हुई न खत्म मेरी दास्ताने ग़म यारो
हरेक लफ़्ज़ अभी अश्क़ से है नम यारो
है ज़िन्दगी तो यहाँ मुश्किलात भी होंगी
चलो जियें इसे हर सांस दम ब दम यारो
इधर चराग का जलना उधर हवा की रौ
ये मेरा ज़ोरे जिगर और वो सितम यारो
लिबास ही से न होगा कभी नुमायाँ सच
सफ़ेदपोश तो लगते हैं मुह्तरम यारो
रहा न बस कोई तहरीर पर किसी का अब
चलाना भूल गईं उँगलियाँ क़लम यारो
मैं रफ़्ता-…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on June 23, 2014 at 10:13am — 21 Comments
2122/ 2122/ 212
ये नुमायाँ है किसे क्या चाहिये
बेख़िरद को सिर्फ़ चेहरा चाहिये बेख़िरद =कम अक्ल
हो गया है ताज़िरों का ये वतन ताज़िर=व्यापारी
खुश हुये वो जिनको वादा चाहिये
बच तो आयें लहरों से अहले जिगर
बस उन्हें कोई किनारा चाहिये
तख़्त पर जिसने बिठाया उनका कर्ज़
जानो दिल से अब चुकाना चाहिये
आप भी हँस लीजिये इस बात पर
झूठे को अब काम सच्चा…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on June 17, 2014 at 9:59pm — 23 Comments
2122/ 2122/ 212
मेरा ग़म लगता है हमसाया मुझे
जीने का फन ग़म ने सिखलाया मुझे
ये हवा मेरे मुताबिक तो नहीं
कौन तेरे शह्र में लाया मुझे
मुश्किलों में सिर्फ मेरी जाँ नहीं
खौफ़ में हर इक नज़र आया मुझे
हौसला, हिम्मत, दुआएँ, दोस्ती
तज़्रिबे ने बख़्शा सरमाया मुझे
धूप की शिद्दत बहुत थी राह में
माँ के आँचल से मिली छाया मुझे
कौन सा मैं रंग दूँ तुझको ग़ज़ल
ज़ीस्त के रंगों ने…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on June 15, 2014 at 8:00am — 6 Comments
2122 1212 22/112
मुल्क़ में किस्सा इक नया तो हो
अब अज़ीयत की इंतिहा तो हो अज़ीयत =यातना
ग़म से किसको मिली नजात यहाँ
मर्ज़ कहते हो फिर दवा तो हो
जी उठेगा फिर अपनी राख से पर
वो मुकम्मल अभी जला तो हो
दीनो-ईमाँ की बात करते हैं
हो हरम दिल में बुतकदा तो हो हरम =मस्जिद, बुतकदा =मंदिर
ज़ह्र अपनी ज़बान से छूकर
कह रहे हैं कि तज़्रिबा तो…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on June 4, 2014 at 9:32pm — 24 Comments
212 1222 212 1222
हर अदा, हवाओं की शोखियाँ समझती हैं
बेखबर नहीं सबकुछ पत्तियाँ समझती हैं
थरथराने लगती हैं इक ज़रा छुअन से ही
बागबाँ है या भँवरे डालियाँ समझती हैं
दर्द कितना है कैसा लग रहा है मुझको ये
मेरे ज़ख़्म से लिपटी पट्टियाँ समझती हैं
आजकल निगाहों को क्या हुआ ज़माने की
तज़्रिबे को चेहरे की झुर्रियाँ समझती हैं
हसरतें हदों को ही भूलने लगी हैं आज
फिक्र को बड़ों की वो बेड़ियाँ…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on May 27, 2014 at 4:00pm — 18 Comments
तोड़ धैर्य के बाँध को, उफन गया सैलाब।
कुछ से उम्मीदें बढ़ीं, कुछ के टूटे ख़्वाब।।
लाँघी सीमा क्रोध की, ऐसा क्या आक्रोश।
भला बुरा सोचा नहीं, अंधा सारा जोश।।
श्रम भी काम न आ सका, काम न आया अर्थ।
बुरे कर्म की कालिमा, यत्न हुआ सब व्यर्थ।।
राग द्वेष का हो मुखर, जिनके मुख से राग।
शक्ति उन्हें मिल ही गई, जो-जो उगलें आग।।
ज्यों बिल्ली के भाग से, छींका फूटा आज।
दण्ड एक को यों मिला, दूजा पाये…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on May 20, 2014 at 11:40pm — 30 Comments
फौलाद भी
चोट से आकार बदल लेते हैं
या टूट जाते हैं
फिर इंसान की क्या बिसात
कब तक सहेगा चोट
आखिर टूटना पड़ेगा
इंसान ही तो है
मगर
टूटकर भी कायम रहेगा
या बिखर जायेगा
ये इंसान की प्रकृति तय करेगी
हालात बदलने को तैयार है
पुरानी सड़क पर
डामर की नई परत बिछेंगी
खण्डरों का जीर्णोद्धार होगा
पुरानी इमारत के मलबे पड़े हैं
