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नवसंवत्सर पर हार्दिक शुभकामनाएँ

संप्रेषित शुभकामना, स्वजन करें स्वीकार 

नव-संवत शुभ आगमन, सृष्टि सृजन त्यौहार 

सृष्टि-सृजन त्यौहार, पुलक शुभ वर्ष मनाएँ

मनस चरित व्यवहार साध निज गौरव पाएं 

संकल्पित हो कर्म, धर्म को करें प्रतिष्ठित 

राष्ट्र करे उत्थान, भावना शुभ संप्रेषित

Added by Dr.Prachi Singh on April 10, 2013 at 8:30pm — 28 Comments

कुछ दोहे

पढ़ लिख कर आगे बढ़ें, बनें नेक इन्सान ।

अच्छी शिक्षा जो मिले, बच्चें भरें उड़ान ।।

बच्चे कोमल फूल से, बच्चे हैं मासूम ।

सुमन की भांति खिल उठें, बनो धूप लो चूम ।।

देखो बच्चों प्रेम ही, जीवन का आधार ।

सज्जन को सज्जन करे, सज्जन का व्यवहार ।।…

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Added by अरुन 'अनन्त' on April 10, 2013 at 5:06pm — 11 Comments

नव-संवत्सर की- - - - लक्ष्मण लडीवाला

नव-संवत्सर कीशुभ कामनाए

-लक्ष्मण लडीवाला 

 

बीत गया वर्ष विगत,नव संवतसर आया, 

गत का आकलन कर,आगे अवसर लाया।

 

स्व का गत रहा कैसा, स्व हो अब कैसा,

करे नवा कुछ ऐसा, हो दो पग आगे जैसा।

नव-संवत्सर का प्रारम्भ होता दुर्गा पूजा से,

घट-स्थापना, उगा नया धान नए जवारे से ।

   

शक्ति की प्रतिक मान करते देवी कि पूजा,

प्रेरणा स्वरूप है देवी,मिलती जिनसे ऊर्जा |

जिसके बिना चल न सके दुनिया का…

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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 10, 2013 at 3:30pm — 8 Comments

सोच रहा है राजू

रंग भरे

फागुन के चेहरे

संग रीता

सुख चैन

टनटन करती

भाग रही फिर

अग्निशमन की वैन

होंठ चाटता

बेबस राजू

सोच रहा

फिर आज

चूते छप्‍पर

सर्द रात दे

तुष्‍ट नहीं क्‍यों ताज

तैर रही

उसकी आंखों में

मात-पिता की देह

आवास इंदिरा

के नीचे ही

कुचल गया

जो नेह

है तो वो

जनजाति का पर

पाए कहां प्रमाण

दैन्‍य रेख पर

अमला…

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Added by राजेश 'मृदु' on April 10, 2013 at 1:18pm — 7 Comments

सदा चैन की बंशी बजती , जब घर में खुशहाली हो |

घरनी -कविता |
सदा चैन की बंशी बजती , जब घर में खुशहाली हो | 
जंगल में मंगल हो जाता , साथ अगर घरवाली हो |
एक म्यान में दो तलवारें , चैन कहाँ मिल पायेगा |
यदि यार का दखल हो घर में ,…
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Added by Shyam Narain Verma on April 10, 2013 at 11:12am — 7 Comments

तुम सोचो मानव

हे ब्रम्हा जी की रचना से निर्मित मानव

तुम सोचो मानव

क्या मैने ये ठीक किया था युध्द कराकर,

क्या मैने ये ठीक किया दो पक्छ लडाकर

तुम्ही बताओ क्या मै इसका उत्तरदायी हू

तुम सोचो मानव



राजदूत बनकर पाण्डव का जब मै पंहुचा

बस गाँव मांगने पाँच और कुछ भी न ज्यादा

क्या मै और मेरा राज्य था इतना दुर्बल मानव

कुछ अपने हिस्से के गाँव उन्हे मै दे न पाता

किन्तु उन्हे दे देता तो ये युध्द न होता

क्या मैने ये ठीक किया था बात बढाकर

तुम सोचो… Continue

Added by manoj shukla on April 10, 2013 at 11:07am — 6 Comments

क्या न लिखूँ

क्या न लिखूँ

दोपहर घर में बैठा मैं, कुछ,

सोच रहा,मस्तिस्क में आ रहे,

विषय कई,पर उलझन है की,

क्या लिखूँ और क्या न लिखूँ ।

शब्दों और वाणी में, आज,

अनुशासन है नहीं, फिर भी,

समय देशकाल को विचारकर,

क्या लिखूँ और क्या न लिखूँ ।

लिखने से तूफ़ान आ जाता,

लिखने से संबंध बिगड़ते,और,

सत्ता गिर जाती है ,इसीलिये,

क्या लिखूँ और क्या न लिखूँ ।

लिखने से मन के भाव आते,

कटु सत्य निकल जाता है,

आ…

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Added by akhilesh mishra on April 10, 2013 at 11:00am — 5 Comments

