2122 2122 212
कनखियों से एक वादा फिर हुआ
हाँ, मुहब्बत का तकाजा फिर हुआ
हम तो समझे थे बहारें आ गयीं
मौत का सामान ताजा फिर हुआ
उल्फतें बढ़ती रहीं यह देखकर
इश्क का दुश्मन ज़माना फिर हुआ
रास बर्बादी मेरी आयी उन्हें
बाद मुद्दत मुस्कराना फिर हुआ
लौट आयेंगे सुना था एक दिन
किन्तु जीते जी न आना फिर हुआ
रूह रुखसत हो वहां उनसे मिली
और मंजर आशिकाना फिर…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 8, 2016 at 6:30pm — 22 Comments
कब वीरों की दग्ध चिता पर कब समाधि पर आओगे
कब सुख से सूखे लोचन पर करुणा के घन लाओगे
काले मन से कब छूटेगा
मोह श्वेत परिधानों का
कब तक आलंबन पाओगे
व्योम प्रवृत्त विमानों का
कब तक शोणित की सरिता में तुम निर्विघ्न नहाओगे
नश्वर देह सुरक्षित कितना
रक्षक के समुदायों से
दंभ भरा अस्तित्व बचेगा
कब तक कठिन उपायों से
मन के उजले संकेतों को कब तक तुम झुठलाओगे
झूठा नाटक कब तक मरने
वालों पर…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 30, 2016 at 7:07pm — 14 Comments
‘बेटा जो नयी वैकेंसी निकली थी, तुमने फार्म डाल दिया ?’- पिता के चेहरे पर खुशी थी . उनके हाथ में एक मोबाईल था .
‘नहीं पापा, मैं कोई फॉर्म नहीं डालूँगा . आपके कहने पर पहले कितने फार्म भर चुका हूँ , कितने इक्जाम दिए, पर कोई नतीजा निकला ?’
‘बेटा तकदीर को कोई नहीं जानता --------?’
‘बेकार की बाते हैं पापा, नौकरी किस्मत से नहीं योग्यता से मिलती है एक्स्ट्रा आर्डिनरी बच्चों को नौकरी की कमी नहीं , पर जो बच्चे सामान्य हैं वे क्या करें, सरकार के पास उनके लिए कोई व्यवस्था…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 13, 2016 at 3:30pm — 5 Comments
शिद्दत की प्यास-----
‘बेटा ----‘
वृद्ध-बीमार पिता ने पुकारा
कोई उत्तर नहीं आया
‘बेटा श्रवण -----‘
पिता ने फिर पुकारा
फिर कोई उत्तर नहीं आया
‘बहू ------ ‘
वृद्ध ने विकल्प तलाशना चाहा
कोई हलचल नहीं हुयी
वृद्ध ने एक और प्रयास करना चाहा
पर खुश्क गले से
नहीं निकल पायी आवाज
उसने कोशिश की स्वयं उठने की
बूढ़े पांवों में नहीं थी
शरीर का बोझ उठाने की ताकत
वह लड़खड़ा कर…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 11, 2016 at 3:46pm — 5 Comments
221 1222 221 1222
तू यार बसा मन में दिलदार बसा मन में
हद छोड़ हुआ अनहद विस्तार सजा मन में
आकाश सितारों में जग ढूँढ रहा तुझको
तू मेघप्रिया बनकर है कौंध रहा मन में
झंकार रही पायल स्वर वेणु प्रवाहित है
आभास हृदय करता है रास रचा मन में
तू कृष्ण हुआ प्रियतम वृषभानु कुमारी मैं
तन काँप उठा मेरा अभिसार हुआ मन मे
आवेश भरा विद्युत है धार प्रखर उसकी
आलोक स्वतः बिखरा जब तार छुआ मन…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 30, 2016 at 8:00pm — 10 Comments
एक तू ही थी
जो बचपन में
अपने जोड़े पैसों से
मुझे खिलाती थी
मेरी मनपसंद चीज
और झूठ बोलकर मुझे
बचाती थी पिता के प्यार से
फिर एक दिन तू उड़ गयी
कही दूर किसी अजानी जगह
और फिर बनाया उसे
अपनी कर्म भूमि
आजीवन पूजती रही बट-वृक्ष
और सींचती रही अपने लगाये पौधे
बिताया अपना सारा जीवन
पत्रों से भेजती रही
मेरे लिए राखी
मैं बाँध लेता था उन्हें
आँखें नम हो जाती थे स्वतः
पर आज…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 18, 2016 at 3:32pm — 8 Comments
कुण्डलिया
हुलसी माँ की गोद में सुन्दर सुत अभिराम
जन्म समय जिसने किया उच्चारण श्री राम
उच्चारण श्री राम रामबोला कहलाया
सुख से था वैराग्य कष्ट जीवन भर पाया
