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आध्यात्मिक चिंतन

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आध्यात्मिक चिंतन

इस समूह मे सदस्य गण आध्यात्मिक विषयों पर चिंतन एवं स्वस्थ चर्चायें कर सकतें हैं ।

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Comment by DR ARUN KUMAR SHASTRI on November 16, 2020 at 9:03pm

लेखक - डॉ अरुण कुमार शास्त्री /  अबोध बालक // अरुण अतृप्त  

अभ्यास और शिक्षा का मूलकांक    

किसी ने पून्छा कि  क्या समय अंतराळ से जो शिक्षा ली थी वो बिना अभ्यास के निरस्त हो जायेगी 
मैने कहा नही ऐसा नही अतः --

यहां अपने विचार, मत को बल देने के लिये मै पूर्व चर्चा में व्यक्त पुन्ह: कुछ भाव व्यक्त करना चाहूंगा, मनुष्य का दिमाग सृष्टि के रचनाकार ने बहुत सुगढ़ता व् दूरदृष्टि से रचा है उसमें ३ अतिविशिष्ट हिस्से निर्मित किये,  ये ठीक उसी प्रकार हैं जैसे आज का कंप्यूटर मतलब सीधा २ ये हुआ की मनुष्य ने मनुष्य के ही दिमाग से कॉपी पेस्ट कर के ये मशीन जिसका नाम कम्प्यूटर है बनाई / लेकिन इन ३ अतिविशिष्ट जो  हिस्से हैं इनका जिकर करने से पहले [ क्यू कि इनके लेखन से चर्चा का भाव दुसरे विषय में तबदील हो जायेगा ]]  मैं  इसमें एक बात और जोड़ना चाहूंगा, वो है काल्पनिक यादाश्त [ आर्टिफिशियल मेमोरी ] या artificial intelligence सही technical भाषा में , जो की इस कंप्यूटर को सही सही मनुष्य के दिमाग के अनुसार सोचने को बल देती है साथ में इसकी programing . अब आते हैं आज की चर्चा के असली विषय पर  * *क्या अभ्यास  के अभाव में शिक्षा विलुप्त हो जाती है*  सीधा स्पॉट जबाब मैं दे चुका--- नहीं  !! बिल्कुल नही 

क्यों. ? क्यों कि ---  उसमें ३ अतिविशिष्ट हिस्से निर्मित जो  किये गए उनका काम यही है कि मनुष्य या मनुष्य द्वारा trained - पालतू जानवर भी या अन्य जानवर भी  [[[[ जैसे शरद ऋतु में आपने देखा होगा असंख्य प्रवासी पक्षी पूरे विश्व में और भारत भर में अन्य अन्य देशो से  जहां बर्फ के कारण सारा प्रिथवी भाग ढक जाता है तो अपने भोजन के लिये वे हजारो मील की यात्रा हर साल करते है लेकिन एक साल का लम्बा अंतराळ भी उनको ये सब भूलने नही देता , ]] उन सभी पूर्व शिक्षित कार्य को भूल न जाएं हां जैसे ही उन अभ्यासों की पुनरावृति होती, करते  या कराई जाती है पूर्व में सिखलाये या सीखे सभी पाठ,  क्रियाएं बापिस उसी सुर ताल अभ्यास से प्रगट हो जाते हैं |  

यहाँ मैं मेडिकल साइंस के २ अन्य उदाहरण देता हूँ जो आप अपने सामान्य जीवन में देखते रहते हो / एक साइकिल चलाना , एक पेन से लिखना कितना भी आपका अभ्यास छूटा हो कितना भी समय का अंतराल हो जैसे ही आप पूर्व में सीखे इन कर्मों को दोहराना शुरू करते हो ये उसी प्रशिक्षण के अनुरूप आपके पास आपके अंग संग आपकी धरोहर के रूप में प्रकट होते जाते हैं 

 

