Added by गिरिराज भंडारी on June 22, 2015 at 6:30am — 12 Comments
२१२ २१२ २१२ २१२
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दोस्त निर्लिप्त है, टोकता भी नहीं
और पूछो अगर बोलता भी नहीं
बोलना जब मना, फाइदा भी नहीं
बे ज़ुबाँ कह सके रास्ता भी नहीं
रात तारीकियों से घिरी इस क़दर
मंज़िलें बेपता , रास्ता भी नहीं
तुम अभी तो…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on June 18, 2015 at 5:30pm — 24 Comments
प्यार - एक वैचारिक अतुकांत --'' हाँ , आपसे ही कह रहा हूँ ''
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वाह !
किसने कह दिया ?
आपके दिल में प्यार भरा है, सागर सा
खुद ही दे दिये सर्टिफिकेट , खुद को ही
वाह ! क्या बात है
बिना जाने सच्चाई क्या है ? कैसी है ?
प्यार है भी कि नहीं दुनिया में
प्यार नाम की चीज़ होती कैसी है ?
रहता कहाँ है प्यार ?
किन शर्तों में जी पाता है ?…
Added by गिरिराज भंडारी on June 18, 2015 at 10:00am — 10 Comments
2122 2122 212
क्या वही फिर से ज़माना आ गया ?
आदमी को दोस्ताना आ गया
शर्म उनकी आँखों मे दिखने लगी
इसलिये नज़रें चुराना आ गया
फ़िक्र अब करते नहीं यादों की हम
अब हमें उनको भुलाना आ गया
ऊब कर रोने से दिल को देखिये
अब…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on June 17, 2015 at 9:00am — 22 Comments
2122 2122 2122 212
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दें सहारा, लड़खड़ाते आ रहे नादान को
पूछ तो लें बोझ कितना है, भले इंसान को
तू समन्दर पास आँखें खोल के रखना नहीं
ठेस लग जाये न तेरे ज्ञान के अभिमान को
ओ मेरे फुटपाथ पे सोये हुये मित्रों, जगो !
क्यों बुलावा दे रहे हो फिर किसी सलमान को
कोशिशें तो खूब की आँसू गिरे, महफिल ने…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on June 16, 2015 at 8:00am — 16 Comments
122 122 122 122
जो कहते थे उनको इशारा बहुत है
वो सुनते नहीं कुछ , पुकारा बहुत है
ऐ तन्हाई आ मेरी जानिब चली आ
कि यादों को तेरा सहारा बहुत है
तबीयत से इक फूँक भारो तो यारों
जलाने को दुनिया, शरारा बहुत है
ये मजहब का ठेका हटा लो यहाँ से …
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on June 14, 2015 at 7:30am — 28 Comments
Added by गिरिराज भंडारी on June 13, 2015 at 9:00am — 28 Comments
2122 1212 22 / 112
"क्या ज़माने से डर गया कोई
एह्द क्यूँ तोड़ कर गया कोई"
ख़्वाब मेरे कुतर गया कोई…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on June 11, 2015 at 6:30am — 23 Comments
Added by गिरिराज भंडारी on June 11, 2015 at 6:00am — 22 Comments
दिया गया मिसरा -"चिलचिलाती धूप में जब मोम से रिश्ते मिले।"
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2122 2122 2122 212
…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on June 8, 2015 at 7:30am — 30 Comments
2122 2122 2122 212
है कोई क्या इस जहाँ में जो कभी हारा नहीं
"सिर्फ़ पाया हो यहाँ पर और कुछ खोया नहीं"
पत्थरों के बीच रह के मै भी पत्थर की तरह
दर्द की बस्ती में रह कर, देखिये रोया नहीं
ख़्वाब की बातें कहूँ क्या, नींद जब दुश्मन हुई
माँ का साया जब से रूठा , तब से मैं सोया नहीं
बादलों में खेमा बन्दी भी हुई क्या ? आज कल
क्यों मेरे घर से गुज़रते वक़्त वो बरसा नहीं
मरहले के और पहले थक गया था काफिला
आबला पा था…
Added by गिरिराज भंडारी on June 5, 2015 at 9:30am — 32 Comments
वार्तायें ,
किसी सर्व समावेशी बिन्दु की तलाश में
अपने अपने वैचारिक खूँटे से बंधे बंधे क्या सँभव है ?
आँतरिक वैचारिक कठोरता
क्या किसी को विचारों के स्वतंत्र आकाश में उड़ने देता है ?
