आदरनीय वीनस भाई जी की एक गज़ल की ज़मीन पर कहने की एक कोशिश
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22 22 22 22 22 2
दुश्मन को महमान बनाये बैठे हैं
गुलशन को वीरान बनाये बैठे हैं
सिर्फ जीतने की ख़्वाहिश है जिनकी , वो
गद्दारों को जान बनाये बैठे हैं
इंसानी कौमें हैं खुद पे शर्मिन्दा
ऐसों को इंसान बनाये बैठे हैं
जिस्म काटने की चाहत में भारत का
दिल में पाकिस्तान…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on January 19, 2016 at 8:00am — 21 Comments
१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
बहर - हज़ज़ मुसमन सालिम
न पूछोगे, सतायेंगी तुम्हें रुसवाइयाँ कब तक
अगर तुम जान लो पीछे चली परछाइयाँ कब तक
हैं उनकी कोशिशें तहज़ीब को बेशर्मियाँ बाटें
मुझे है फ़िक्र झेलेंगे अभी बेशर्मियाँ कब तक
ज़रा सा गौर फरमायें कसाफत है ये नदियों की ( कसाफत - गंदगी )
“समन्दर पर उठाओगे बताओ उँगलियाँ कब तक ”
शराफत की कबा कब तक बताओ बुजदिली ओढ़े
सहन करता रहेगा मुल्क ये शैतानियाँ कब…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on January 18, 2016 at 8:07am — 20 Comments
1222 1222 1222
बजाहिर जो लगे हैं ग़मगुसार अपना
छिपा लाये हैं फूलों में वो ख़ार अपना
बहुत गर्मी यहाँ मौसम ने दी हमको
जिधर ग़ुज़रे उधर बांटे बुखार अपना
जो लूटे हैं वो वापस क्या हमें देंगे
चलो हम ही कहीं खोजें करार अपना
ज़रा रुकना, उन्हें गाली तो दे आयें
नहीं अच्छा रहे बाक़ी उधार अपना
बुढ़ापा बोलता तो है , सहारा ले
मगर अब भी उठाता हूँ,मैं भार अपना
मै सीरत…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on January 12, 2016 at 7:30am — 19 Comments
2122 1212 22 /112
क्या नहीं ये अजीब हसरत है ?
ग़म किसी का किसी की राहत है
ख़ाक में हम मिलाना चाहें जिसे
उनको ही सारी बादशाहत है
रोटी कपड़ा मकान में फँसकर
बुजदिली, हो चुकी शराफत है
हर्फ करते हैं प्यार की बातें
आँखें कहतीं हैं, तुमसे नफरत है
मुज़रिमों को मिले कई इनआम
आज मजलूम की ये क़िस्मत है
बेरहम क़ातिलों को मौत मिली
सेक्युलर कह रहे , शहादत है
हाँ,…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on December 24, 2015 at 10:30am — 30 Comments
कैच जिसके उछाला गया है , उसे लेने दो भाई
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बाल , नो बाल थी
इसलिये पूरे दम से मारा था शाट
मेरे बल्ले का शाट
थर्ड मैन सीमा रेखा के पार जाने के लिये था
अगर बाल लपक न ली जाती तो
अफसोस इस बात का नहीं है बाल लपक ली गई
दुख इस बात का है, कि
मेरे बहुत करीब खड़े , स्लिप और गली के फिल्डर दौड़ पड़े
ये जानते हुये भी , ये कैच उनका नही है
आपस मे टकराये , गिरे पड़े , घायल…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on December 7, 2015 at 7:30am — 8 Comments
नीम तले ही खेलें
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कहाँ छाया खोजते हो तुम भी
बबूलों के जंगलों में
केवल कांटे ही बिछे होंगे ,
नुकीले , धारदार
सारी ज़मीन में
काट डालें
जला ड़ालें उसे
उनके पास है भी क्या देने के लिये
सिवाय कांटों के
चुभन और दर्द के
कुछ अनचाही परेशानियों के
होंगी कुछ खासियतें ,
बबूलों में भी
पर इतनी भी नहीं कि लगायें जायें
बबूलों के जंगल
नीम में उससे भी…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on December 6, 2015 at 8:00pm — 3 Comments
1222 1222 122
हथेली खून से जो तर हुई थी
न जाने क्यूँ यहाँ रहबर हुई थी
जो सच जाना उसे सहना कठिन था
ज़बाँ तो इसलिये बाहर हुई थी
कि उनके नाम में धोखा छिपा है
समझ धीरे सहीं , घर घर हुई थी
वही इक बात जो थी प्रश्न हमको
वही आगे बढ़ी , उत्तर हुई थी
निकाले जब गये सब ओहदों से
ज़मीं बस उस समय बेहतर हुई थी
कहीं पंडित मरे, टूटे थे मन्दिर
कहो कब आँख किसकी तर हुई थी…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on December 4, 2015 at 8:02am — 19 Comments
आस्तीन मे छुपे सांप
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किसी हद तक सच भी है
आपका कहना
चलो मान लिया
आस्तीन मे छुपे सांप
हमारी रक्षा के लिये होते हैं
और हमे काट के या डस के अभ्यास करते हैं
ताकि हमारा कोई दुश्मन हमपे वार करें
तो ,
हमें ही काट के किया गया अभ्यास काम आये
अब सोचिये न
क्या दुशमनी हो सकती है हमारे से ?