मैं

मैं कौन हू ,मैं क्या हू ,

नही जानता ,

 मैं खुद ही स्वयं को ,

नहीं पहचानता ,



 मैं स्वप्न हू या कोई हक़ीकत ,

मैं स्वयं हू या कोई वसीयत ,



जैसे किसी कॅन्वस पर उतारा हुआ ,

रंगों की बौछारों से मारा हुआ ,



हर किसी के स्वप्न की तामिर हू मैं ,

हक़ीकत नही निमित तस्वीर…

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Added by अशोक कत्याल "अश्क" on April 10, 2013 at 7:58am — 15 Comments

ख्वाब यूँ तूफ़ानी हो गये

ख्वाब यूँ तूफ़ानी हो गए ,

रिश्ते भी जिस्मानी हो गए

,

बदले करवट ज़िंदगी , हर पल हर छिन ,

लक्ष्य भी आसमानी हो गए ,



क्या दिखाएँ जलवा , अपने अश्कों का ,

गम ही किसी की , मेहरबानी हो गए ,



नहीं आता रोना उनके सितम पे ,

फिक्रे वफ़ा , किस्से कहानी हो गए ,



बेहया हो गया ये आँखों का परदा ,

सुना हे जबसे , वे रूमानी हो गए ,



छोड़ दिया मिलना गैरों से हमने ,

बंधन दिलों के ,बेमानी हो गये…

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Added by अशोक कत्याल "अश्क" on April 10, 2013 at 7:48am — 6 Comments

आग चिराग ने लगाई....

देखो जबरदस्त होसला अफजाई ,

बैरी बने बादल और आग चिराग ने लगाई ,



करेंगे अपने बूते , खामोशी से संवाद ,

चौंकाना चाहती हे , दिल से , तन्हाई ,



आशा की लौ मे , मेरी वापसी के संकेत ,

दे ही देगी , तेरी चौतरफ़ा रुसवाई ,



कगार पे आ पहुँचा , अब रोमानी पहलू ,

महज संजोग नहीं है , तेरी बेवफ़ाई ,



थाम ली कमान , आख़िरकार मुहानो की हमने ,

फूटते हुए लावो की , अब…

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Added by अशोक कत्याल "अश्क" on April 10, 2013 at 7:00am — 2 Comments

दर्द

जिधर भी देखा दर्द ही दर्द मिले ,

अपने साए से हुए , चेहरे सर्द मिले ,



किया बेगाना सरे राह हमको ,

मिले भी तो , ऐसे हमदर्द मिले ,



था ज़माना गुलाबी कभी जिनका ,

वही दर्द ए दिल के मारे , आज जर्द मिले ,



गुमान ना था इस कदर कहर नाज़िल होगा ,

फाक़त खंडहर , वो भी ज़रज़र मिले ,



आज़िज़ हे हम अपने ही लहजे से ,

दुरुस्त जिनको समझा , वोही ख़ुदग़र्ज़ मिले…

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Added by अशोक कत्याल "अश्क" on April 10, 2013 at 7:00am — 10 Comments

पत्थर



कारोलीन एक छोटा सा गाँव . यह उन्नीस सौ साठ की बात है . हमारे पड़ोस में एक औरत अपने

छः साल के बेटे के साथ रहने आयी . वह बहुत झगड़ालू थी . वह आये दिन किसी न किसी से लड़ाई करती रहती . वह जब भी किसीको निशाना बनाती अपने बेटे से कहती जाओ उसे पत्थर से

मारो . वह परित्यक्ता थी, अकेली थी , इसीलिये लोग कुछ नहीं कहते और उससे हर सम्भव दूरी बनाये रखते . लोगों की चुप्पी को वह कायरता समझ बैठी .

उसके घर के समीप एक बड़ा सा मैदान था . शाम के वक्त हम सभी गाँव के बच्चे उसमें खेलने जाते थे.…

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Added by coontee mukerji on April 9, 2013 at 11:01pm — 5 Comments

ऐसे लोगों का जीना क्या.....

इत्ते सारे लोग यहाँ हैं

इत्ती सारी बातें हैं

इत्ते सारे हंसी-ठहाके

इत्ती सारी घातें हैं...



बहुतों के दिल चोर छुपे हैं

सांप कई हैं अस्तीनों में

दांत कई है तेज-नुकीले

बड़े-बड़े नाखून हैं इनके

अक्सर ऐसे लोग अकारन

आपस में ही, इक-दूजे को

गरियाते हैं..लतियाते हैं



इनके बीच हमें रहना है

इनकी बात हमें सुनना है

और इन्हीं से बच रहना है...



जो थोड़ें हैं सीधे-सादे

गुप-चुप, गम-सुम

तन्हा-तन्हा से जीते हैं…

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Added by anwar suhail on April 9, 2013 at 8:44pm — 6 Comments

साथ

साथ क्या है ?

एक भ्रम के सिवाय

एक भुलावा रिश्तों का

झूठा दिलासा अपनों का

क्या सच में कोई होता है साथ ?

आखिर को झेलने होते हैं

दुःख अकेले

उठानी होती है पीड़ा

टीसों की

जज्ब करना होता है दर्द

खुद ही

साथ चलते अपने

साथ चलते रिश्ते

कब तक कितने साथ होते हैं?