सोचने जैसी बात है
वार्तायें अपने अपने सच को एन केन प्रकारेण स्थापित करने के लिये नहीं होतीं
न ही लोट लोट के किसी भी बिन्दु को स्वीकार कर लेने लिये ही होती हैं
वार्तायें होतीं है
अब तक के अर्जित सब के ज्ञान को मिला के एक ऐसा मिश्रण…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on May 22, 2015 at 4:36pm — 6 Comments
11212 11212 11212 11212
कभी इक तवील सी राह में लगी धूप सी मुझे ज़िन्दगी
कभी शबनमी सी मिली सहर जिसे देख के मिली ताज़गी
कभी शब मिली सजी चाँदनी , रहा चाँद का भी उजास, पर
कभी एक बेवा की ज़िन्दगी सी रही है रात में सादगी
कभी हसरतों के महल बने, कभी ख़ंडरों का था सिलसिला
कभी मंज़िलें मिली सामने , कभी चार सू मिली ख़स्तगी
कभी यार भी लगे गैर से , कभी दुश्मनों से वफ़ा मिली
कभी रोशनी चुभी बे क़दर , तो दवा बनी…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on May 16, 2015 at 9:30am — 17 Comments
रोक नदिया
तोड़ पर्वत
तू धरा को क्या बनाता
पूछता है , अब विधाता
देख कुल्हाड़ी चलाता
कौन अपने पाँव में ही
कंटकों के बीज बोता
रास्तों में , गाँव मे ही
व्यर्थ सपनों के लिये क्यों आज के सच को गवांता
तू धरा को क्या बनाता , पूछता है अब विधाता
इक नियम ब्रम्हाण्ड का है
ग्रह सभी जिसमें चले हैं
है धरा की गोद माँ की
खेल जिसमे सब पले हैं
माँ पहनती उस वसन में , आग कोई है लगाता
तू धरा…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on May 14, 2015 at 9:21am — 21 Comments
इनकार कितना भी कर लें
दिल पर हाथ रख कर पूरी इमानदरी से सोचेंगे तो आप भी कहेंगे
हम भावनाओं की दुनिया में जीते हैं
और ये सच हो भी क्यों न , एकाध अपवाद छोड़कर
हम सब दो पवित्र भावनाओं के मिलन का ही तो परिणाम हैं
भावनायें गणितीय नहीं होतीं
कारण और परिणाम दोनों का गणितीय आकलन नामुमकिन है
हम सब ये जानते हैं , फिर भी
दूसरों के मामले में हम सदा गणितीय हल चाहते हैं ,
अक्सर रोते बैठते हैं , दो और दो चार न पा के
उत्तर…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on May 12, 2015 at 9:15am — 15 Comments
1212 1122 1212 22 /112
चली गई मेरी मंज़िल कहीं पे चल के क्या
या रह गया मैं कहीं और ही बहल के क्या
वहाँ पे गाँव था मेरा जहाँ दुकानें हैं
किसी से पूछता हूँ , देख लूँ टहल के क्या
असर बनावटी टिकता कहाँ था देरी तक
वही पलों में तुम्हें रख दिया बदल के क्या
हरेक हाथ में पत्थर छुपा हुआ देखा
ये गाँव फिर से रहेगा कभी दहल के क्या
मेरा ये घर सही मिट्टी, मगर ये मेरा है
मुझे न पूछ थे…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on May 7, 2015 at 9:16am — 31 Comments
121 22 121 22 121 22 121 22
ये कैसी महफिल में आ गया हूँ , हरेक इंसा , डरा हुआ है
सभी की आँखों में पट्टियाँ हैं , ज़बाँ पे ताला जड़ा हुआ है
कहीं पे चीखें सुनाई देतीं , कहीं पे जलसा सजा हुआ है
कहीं पे रौशन है रात दिन सा , कहीं अँधेरा अड़ा हुआ है
ये आन्धियाँ भी बड़ी गज़ब थीं , तमाम बस्ती उजड़ गई पर
दरे ख़ुदा में झुका जो तिनका , वो देखो अब भी बचा हुआ है
हरेक…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on May 6, 2015 at 6:30am — 25 Comments
लौटेंगे कर्म फल आप तक ज़रूर
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बातें हमेशा मुँह से ही बोली जायें तभी समझीं जायें ज़रूरी नहीं
कभी कभी परिस्थितियाँ जियादा मुखर होतीं हैं शब्दों से ,
और ईमानदार भी होतीं हैं
देखा है मैनें
जिसे परिवार में समदर्शी होना चाहिये
उनको छाँटते निमारते ,
अपनों में से भी और अपना
वैसे गलत भी नहीं है ये
अधिकार है आपका , सबका
देखा जाये तो मेरा भी है
तो, छाँटिये बेधड़क , बस ये…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on May 4, 2015 at 7:04pm — 16 Comments
जानवर होने का नाटक भूँक भूँक के
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जंगल में
जानवरों में फँसा हुआ मैं
जानवर ही लगता हूँ , व्यवहार से
पहनी नज़र में
ऐसा व्यवहार सीख लिया है मैनें
जिससे इंसानियत शर्मशार भी न हो
और जानवर भी लग जाऊँ थोड़ा बहुत
लगना ही पड़ता है , अल्पमत में हूँ न ,
और काम बाक़ी है , एक बड़ा काम
मुझे तलाश है इंसानों की
जो छुप गये लगते हैं , भय से ,
जानवरों में एकता जो है , बँटे हुये इंसान…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on May 4, 2015 at 9:00am — 17 Comments
किसने कहा प्रेम अंधा होता है
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किसने कहा प्रेम अंधा होता है
रहा होगा उसी का , जिसने कहा
मेरा तो नहीं है
देखता है सब कुछ
वो महसूस भी कर सकता है
जो दिखाई नहीं देता उसे भी
वो जानता है अपने प्रिय की अच्छाइयाँ और
बुराइयाँ भी
वो ये भी जानता है कि ,
उसका प्रेम, पूर्ण है ,
बह रहा है वो तेज़ पहाड़ी नदी के जैसे , अबाध
साथ मे बह रहे हैं ,
डूब उतर रहे हैं साथ साथ
व्यर्थ की…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on May 1, 2015 at 12:20pm — 8 Comments
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