उस चूहे की
जो हमारे ही घर मे रह के
हमारे ही अन्न जल मे पलके बड़ा होता है …
Added by गिरिराज भंडारी on November 28, 2015 at 10:22am — 5 Comments
सच है
कि, प्रकृति स्वयं जीवों के विकास के क्रम में
जीवों की शारिरिक और मानससिक बनावट में
आवश्यकता अनुसार , कुछ परिवर्तन स्वयं करती है
चाहे ये परिवर्तन करोड़ों वर्षों में हो
इसी क्रम में हम बनमानुष से मानुष बने …..
लेकिन ये भी सच है कि,
मानव कुछ परिवर्तन स्वयँ भी कर सकते हैं
अगर चाहें तो
और फिर हमारा देश तो आस्था और विश्वास का देश है
जहाँ यूँ ही कुछ चमत्कार घट जाना मामूली बात है
मै तो इसे मानता हूँ ,…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on November 25, 2015 at 7:00am — 7 Comments
Added by गिरिराज भंडारी on November 19, 2015 at 9:47am — 9 Comments
22 22 22 22 22 22
कोई दीप जलाओ, कि अँधेरा यहाँ न हो ।
कभी रोशनी की बात चले तो गुमाँ न हो ।।
जो शय बढ़ा दे दूरियां उसको खुदी कहें ।
हर हाल में कोशिश रहे, ये दरमियां न हो ।।
है फ़िक्र ये कि पंछी उड़ें किस फलक पे अब।
ऐसा भी ख़ौफ़नाक कोई आसमाँ न हो ।।
उजड़ीं है कई आंधियों में बस्तियां मगर ।
जैसे ये घर उजड़ गया, कोई मकाँ न हो ।।
मंज़िल से जा मिले जो कभी राह तो मिले।
रस्तों…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on November 17, 2015 at 7:30am — 13 Comments
1222 1222 1222 1222
कहो कुछ तो समझ के भी जताते और ही कुछ हैं
अदीबों की ज़ुबाँ में कुछ , इरादे और ही कुछ हैं
रवादारी हो , रस्में या कोई हो मज़हबी बातें
अलग ऐलान करते हैं, सिखाते और ही कुछ हैं
उन्हें मालूम है सच झूठ का अंतर मगर फिर भी
दबा कर हर ख़बर सच्ची , दिखाते और ही कुछ हैं
जो क़समें दोस्ती की रोज़ खाते हैं, बिना…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on November 8, 2015 at 9:49am — 16 Comments
221 2121 1221 212
शब्दों की ओट में छिपे मक्कार हैं बहुत
बाक़ी, अना को बेच के लाचार हैं बहुत
किसने कहा कि बज़्म में रहना है आपको
जायें ! रहें जहाँ पे तलबगार हैं बहुत
अपनी भी महफिलों की कमी मानता हूँ मैं
है फर्ज़ में कमी, दिये अधिकार हैं बहुत
समझें नहीं, कि अस्लहे सारे ख़तम हुये
अस्लाह ख़ाने में मेरे हथियार हैं बहुत
नफरत जता के हमसे, जो दुश्मन से जा मिले
वे भी…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on November 5, 2015 at 8:00am — 46 Comments
वो ममता मयी छुवन हो
जो माँ की कोख से निकलते ही मिली
या हो उसी गोद की जीवन दायनी हरारत
या
तुम्हारी उंगलियों को थामे ,
चलना सिखाते
पिता की मज़बूत, ज़िम्मेदार हथेली हो
या हो
जमाने की भाग दौड़ से दूर , निश्चिंत
कलुषहीन हृदय से
धमा चौकड़ी मचाते , गिरते गिराते , खेलते कूदते
बच्चे
या फिर स्कूलों कालेजों की किशोरा वस्था की निर्दोष मौज मस्तियाँ
या हो वो जवानी में पारिवारिक , सामाजिक ज़िम्मेदारियों…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on October 25, 2015 at 1:48pm — 14 Comments
1222 1222 1222 1222
बहलने की जिन्हें आदत, बहलना छोड़ देंगे क्या
तेरे वादों की गलियों में, टहलना छोड़ देंगे क्या
