विद्रोहिणी सी बन गयी थी मैं
मेरी कुंठा और संत्रास
कैसे पनपे
नहीं जान पाई मै
और कितना असत्य था
उनका दुराग्रह
यह तब मैं न जानती थी
सच पूछो तो
नहीं चाह्ती थी जानना भी
कोई समझाता यदि
तो आग लग जाती वपुष में
अरि सा लगता वह
पर कोई देता यदि प्रोत्साहन
मुझे उस गलत दिशा में जाने का
तो वह लगता सगा सा
हितैषी और शुभेच्छु
संसार का सबसे प्रिय जीव
क्योंकि तब थी मैं
उसके प्यार…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 7, 2016 at 8:13pm — 3 Comments
छंद – वंशस्थ विलं
जगण तगण जगण रगण
121 221 121 212
जहाँ मनीषी प्रमुदा रहें सभी
जहां सुभाषी मधुरा प्रमत्त हों
जहां सुधा हो सरसा प्रवाहिता
वहां सदा है अनुराग राजता
उदार सारल्य स्वभाव में बसे
रहे मुदा निश्छलता नवीनता
सुकांति में हो कमनीयता घनी
वहां सदा है अनुराग राजता
वियोग में भी हिय की समीपता
नितांत तोषी मनसा समर्पिता
जहाँ शुभांगी पुरुषार्थ रक्षिता
वहां सदा है अनुराग…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 3, 2016 at 9:30pm — 2 Comments
वह समय था
जब हम जाते थे माँ के साथ
नीरव-विजन मंदिर में
देव-विग्रह के समक्ष
सांध्य-दीप जलाने
क्रम से आती थी गाँव की
अन्य महिलाएं
मिलता था तोष
एक अनिवर्चनीय सुख
जबकि नहीं देते थे भगवान्
कुछ भी प्रत्यक्षतः
सिर्फ रहते थे मौन
आज वही विग्रह
करते है अवगाहन रात भर
ट्यूब–लाइट की दूधिया रोशनी मे
नहीं आती अब वहां ग्राम की बधूटियां
पर उपचार, देव-कार्य करते हैं
एक उद्विग्न कम उम्र के…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 27, 2016 at 11:04am — 1 Comment
कुछ भी
अनुपयोगी नहीं है
उसके लिए
सभी पर है
उसकी निगाहें
गहन कूड़े से भी
बीन और लेता है छीन
वह
प्राप्य अपना
जो है जगद्व्यव्हार में
वह भी
और जो नहीं है वह भी
बीन लेगा एक दिन वह
पेड़ –पौधे, नदी=-पर्वत
और पृथ्वी
यहां तक की जायेगा ले
सूरज गगन, नीहार, तारे
चन्द्र भी
ब्रह्माण्ड के सारे समुच्चय
लोग कहते हैं प्रलय
कहते रहे
किन्तु तय है
बीन…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 14, 2016 at 7:22pm — 4 Comments
संध्या के बाद पूर्व ऊषा तक जो निशि भाग चुना मैंने I
उस शब्द-हीन सन्नाटे में ईश्वर का राग सुना मैंने II
पुच्छल तारे की थी वीणा
शशि-कर के तार सजीले थे
उँगलियाँ चलाता था मारुत
रजनीले लोचन गीले थे
सरगम संगीत प्रवाहित था अपना प्रतिभाग गुना मैंने I
संध्या के बाद पूर्व ऊषा ---------------------------------
मुखरित होता है मौन कभी
नीरवता में भी रव होता
धरती…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 6, 2016 at 2:54pm — 8 Comments
(आदरणीय सौरभ पाण्डेय के पितृ-शोक पर एक हार्दिक संवेदना )
पहले संदर्भ प्रसंग सहित इस जगती में परिभाषित कर
फिर हो जाते हैं हाथ दूर जीवन का दीप प्रकाशित कर
.
देते हैं वे सन्देश हमें
हर दीपक को बुझ जाना है
पर ज्योति-शेष रहते-रहते
शत-शत नव दीप जलाना है
फैलायी जो रेशमी रश्मि उसको अब रंग-विलासित कर
पहले संदर्भ प्रसंग सहित......
.
है सहज रोप देना पादप
तप है उसको जीवित रखना
करना…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 21, 2016 at 10:00pm — 4 Comments
भाषा क्या है ?
