संदली नाजुक बदन या बोलती तस्वीर है
आयतें खामोशियाँ हैं शर्म ये तफ़सीर है
सर्द हैं जुल्फों के साए सोज साँसों में भरी
कातिलाना है अदा या ख्वाब की ताबीर है
ये गजाली चश्म तेरे श्याह गहरी झील से
औ तबस्सुम होंठ पे जैसे कोई शमशीर है…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on September 6, 2012 at 4:05pm — 5 Comments
"जबाब नहीं है ख़ामोशी "
जबाब नहीं है ख़ामोशी
सब जानते हैं
इसमें तो छुपा होता है
गलतियाँ स्वीकारने का हाँ
कसमसाहट भरी वो हाँ
जो हाँ कहने पर
जुबान शर्मशार हुई जाती है…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on September 5, 2012 at 1:25pm — 4 Comments
रात थकती बुझ रही रोशन दिये की खोज में
जल रहे हैं जाम खाली साकिये की खोज में
लिख दिए किरदार सारे पड़ गये हैं नाम पर
है अधूरी ये कहानी बाकिये की खोज में
हार कर इंसान खुद से आदमीयत खोजता
जिन्दगी बेचैन फिरती हाशिये की खोज में…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on September 4, 2012 at 4:00pm — 11 Comments
मैं तो बस इक गुरु का शिष्य हूँ
बहुत उकसा के पूछा
बताओ कौन हो तुम
क्या हो तुम ???
तुम दिखावटी हो
या सच में फूल हो
नहीं नहीं
शायद तुम खार हो
कितना ग़ज़ब लगता है
तुम्हारा अलग अलग सा दिखना
किसने पैदा किया है तुम्हे
कोई जादूगर
बागवान था क्या ??
गेंदे के फूल से
गुलाब की खुशबू
लाजवाब है ये कारीगरी
खुदाई सी लगती है
पर है हकीकत
चाँद तारा या आफताब
क्या हो तुम
या जर्रा-ए-कायनात…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on September 4, 2012 at 1:30pm — 3 Comments
"जिन्दगी का कोरा सच "
सच
जिन्दगी का
कभी ग़ज़ल बना
कभी नज्म
कभी रुबाइयाँ
लिखते रहे
गुनगुनाते रहे
सुनते रहे
सुनाते रहे
क्या क्या न लिखा
धुप छाँव
राह, मंजिल
पड़ाव
गुल, गुलशन
खार
कभी जिन्दगी
इक भार
दोस्त, यार
फिर दुनिया में
भ्रष्टाचार
हाहाकार
कभी सम्मान
कभी तिरस्कार
कभी लगती रही
ये व्यापार
खुद दुकानदार
कभी नफरत
तो कभी प्यार
बार बार
लेकिन
हर…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on September 3, 2012 at 4:19pm — 19 Comments
"निवाले"
रामू के
विदीर्ण वस्त्रों में छुपी
कसमसाहट भरी मुस्कान
एहसास कराती है
खुश रहना कितना जरुरी है
दिन-रात
कचरा बीन बीन के
उससे दो चार निवाले निकाल लेना
कुछ फटी चिथी पन्नियों से
खुद के लिए और छोटी बहन के लिए भी
एहसास कराता है
कर्मयोगी होने का
रात उसके बगल में सोती है
कभी दायें करवट
कभी बाएं करवट
खुले आसमान के नीचे
उसका जबरन आँखों को मूंदे
भूख को मात देना
परिभाषित करता है आज़ादी…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on September 1, 2012 at 2:11pm — 9 Comments
खूँटी पे लटकी
खाली पोटली
मुँह ताक रही है
कोई आएगा
जो झाड़ देगा
इसमें जमी धूल
बिलकुल वैसे ही
जैसे मुक्तिबोध
की कोई कविता
टंगी हो
समीक्षक के
इंतज़ार में
लेकिन उसे नहीं पता
अब कोई नहीं छेड़ेगा
उस खाली पोटली को
क्यूंकि वो एंटीक है
उसे म्यूजियम में रखा जायेगा
प्रदर्शनी की सोभा सा
क्यूँ कोई जीर्ण-उद्धार करेगा
फिर उदाहरण के लिए
क्या दिखाएगा
कुछ भी नहीं
अब तुम दुष्यंत की…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on August 31, 2012 at 3:30pm — 12 Comments
मेरी सोच
तत्पर सी
जिज्ञासा शून्य
सब कुछ जानती हो जैसे
क्या होगा क्या नहीं ???