**********************************ॐ ॐ इति ॐ ॐ********************************* 

Comment by vijay nikore on October 29, 2017 at 1:33am

आदरणीया इन्द्रा जी, आपने जो कहा, सही कहा। आपके कहे को आत्मसात कर सकें, प्रभु से यह प्रार्थना है। प्रभु को याद करने के लिए नियमित समय की, नियमित स्थान की, ज़रूरत है भी, और नहीं भी ... depending on how evolved we are in our journey to God. इतना विश्वास रखें कि प्रभु पल-पल हमारा ख्याल रख रहे हैं, बिन मांगे हमें दे रहे हैं, माया में व्यस्त, हम ही उनकी करुण पुकार को नहीं सुन रहे। जिसने भी यह पुकार सुनी, वही तर गया। श्री रामकृष्ण परमहँस जी ने, स्वामी विवेकानन्द जी ने यह पुकार सुनी, और वे हम सभी को कितना कुछ दे गए। आभी २ सप्ताह हुए  Pasadena, California में हमें उस घर पर जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ जहाँ स्वामी जी लगभग १२० साल पहले कुछ दिन ठहरे थे। उनका श्यन-कक्ष अब shrine है। वहाँ अभी भी उनकी साँसे मानो जीवित हैं, हम सभी को उन्हें जानने के लिए, उनके कदमों में चलने के लिए।

आप यहाँ अपने विचार और भी साझे करें तो कृपा होगी।

Comment by indravidyavachaspatitiwari on October 28, 2017 at 7:45pm

हमारे प्रभु का नाम हजार बार लेने से और अनेकों बार लेने से जो सुख मिलता है उसका वर्णन करना किसी के वश में नहीं है। क्योंकि उनकी दयालुता का ध्यान करने पर आपके हृदय को इतनी शांति मिलती है कि आप चाह करके भी उसकी चर्चा दूसरे से करने से अलग नहीं रह सकते। प्रभु का नाम ही सार है और जो कुछ भी वह असार है। आपको जो ज्ञान मिलेगा वह प्रभु से ही मिलेगा और आपको अपना उद्धार चाहिए ही इसलिए भगवान का नाम ही लेना उचित है। आपको यदि भगवान खोजना है तो बिनोबा जी के शब्द ों में उसे हम द रिद्र नारायण का नाम दे सकते हैं । हमें भगवान को पाना है तो दरिद्र की सेवा करनी ही पड़ेगी सेवा से ही मेवा मिलती है। सेवा करने के लिए घमण्ड का परित्याग करना होगा। आपके पास घमण्ड है तो आप सेवा नहीं कर सकते। आपको सेवा के लिए घमण्ड को छ ोड़ना पड़ेगा।

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on October 24, 2013 at 8:30pm

 आ0 सुधीजनों.   सादर प्रणाम!    मैं करीब 10 वर्षो  तक साहित्य से दूर आध्यातिमक और धार्मिक विचारों में डूब गया था।  जहां मैंने विभिन्न धर्म ग्रंथो, वेदों और उपनिषदों के ऋचाओं विशेष कर गीता के गूढ़ रहस्यों को समझने की कोशिश की।   शुष्क व गहन विषयों पर विचारों को शब्दों में पिरोता रहा।  अपनी बुधिद और विवेक की सीमाओं में मैं जो कुछ भी सहेज सका, उनको सहजता की मालाओं में जप किया। जब कभी मन उद्विग्न होता है तो.......इसी में खो जाता हूं।  जय जय श्री राधे............... हार्दिक आभार।  सादर,

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on October 24, 2013 at 7:13pm

!!! भजन !!!

सदगुरू की शरण में साघो, तज दो यह शरीर।
बुधिद निर्मल हो जाये, मन बन जाये फकीर।।

वायु प्राण में रमता, प्राण से सजा शरीर।
देह में उपजें सारे, ये कपट वचन के तीर।।
वाणी मे बसते हैं, सदगुरू के गुन तहरीर।
कि मधुमय बानी बोले, मन बन जाये फकीर।।1

सदगुरू है मेरा नगीना, चित साधे सद रंग।
ज्यों-ज्यों साधू मैं वारे, त्यों-त्यों धारे सतरंग।।
इन रंगों में रगते हैं, आशा-स्मृति-तेज-नीर।
कि सदगुरू में ध्यान लगायें, मन बन जाये फकीर।।2

अन्न - ज्ञान - विज्ञान  भरे  रस,  मंत्रों  का  उपचार।
सदगुरू ज्ञान सरस गंगा, मिले मुकित का अधिकार।।
मिटे रोग-जरा-भय-मृत्यु, बदले साधक की तकदीर।
तत्व ज्ञानी गुरू कृपा से, मन बन जाये फकीर ।।3