चेतन प्राणियों में
वैचारिक अभिव्यक्ति का साधन
भाषा होती होगी
पशु-पक्षियों की भी
बस उसे हम समझते नहीं
जैसे विश्व की तमाम भाषाये
बाहर है
ह्मारी समझ की परिधि से
पर भाषा महत्वपूर्ण इसलिए नहीं है
कि उससे मनोभावों की तरह ही
संप्रेषित होते है विचार
भाषा का महत्त्व और उसकी ताकत
लोक मानस के बीच का वह राग भी है
वह अंतर्संबंध भी है
जिसका जन्म होता है उसी भाषा से
जिससे होता…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 10, 2016 at 12:33pm — 3 Comments
मैं हूँ शिखा
उस टिमटिमाते दीप की
कि जिसको है
हवा का शाश्वत भय
चुप क्यों खडा है तब
आ मार निर्दय !
मार खाने को बनी हैं
नारियां सुकुमारियाँ
मैं कांपती हूँ निरंतर
शिखा जो हूँ
प्रज्वलित उस दीप की
(मौलिक अप्रकाशित )
Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 2, 2016 at 6:09pm — No Comments
उस दिन जब हम मिले थे
पहली बार
हम चुप रहे
या यूँ कहो बोल ही न सके
और फिर यूँ ही मिलते रहे
तब तक
जब तक तुमने शुरु नही किया
बोलना
हालांकि मैं
बोल न सकी फिर भी
अधर थरथराये जरूर
पर खोल न सकी मुख
पर तुमने जब शुरू किया
तो जाने कहाँ से
शब्दों का समंदर उमड़ पड़ा
और मैं
उसके घात-प्रतिघात के बीच
खाती रहे हिचकोले
मंत्र-मुग्ध, आतुर, विह्वल
मैं जानती…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 30, 2015 at 4:37pm — 4 Comments
निन्यानबे के फेर में
हूँ मैं
लोग देखते है मुझे
ईर्ष्या से या हिकारत से
क्योंकि वे जानते हैं
केवल और केवल एक मुहावरा
मानव की कमजोर वृत्ति का
धन संचय की उत्कट प्रवृत्ति का
उन्हें यह पता ही नहीं कि
मुहावरे के पीछे होता है
कोई चिरंतन सत्य या एक इतिहास
और बहुत सारे मायने
वे सोचते भी नहीं
कि निन्यानबे वे वैशिष्ट्य भी हैं
जिनके आधार पर उस ऊपर वाले के है
निन्यानबे…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 26, 2015 at 12:00pm — 8 Comments
आदम फितरत है
भई
राम ने आसन्न -प्रसूता
को छोड़ दिया वन में
जीने, भटकने या मरने
भला हो वाल्मीकि का --- I
और कुछ ऐसा ही किया
कृष्ण ने राधा के साथ
छोड़ दिया निराश्रित
जीने, भटकने या मरने I
सीता का अंत तो जानते है सभी
इसी माटी में दफ़न हुयी थी कभी
पर राधा ------?
कब तक तकती रही राह ?
भेजती रही पाती और सन्देश
फिर कहाँ गयी वह ?
कैसे हुआ उसका अंत ?
किसी ने भी याद नही रखा
लानत…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 16, 2015 at 7:19pm — 2 Comments
सूने आंगन में जाल बिछा चांदनी रात सोयी रोकर
मेरी अभिलाषा जाग रही रागायित हो पागल होकर
मैं समय काटता रहा विकल
दायें-बायें करवटें बदल
घिर आये मानस-अम्बर पर
स्वर्णिम सपनीले बादल-दल
बौराया घूम रहा मारुत अपनी सब शीतलता खोकर
सपनो में चल घुटनों के बल
सरिता तट पर आया था जब
कह डाला कुछ मन की मैंने
वह बज्र प्रहार हुआ था तब
सायक सा टूटा था अंतस निर्दयता की खाकर ठोकर
यह नाग आँख में है अविरल
छोड़ता निरंतर…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 10, 2015 at 8:30pm — 5 Comments
हाँ, तुम बंट गए उस दिन कबीर
अहो कबीर !
कही पढा था या सुना
तम्हारी मृत्यु पर
लडे थे हिन्दू और मुसलमान
जिनको तुमने
जिन्दगी भर लगाई फटकार
वे तुम्हारी मृत्यु पर भी
नहीं आये बाज
और एक
तुम्हारी मृत देह को जलाने
तथा दूसरा दफनाने
की जिद करता रहा
और तुम
कफ़न के आवरण में बिद्ध
जार-जार रोते इस मानव प्रवृत्ति पर
अंततः हारकर मरने के बाद…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 28, 2015 at 6:00pm — 24 Comments
पौरुष ने उठाया हाथ
सहनशीलता ने
कर तो लिया बर्दाश्त
पर चेहरा विकृत हुआ
अधर काँपे
आँखे पनिआयी
झट वह चौके में चली गयी
बेटी दौड़ी-दौड़ी आयी
क्या हुआ माँ ?