शब्दों में बिलबिलाती
भावों में छट-पटाती सी
स्वरों में मचलती सी
तोड़ने को चक्रव्यूह
बिलकुल अभिमन्यु की तरह
भेद जाती है चक्रव्यूह
पहुँच जाती है भीतर
पर लौटते वक़्त
तोड़ देती है दम
कौरवी छल से हुए आक्रमण
और दमन चक्र से
बच नहीं पाती है
"मेरी सोच"
संदीप पटेल "दीप"
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on August 31, 2012 at 2:42pm — 2 Comments
देश की दारुण दशा हमसे सहन होती नहीं
सोन चिड़िया की कथा भी स्मरण होती नहीं
हो रहे पत्थर मनुज सब आँख का पानी सुखा
जल रहे हैं आग में लेकिन जलन होती नहीं
मर चुका ईमान सबका बेदिली है आदमी
फिर रहीं बेजान लाशें जो दफ़न होती नहीं…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on August 31, 2012 at 1:00pm — 10 Comments
हमको देखे बिना उसने हाँ कह दिया
मेरे खाना-ए-दिल को मकाँ कह दिया
चाँद तारे मयस्सर मुझे हो गए
माँ के दामन को ही आसमाँ कह दिया
आग तडपी तपिश तिल-मिलाने लगी
सर्द से कोहरे को धुआँ कह दिया
छोड़ के…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on August 30, 2012 at 1:57pm — 8 Comments
आप से नज़रें मिली दिल आशिकाना हो गया
यार से दिलबर हुए मौसम सुहाना हो गया
लोग अफसाने बना बातें हसीं करने लगे
आपके घर जो मेरा आना-जाना हो गया
छू रहीं साँसे गरम ठंडी ठंडी आह भर
आँख का झुकना बड़ा ही कातिलाना हो गया…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on August 29, 2012 at 3:00pm — No Comments
मुझे यकीं है
समझ न सकोगे तुम
दुनिया की रस्में
उल्फत की कसमें
क्यूंकि तुम हो ही नहीं
खुद के वश में
तुम हर रोज चलते हो
नित नए सांचे में ढलते हो…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on August 25, 2012 at 3:02pm — 3 Comments
=====ग़ज़ल =======
एक तूफाँ यहाँ से गुजरा है
आइना जो मकाँ से गुजरा है
आरजू भीगने की फिर जागी
अब्र इक आसमाँ से गुजरा है
इश्क करके दिले नाशाद हुए
दर्द दिल और जाँ से गुजरा है
चश्म क्यूँ…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on August 25, 2012 at 9:25am — 2 Comments
नहीं है पास तू अगर तो तेरी याद सही
रही जो याद वो शहद सी मीठी बात सही
ग़मों में मुस्कुरा रहा हूँ गहरे जख्म छुपा
दिले-नाशाद क्यूँ फिरूँ जो रहना शाद सही
उजाले चीखने लगे जो तुझको देख अगर
अँधेरी गर्दिशों भरी ही काली रात सही
तुझे तो था…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on August 24, 2012 at 10:14am — 6 Comments
"अलविदा दोस्तों "
मिल जाते हैं
लोग
बहुत से लोग
रहगुजर पे
कुछ बेगाने
अपने से
और कुछ अपने
बेगाने से
सवाल उठने लगते हैं
जहन में
बार- बार
कौन है यार ?????
तन्हाई क्या है
अकेलापन
या जुदाई का एहसास
यार से
किसी अपने से
ये अपना कैसे हो गया ???
और ये बेगाना कैसे ???
अच्छा है
बुरा है
अपना है
बेगाना तो बेगाना है
कुछ पैदाइशी अपने हैं…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on August 21, 2012 at 12:25pm — 16 Comments
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on August 17, 2012 at 9:13pm — 2 Comments
आज़ादी
मेरे देश की आज़ादी
चीख रही थी
लाउड स्पीकर से
ऐ मेरे वतन के लोगो
ऐ मेरे प्यारे वतन
बहरे सुन रहे थे
गूंगे गुनगुना रहे थे
अंधे देख देख विश्मित हो रहे थे
लाल लाल शोलों से घिरा
एक दरख्त
कुछ लोग चढ़े हुए
हरे नीले पीले लाल
हाँ लाल लाल लाल
उस काले से दरख्त पे
सुर्ख लाल पत्ते
जिनकी नोंको से टपक रही थी
शराब सी शबनम
टप टप- टप टप
घेरा डाले बैठे से
बाज़ चील कौए
डाल डाल…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on August 17, 2012 at 9:57am — 2 Comments
संवेदनाओं की गहरी
-जड़ों पे टिके
अभिव्यक्ति के विशाल वृक्ष पे
भावनाओं की विस्तृत साखें
स्मृतियों के हरे भरे सब्ज पत्ते
आशाओं की उद्दीप्त नवल कोपल
और लटकते हैं
कडवे मीठे शब्द
कच्चे ,अध् पके ,अध् कच्चे
और कभी कभी पके शब्द
नीम नीम
या
शहद शहद
लज्ज़त लेने को
चख लेता हूँ
शब्द शब्द
अभिव्यक्ति के दरख्त पे
शब्द शब्द
संदीप पटेल "दीप"
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on August 17, 2012 at 9:21am — 4 Comments
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on August 14, 2012 at 3:25pm — 4 Comments
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on August 14, 2012 at 2:52pm — 1 Comment
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