अकेला पैदा हुआ इंसान

ताउम्र होता है अकेला

उसकी ख़ुशी ,दुःख

भी नहीं होते सिर्फ उसके

जुड़े होते हैं वे भी दूसरों से

और उनकी मर्जी…

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Added by Kavita Verma on April 9, 2013 at 8:01pm — 4 Comments

गद्य काव्य

आधुनिक नई धारा हिन्दी साहित्य में कई नई विधाएं अपने साथ लेकर आयी। कई तरह के अभिनव प्रयोग हुए। इन्हीं विधाओं में से एक विधा है गद्य काव्य। इस विधा में त्रिलोचन शास्त्री ने बहुत काम किया।

मैंने एक गद्य काव्य लिखने का प्रयास किया है। मैं नहीं जानता कि मैं कितना सफल या असफल हुआ हूं। अपना यह प्रयास इस मंच पर इस आशय से प्रस्तुत कर रहा हूं कि इसके माध्यम से इस विधा पर कुछ चर्चा हो सके और मेरे साथ साथ सबको इस विधा के बारे में जानने का एक अवसर प्राप्त हो सके।

आशा है सुधी जन मुझे मार्गदर्शन… Continue

Added by बृजेश नीरज on April 9, 2013 at 6:59pm — 12 Comments

चलिये शाश्वत गंगा की खोज करें- तृतीय खंड (3)

प्रस्तुत खंड में ज्ञानी गंगा उत्पति की कथा बयान कर रहा है। गंगा की उत्पति  विष्णु हृदय से मानी जाती है। वह विष्णु हृदय क्या है - ज्ञानी इस की विवेचना के लिए प्रयतन रत है।
प्रस्तुत कथा और इस का ऐसा पठन शायद किसी और ग्रन्थ में न उपलब्ध हो इस लिए पाठक से निवेदन  है  कि वह इस में समानांतर धार्मिक कथा की खोज न करे। प्रस्तुत कथा केवल ज्ञानी की अपनी आत्मानुभूति है  ....…
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Added by Dr. Swaran J. Omcawr on April 9, 2013 at 6:00pm — 5 Comments

सच मन को आहत करता है - वीनस केसरी

सच बोलने वालो

तुमको हमेशा सूली पर लटकाया गया

मगर यह गलत कहाँ है

तुम्हारे कारण

आहत होती हैं कितनी भावनाएँ,

शून्य से शिखर तक पहुँचते-पहुँचते

कितने शीशे टूट जाते है



सच बोलने वालो

तुम अलगाव वादी हो   

तुमसे बर्दाशत नहीं होती

अखंडता की भावना

तुम्हें मसीहाई सूझती है

तुम्हें अप्राकृतिक सुन्दर अट्टालिकाएँ नहीं दिखतीं

केवल भूखे लोग दीखते हैं

जोर से बोलने पर

सच भी जोरदार माना जा रहा है

तारे भी सूरज है…

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Added by वीनस केसरी on April 9, 2013 at 5:00pm — 5 Comments

तुम

चमका जैसे कोई तारा ,

हलचल जैसे दूर किनारा ,

निर्मल शीतल गंगा की धारा ,

व्यग्र व्यथित बादल आवारा , बांधना चाहूं पल दो पल ,

तुम............................

दूर-दूर तक धँसी सघन ,

प्रफ्फुलित मन कंपित सी धड़कन ,

घना कोहरा शुन्य जतन ,

बस समय सहारा टूटे ना भ्रम ,

थामना चाहूं कोई हलचल ,

तुम................................

धूप उतरे कहीं पेड़ों से ,

सुकून जैसे बारिश की रिमझिम…

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Added by अशोक कत्याल "अश्क" on April 9, 2013 at 4:01pm — 3 Comments

मिट्टी के घरोंदे टूट गये .......

मिट्टी के घरोंदे टूट गये

इंटो के महल बनाने मे

हम भूल गये संस्कृति अपनी

खुद को आधुनिक बनाने मे

पापा का प्यार न याद रहा

माँ की ममता भी भूल गये

ये बच्चे जो मशगुल हुए

खुद की पहचान बनाने में…

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Added by Sonam Saini on April 9, 2013 at 3:30pm — 6 Comments

बीर छंद या आल्हा छंद

बीर छंद या आल्हा छंद

(यह छंद १६-१५ मात्रा के हिसाब से नियत होता है. यानि १६ मात्रा के बाद यति होती है. वीर छंद में विषम पद की सोलहवी मात्रा गुरु (ऽ) तथा सम पद की पंद्रहवीं मात्रा लघु (।) होती है. )

एक प्रयास किया है मैंने गुरुजनों का अमूल्य सुझाव मिलेगा ऐसी अपेक्षा है !!

कूद पड़ी जब रण में माता ,दानव दल में हाहाकार !

एक हाथ में भाल लिए थी ,दूजे हाथ पकड़े तलवार !!



हाथ काटती पैर काटती ,कछु दुष्ट का लै सिर उपार !!

दौड़ा -दौड़ाकर तब माता…

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Added by ram shiromani pathak on April 9, 2013 at 2:30pm — 11 Comments

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