कहते हैं ‘गोपाल’ बना तृण से वह तुलसी
जितना रहा अभाव भक्ति उतनी ही हुलसी
मनहर घनाक्षरी
किया रचना विचार भाषा में प्रथम बार
बह चली रस-धार भाव और भक्ति की
देख कविता का रंग विदुष समाज दंग
हुई…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 14, 2016 at 3:26pm — 4 Comments
Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 30, 2016 at 5:32pm — 5 Comments
फ़ाइलुन मुफ़ाईलुन फ़ाइलुन मुफ़ाईलुन
212 1222 212 1222
जिन्दगी में कुछ लम्हे बेमिसाल तो आये
ख्वाब में खयालों में कुछ सवाल तो आये
बेखुदी में हैं अब भी, काश होश आ जाता
माँ को अपने बच्चे का कुछ खयाल तो आये
रूप में उधर चांदी , इश्क में इधर सोना
रोशनी बहुत होगी कुछ उछाल तो आये
फूल खूबसूरत है, है नहीं मगर खुशबू
हुस्न तो नुमायाँ है बोल-चाल तो आये
यूँ तो खून बहता है आदमी की धमनी…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 1, 2016 at 4:00pm — 13 Comments
1212 212 122 1212 212 122
कभी हुयी थी निसार आंखे कभी बहारे हयात आई
नहीं दिखा फिर मुझे सवेरा सदैव हिस्से में रात आई
बहुत बटोरे थे स्वप्न आतुर बहुत सजाये थे ख़्वाब मैंने
मेरी मुहब्बत मेरी जिदगी विदा हुयी तब बरात आयी
घना तिमिर था न रश्मि कोई न सूझ पड़ता था पंथ मुझको
बिना रुके ही मैं अग्रसर था निदान मंजिल हठात आई
मुझे स्वयं पर रहा भरोसा नहीं जुटाये अनेक साधन
मुझे बनाने मुझे सजाने कभी-कभी…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 26, 2016 at 5:00pm — 12 Comments
बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222 1222
ग़ज़ल
सड़क पर बजबजाते चीखते नारों से क्या होगा
हवा में फुस्स हो जायें जो, गुब्बारों से क्या होगा ?
लडाई है बहुत बाकी बहुत कुछ कर गुजरना है
नही है हौसला दिल में तो नक्कारों से क्या होगा ?
जिन्हें हमने अता की है, हकूमत देश की यारों
उन्ही में बदगुमानी है तो उद्गारों से क्या होगा ?
पड़े है एक कोने…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 15, 2016 at 8:39am — 18 Comments
सारा देश दहशत में था .भारत के सर्वाधिक सम्मानित नेता देश के सुरक्षा संबंधी गुप्त दस्तावेज दुश्मन देश को सौंपते हुए कैमरे में कैद कर लिए गये थे . मीडिया में देश के खिलाफ इस प्रकार के षड्यंत्र में नेता जी के लिप्त होने को लेकर गरमागरम बहस चालू थी . जिस टी वी चैनल ने यह स्ट्रिंग आपरेशन किया था , वह बार-बार उन दृश्यों को जनता के सामने परोस रहा था .या सीधे -सीधे देश-द्रोह का मामला था अनेक चैनेल इस विषय पर सीधे नेता जी से सम्पर्क कर उनकी ज़ुबानी सारा सत्य उगलवाना चाहते थे . नेता जी इन सब…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 12, 2016 at 6:42pm — 5 Comments
बहरे मुजतस मुसमन मख़बून महज़ूफ
मुफ़ाइलुन फ़इलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन
1212 1122 1212 22
कहाँ गए थे यूँ ही छोड़कर मुझे तनहा
बिना तुम्हारे मुझे ये जहां लगे तनहा
कभी-कभी तो बहुत काटता अकेलापन
मगर न भूल कि पैदा सभी हुये तनहा
तमाम उम्र जो बर्दाश्त है किया हमने
समझ वही सकता जो कभी जिये तनहा
मगर न फिर कभी वो बात रात आ पायी
है याद आज भी वो शाम जब मिले तनहा
बिखर ही…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 9, 2016 at 6:30pm — 10 Comments
Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 4, 2016 at 4:22pm — 1 Comment
ठाकुर सरकार, माफ़ कर दें . मेरी बिटिया अभी नासमझ है .तीन दिन से चूल्हा नहीं जला सरकार .’