कैसी आवाज आयी ?
और यह क्या तू रोती है ?
नहीं बेटी, ये लकड़ियाँ ज़रा गीली है
धुंआ बहुत देती है
आँख में गडता है, पानी निकलता है
बेटी ने कहा – ‘ माँ !
गीली लकड़ी का
तुमसे क्या सम्बन्ध है ?
माँ ने कहा ‘ हम दोनों
जलती…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 12, 2015 at 4:30pm — 11 Comments
सहसा
छा जाता है आवेश
कुछ लगता है सनसनाने
मस्तिष्क में होने लगता है
घमासान
हाथ हठात पहुँचते है
लेखनी पर
इतना भी नहीं होता
कि तलाश लें
कोई कायदे का कागज
नोच लेता है हाथ
किसी अखबार का टुकड़ा
या किसी रद्दी का खाली भाग
और दौड़ने लगते है उस पर
अक्षर निर्बाध
अवचेतन सा मन
मानो कोई उड़ेल देता है
उसमें भावों की सम्पदा
जो स्वस्थ चित्त में
चाह कर भी नहीं उभरता…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 4, 2015 at 8:44pm — 5 Comments
बहुत से फंदे है
उनके पास
छोटे-बड़े नागपाश
इन फंदों में
नहीं फंसती उनकी गर्दन
जो इसे हाथ में लेकर
मौज में घुमाते है
लहराते है
किसी गरीब को देखकर
फुंकारता है यह
काढता है फन
किसी प्रतिशोध भरे सर्प सा
लिपटता है यह फंदा
अक्सर किसी निरीह के
गले में कसता है
किसी विषधर के मानिंद
और चटका देता है
गले की हड्डियाँ
किसी जल्लाद की भांति …
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 25, 2015 at 12:26pm — 14 Comments
आज भी कभी
जब उधर से गुजरता हूँ
उतर जाता हूँ
उस खास स्टेशन पर
टहलता हूँ देर तक
लम्बे प्लेटफार्म पर
बेसुध आत्मलीन
फिर चढ़ जाता हूँ रेलवे पुल पर
तलाशता हूँ वह् रेलिंग
वह ख़ास जगह
टटोलकर देखता हूँ
शायद वही जगह है
स्तब्ध हो जाता हूँ
लगता है कोई
सोंधी महक
सहसा उठी और
सिर से गुजर गई
नीचे आता हूँ
फिर पुल के नीचे
पुल के आधार…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 18, 2015 at 7:56pm — 5 Comments
कब हुयी थी बात जनता से
कब आए थे तुम हमारे गाँव
कब फांकी थी तुमने गलियारे की धूल
कब तुम्हारी खादी पर जमी थी गर्द की परतें
कब दिया था आख़री भाषण यहाँ पर डूब कर पसीने में
कब किया ब्यालू यहाँ के एक हरिजन संग
और पानी था पिया अकुआगार्ड का जो साथ थे लाये
गाँव को तो याद है वह दिन, भूल जाते हो मगर तुम
देश की संसद बड़ी है, डूब जाते हो वही तुम
देश का दुर्भाग्य है वह नहीं मिल पाता कभी भी
चाह कर तुमसे बड़े बंधन है अजब…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 23, 2015 at 9:30am — 4 Comments
ईश्वर अलक्ष्य है क्या ?
शायद –
तब तुमने माँ को नहीं जाना
न समझा न पहचाना
सचमुच
अभागा है तू
(मौलिक व् अप्रकाशित )
Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 15, 2015 at 9:30am — 22 Comments
जलते तो है सभी
पर जलने का भी होता है
एक ढंग, एक कायदा,
एक सलीका
जब मै किसी दिए को
किसी निर्जन में
जलते देखता हूँ निर्वात
तब समझ पात़ा हूँ
कि क्या होता है
तिल–तिल कर जलना,
टिम-टिम करना
घुट-घुट मरना
और तब मुझे याद आती है
मुझे मेरी माँ
जीवनदायिनी माँ
सब को संवारती
खुद को मिटाती माँ !
(अप्रकाशित व् मौलिक )
Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 9, 2015 at 8:30pm — 15 Comments
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