के0पी0सत्यम / मौलिक व अप्रकाशित

Comment by Vindu Babu on September 25, 2013 at 4:32pm
इस समूह के सभी आदरपात्र सदस्यों को सादर अभिनन्दन वन्दन!
अध्यात्मिकता के इतने गहन विषयों पर चिन्तन कर बोधगम्य लेख प्रस्तुत करने वाले सभी सुधीजनों का मेरा हृदय से आभार,क्योंकि अध्यात्मिक लेख या तो हमें मनन के लिए प्रेरित करते हैं या एक अद्भुत् शान्ति प्रदान करते हैं।
अभी जहां तक मेरे संज्ञान में है,समूह में कोई भी ऐसा लेख नहीं प्रस्तुत हुआ जो 'मानव जीवन की सार्थकता और उद्येश्य' पर केन्द्रत हो। करबद्ध निवेदन के साथ मेरी जिज्ञासा इसी विषय('जीवन का वास्तविक उद्येश्य') पर एक लेख का सादर आह्वाहन करती है।
सादर प्रतीक्षारत्
-वन्दना
Comment by राज़ नवादवी on July 19, 2013 at 5:46pm

Life is because of this enigma of love is. So, let us not judge others. Nothing is absolutely good or bad or in the purest element through this transition called life, which we may call a seed of love flowering in each one of us day by day, and thus remaining hidden to us in a corresponding ratio, shedding the shell around it in variable degrees through miseries and mirth, successes and failures, and joys and sorrows of this empirical and experiential melodrama we call life.

 

© Raz Nawadwi

Bhopal, 12.50 am, 19/09/2012

Comment by राज़ नवादवी on July 19, 2013 at 5:44pm

Before I was fully awake in the morning, some sort of mental rumblings were going on inside me in the form of a subtle prayer to my Lord sub-consciously. I have tried to pen them down below:

 

मेरे ह्रदय में मेरे मालिक का दिव्य प्रकाश विद्यमान है जो मुझे अपनी और आकृष्ट कर रहा है. All that is me, I, or mine has to get merged and consumed in You. I seek no another life on earth as a mortal human being. Let this be my final drama on earth and let all impressions and seeds of impressions get annulled once and for good in You!

 

All my recognitions, identities, persona, wealth, and character is but an incomplete story of an endless fulfilment of a never-ending chain of desires that led me astray from my real goal in life: to become one with You, My Master!

 

O Master, make me capable of not falling prey to any material cravings and any carnal inducements, leading me on my way to spiritual glory of the ever shining effulgence of your ubiquitous and ever-present spirit!

 

Your eternal servant

राज़ नवाद्वी, भोपाल,

गुरुवार, जुलाई ११, ०६:३० प्रातःकाल

Comment by विजय मिश्र on June 11, 2013 at 12:42pm

मैं अपने मित्र श्री राज कुमार जी का हृदय से आभारी हूँ जिन्होंने ओबीओ के इस अतिश्लीष्ट  " अध्यात्मिक चिंतन " प्रभाग में मुझे आमंत्रित किया . यह तो जीवन को भी सर्वश्रेष्ठ हेतु देने का उपक्रम है .जय श्रीकृष्ण .

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 25, 2013 at 11:31pm

   नाम दया का तू है सागर......सत्य की ज्योति जलाये........सुख लाये तेरो नाम..! जो ध्याये फल पाये........मैंने नाम सुमिरन का साक्षात् प्रभाव और महत्व दोनों का अनुभव सहज में ही परख लिया है।  वास्तव में जो सुख में जीता है, उसे न तो नाम सुमिरन का महत्व समझ में आता है और न ही ईश्वर से साक्षात् ही कर पाता है।  वह केवल अपने स्वार्थ में लिप्त रह कर केवल कपट और मोह मे ही फॅसा रहता है।  वास्तविकता तो यह है जो व्यक्ति स्वयं को अकिंचन, शून्य और अनाथ मान कर परबृहम की सत्यता पर विश्वास कर पूर्ण रूपेण आस्था  में रम जाता है। उसे ही उचित समय पर अथवा अन्त में  नाम सुमिरन के प्रभाव, स्वरूप, सत्य व सुख की प्राप्ति होती है।  सत्य का परिणाम देर से ही सही किन्तु उज्ज्वल ही मिलता है।  

 
 
 

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