‘क्यों चूल्हे को क्या हुआ ?’
‘सरकार, उनका पुलिस चोरी के शक में पकड़ ले गयी , वही कुछ कमा कर लाते थे, घर् में कुछ था ही नहीं तो चूल्हा कैसे जलता?’
‘और---- तेरी बिटिया ने भी तो चोरी ही की है , तुम सब घर भर चोर हो तो माफी कैसी ?’
‘नहीं सरकार, उन्होंने चोरी नहीं की, पुलिस साबित नहीं कर पायी ‘
‘मगर तुम्हारी बेटी तो चोरी करती पकड़ी गयी .’
’हाँ सरकार मगर-----‘
‘अब…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 18, 2016 at 9:30pm — 28 Comments
2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2 2 2 2 2 1
फाईलातुन फाईलातुन फाईलातुन मफऊलात
कट गए जंगल सभी कैसे रहे विवरों में नाग
इसलिए सब भाग कर अब आ गए नगरों में नाग
चारपाई पर नहीं चढ़ते थे जो पहले कभी
अब वही बेख़ौफ़ होकर घूमते शहरों में नाग
अब बचाकर जान देखो भागता है आदमी
फन उठाये मिल रहे हैं हर कही डगरों में नाग
हो सके तो बाज आओ प्यार से इनके बचो
कौन जाने दंश…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 10, 2016 at 1:00pm — 3 Comments
स्नेह का दीप चाहे विजन में जले किन्तु जलता रहे यह् बढे ना कभी
जो हृदय शून्य था मृत्तिका पात्र सा
नेह से आह ! किसने तरल कर दिया ?
जल उठी कामना की स्वतः वर्तिका
शिव ने कंठस्थ फिर से गरल कर लिया
अश्रु के फूल हों नैन-थाली सजे स्वप्न के देवता पर चढ़े ना कभी
आ बसी मूर्ति जब इस हृदय-कोश में
पूत-पावन वपुष यह उसी क्षण हुआ
रच गया एक मंदिर मुखर प्रेम का
साधना से विहित दिव्य प्रांगण हुआ
फूल ही सर्वथा एक शृंगार हो,…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 5, 2016 at 9:39pm — 2 Comments
स्नेह का दीप चाहे विजन में जले किन्तु जलता रहे यह् बढे न कभी
जो हृदय शून्य था मृत्तिका पात्र सा
नेह से आह ! किसने तरल कर दिया ?
जल उठी कामना की स्वतः वर्तिका
शिव ने कंठस्थ फिर से गरल कर लिया
अश्रु के फूल हों नैन-थाली सजे स्वप्न के देवता पर चढ़े न कभी
आ बसी मूर्ति जब इस हृदय-कोश में
पूत-पावन वपुष यह उसी क्षण हुआ
रच गया एक मंदिर मुखर प्रेम का
साधना से विहित दिव्य प्रांगण हुआ
फूल ही सर्वथा एक शृंगार हो,…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 5, 2016 at 8:45pm — 1 Comment
नव गीत उसने यूँ ही कहा गीत रचता हूँ मैं आप हैं कि मुझे आजमाने लगे
यह हुनर तो मिला है मुझे जन्म से मांजने में इसे पर जमाने लगे
गीत रचना हँसी- खेल सा कुछ नहीं
यह सभी को मिला शाश्वत दंड सा
टूटता है ह्रदय जब सुमन-दंश से
तब महकता है नव-गीत श्रीखंड सा
ताप तुमने विरह का सहा ही नहीं प्रेम का ग्रन्थ मुझको थमाने लगे
नेह की भावना में प्रखर भक्ति हो
एक पूजा उदय हो उदय शक्ति हो
प्यार-व्यापार हो कामना से रहित
ज्योति सी…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 1, 2016 at 8:58pm — 13 Comments
धूसरित था मलिन-मुख हम स्वच्छ दर्पण कर रहे
झूठ को अपना लिया हर सत्य से अब डर रहे
अवधान तुमने किया था
हमने उसे माना नहीं
पाखण्ड यौवन का सदा
उद्दाम था जाना नही
पत्र अब इस विटप-वपु के सब समय से झर रहे
चेतना या समझ आती
है मगर कुछ देर से
बच नहीं पाता मनुज
दिक्-काल के अंधेर से
जो किया पर्यंत जीवन अब उसी को भर रहे
हम अकेले ही नहीं
संतप्त है इस भाव में
जल रहा है अखिल…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 22, 2016 at 7:50pm — 12 Comments
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