तू आँखें लाल कर सूरज, ये हक़ तेरा अगर है तो
तेरी गर्मी से डर, बाहर निकलना छोड़ देंगे क्या
कहो आकाश से जा कर, ज़रा सा और ऊपर हो
हमारा कद है ऊँचा तो , उछलना छोड़ देंगे क्या
दिया जज़्बा ख़ुदा ने जब कभी तो ज़ोर मारेगा
तेरी सुहबत में ऐ पत्थर, पिघलना छोड़ देंगे क्या
ये सूरज चाँद…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on October 18, 2015 at 10:44am — 16 Comments
1222 1222 122
बहुत बेकार सा चर्चा रहा हूँ
मैं सच हूँ, आँख का कचरा रहा हूँ
बहा हूँ मै सड़क पर बेवजह भी
लहू इंसाँ का हूँ , सस्ता रहा हूँ
जो समझा वो सदा नम ही रहा फिर
मै आँसू ! आँखों से बहता रहा हूँ
महज़ इक बूँद समझा तिश्नगी ने
भँवर के वास्ते तिनका रहा हूँ
जलादूँ एक तो बाती किसी की
इसी उम्मीद में दहका रहा हूँ
मुझे मानी न पूछें ज़िन्दगी का
अभी…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on October 4, 2015 at 10:43am — 28 Comments
1212 1122 1212 22 /112
तेरे खतों में रहा यूँ तो रंगो बू शामिल
मगर मज़ा ही कहाँ है अगर न तू शामिल
मुझे अधूरी किसी चीज़ की नहीं हाजत
मेरी हयात में हो जा तू हू ब हू शामिल
बिन आरज़ू भी कभी ज़िन्दगी कटी है कहीं
तू कर ले ज़िन्दगी में मेरी आरजू शामिल
किसी की याद भी तनहाइयों का दरमाँ है
किसी की याद की कर ले तू ज़ुस्तजू शामिल
झिझक नहीं , न जमाने…
Added by गिरिराज भंडारी on September 28, 2015 at 5:00am — 19 Comments
2122 2122 212
खुशनुमाँ से अवसरों के वास्ते
आसमाँ तो हो परों के वास्ते
मै तो आईना लिये फिरता हूँ अब
आइनों से पत्थरों के वास्ते
अब तो दीवारें गिरायें यार हम
गिर रहे हैं उन घरों के वास्ते
थोड़ी अकड़न भी अता करना ख़ुदा
बे सबब झुकते सरों के वास्ते
कुछ बहाने और हैं, ले जाइये
आदतन से कायरों के वास्ते
मैं हक़ीकत बाँध के लाया हूँ आज
कुछ छिपे अंदर डरों के…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on September 23, 2015 at 6:49am — 15 Comments
2122 2122 2122
एक दिन आ कर तुम्हें भी हम हँसायें
यदि हमारे बहते आँसू मान जायें
क्यों समय केवल उदासी बांटता है ?
क्या समय के पास बस हैं वेदनायें
जानकारी ठीक है ,पर ये भी सच है
ज्ञान की अति खा रही है भावनायें
इस तरफ है पेट की ऐंठन सदी से
उस तरफ़ है भूख पर होतीं सभायें
बात में बारूद शामिल है उधर की
हम कबूतर शांति के कैसे उड़ायें ?
अब धरा को छू रहा है सर…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on September 15, 2015 at 9:33am — 43 Comments
2122 1212 112/22
ज़ख़्म सूखे निशान छोड़ गये
जैसे अपना बयान छोड़ गये
लौट के यूँ गये मेरे दिल से
मानो ख़ाली मकान छोड़ गये
सारी खुश्बू हवायें ले के गईं
ये भी सच है कि भान छोड़ गये
राग खुशियों के छिन्न भिन्न किये
मित्र, ग़मगीन तान छोड़ गये
उड़ गये जब परिंदे बाग़ों से
पीछे सब सून सान छोड़ गये
हाले दिल क्या बयान कर पाते ?
हम से कुछ बे ज़ुबान छोड़ गये
खुद चढ़ाई चढ़े…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on September 3, 2015 at 10:54am — 26 Comments
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