कुछ मलबे काम आयेंगे
कुछ मलबे मिटाये जायेंगे
ये…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on May 15, 2014 at 6:08pm — 36 Comments
1222/ 1222/ 1222/ 1222
यूँ ही सोचा ज़माने की रविश भी जान ली जाये
पसे तस्वीर सूरत किसकी है पहचान ली जाये पसे तस्वीर= तस्वीर के पीछे
ज़रा देखूँ कि सच कितना है तेरे इन दिखावो में
चलो कुछ देर को तेरी कही भी मान ली जाये
कभी तो आप अपने तज़्रिबे से तौलें सच्चाई
ज़रूरी तो नहीं है हाथ में मीज़ान ली जाये मीज़ान =तराजू
नहीं लगती मुझे अनुकूल मौसम की तबीयत क्यूँ
बरस जायें न…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on May 3, 2014 at 12:30pm — 23 Comments
2122 1122 22
ज़ोर तूफ़ान का चल जाने दो
मुझको लहरों पे निकल जाने दो
है मुख़ालिफ़ कि हवाओं का रूख
ठहरो कुछ देर सँभल जाने दो
फिर न दिल में कोई रह जाये मलाल
इक दफा दिल को मचल जाने दो
मोजज़ा हो न हो उम्मीदें हों मोजज़ा =चमत्कार
जी किसी तरह बहल जाने दो
आग आखिर ये बुझेगी तो ज़रूर
डर इसी आग में जल जाने दो
बूंद जायेगी कहाँ तक देखूँ
गिर के…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on April 27, 2014 at 10:00am — 21 Comments
2122/ 2122/ 2122/ 212
उँगलियों पर हो निशाँ आँखों में पर पट्टी नहीं
मुल्क की जम्हूरियत बस इंतिखाबी ही नहीं
है यही मौका कि बदलें देश की तक़दीर हम
ये न फिर कहना पड़े उम्मीद ही बाकी नहीं
हाल क्या होगा हमारा गर्म होगी जब धरा
होगा आँखों में समंदर पर कहीं पानी नहीं
गिर पड़ा वो आखरी पत्ता शजर से टूट के
अब रही कोई बहारों की निशानी भी नहीं
सूख जायेगा चमन होगी हवा में आग सी
फूल होगा याद में…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on April 20, 2014 at 9:35am — 18 Comments
उसे मजदूरी में जितने रूपये मिले थे उसकी रोटियाँ खरीदी और खाने के बाद दो रोटियाँ बचा ली, उसने सोचा कल पता नहीं काम मिले या नहीं, इतने में उसकी नज़र एक बच्चे पर पड़ी वो उन रोटियो की तरफ कातर दृष्टि से देख रहा था। उसे दया आ गई, उसने रोटियाँ उस बच्चे को दे दी।
उधर - एक आम मध्यमवर्गीय परिवार में शादी थी मेहमानों के चले जाने के बाद काफी खाना बच गया था इतना कि कम से कम 20 भूखे पेट भर सकते थे। मेजबान से पूछा गया इस खाने का क्या करें ? ……………?
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by शिज्जु "शकूर" on April 5, 2014 at 8:30pm — 14 Comments
2122- 2122- 2122- 212
रात थी लेकिन अँधेरा उतना भी गहरा न था
सब दिखाई दे गया आँखो में जो पर्दा न था
झूठ की बुनियाद पर कोई महल बनता नहीं
झूठ आखिर झूठ है उसको तो सच होना न था
शोर था सारे जहाँ में इक लहर की बात थी
कोई दा'वा उस लहर का अस्ल में सच्चा न था
कहने को तो साथ मेरे कारवाँ था लोग थे
मैं वही था हाँ मगर वो दौर पहले सा न था
ये सफर गुज़रा बड़े आराम से तो अब तलक
आखिरश रुकना पड़ा मुझको कि…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on April 2, 2014 at 7:32pm — 28 Comments
1222- 1222- 1222
मुसीबत साथ आई हमसफर की तरह
लगे है धूप भी अब राहबर की तरह
सहे जाता हूँ मौसम की अज़ीयत मैं अज़ीयत =यातना
बियाबाँ मे किसी उजड़े शजर की तरह
झुलसने लगता है मन सुब्ह उठते ही
हुये दिन गर्मियों की दोपहर की तरह
घुटन होने लगी है इन हवाओं मे
जहाँ लगने लगा है बन्द घर की तरह
हिसारे ग़म से बाहर लाये कोई तो हिसारे ग़म= ग़म का घेरा
मुसल्सल…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on March 31, 2014 at 8:08am — 29 Comments
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