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मानस के रचनाकार में भी पुरुष अहम् भारी .

 [listen on shikhakaushik06  ]
 

Stamp on Tulsidas

सात कांड में रची तुलसी ने ' मानस ' ;

आठवाँ लिखने का क्यों कर न सके साहस ?



आठवे में लिखा जाता सिया का विद्रोह ;

पर त्यागते कैसे श्री राम यश का मोह ?



लिखते…

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Added by shikha kaushik on September 4, 2012 at 3:00pm — 15 Comments

मैं तो बस इक गुरु का शिष्य हूँ

मैं तो बस इक गुरु का शिष्य हूँ



बहुत उकसा के पूछा

बताओ कौन हो तुम

क्या हो तुम ???



तुम दिखावटी हो

या सच में फूल हो

नहीं नहीं

शायद तुम खार हो

कितना ग़ज़ब लगता है

तुम्हारा अलग अलग सा दिखना

किसने पैदा किया है तुम्हे 

कोई जादूगर

बागवान था क्या ??

गेंदे के फूल से 

गुलाब की खुशबू

लाजवाब है ये कारीगरी

खुदाई सी लगती है

पर है हकीकत



चाँद तारा या आफताब

क्या हो तुम

या जर्रा-ए-कायनात…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on September 4, 2012 at 1:30pm — 3 Comments

काव्य रस अपनाओ जी ----

धीरे धीरे बोंलो जी,
कानो में रस घोलो जी |
 
चबा चबा कर खाओ जी, 
खाओ और पचाओं जी :|
 
भोगी से योगी बनना सीखो, 
रोगी कभी न बनना जी | …
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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 4, 2012 at 11:30am — 10 Comments

वक़्त

वक़्त भी क्या चीज है यारों

हर ओर हकूमत, इसकी छाई है

कही छाया है मातम की

तो कहीं बजी शहनाई है l



गिरगिट सा है रंग बदलता

हर्षित, भयभीत, भ्रमित कर

परिचय जग को अपना देता

रंक से राजा पल में बनता

वक़्त जिस पर मेहरबान हुआ

क्षणभर भी न टिकता जग में

काल का भयंकर जब वार हुआ



रावण राजा बड़ा निराला

अहं स्वयं के शिकार हुआ

क्षण भर में परलोक सिधारा

दुस्साहस जब वक़्त से

टकराने का था उसने किया

ग्रसित करता पलभर में…

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Added by PHOOL SINGH on September 4, 2012 at 10:00am — 8 Comments

ओबीओ एक अनूठा मंच है -------

ओबीओ में विशाल मेंला लगा था

छंद कवियों का तांता लगा था |



मैंने वहां ;दोहा;नाम से कविता दागी


प्राचार्य ने यह दोहा नहीं कह हटा दी |



मैंने फिर छन्-पकैयां लिख लगा दिए


गुरुवर ने नरम हो कुछ सुझाव दिए |



एक अलबेला कूद पड़े बोंले मानलो


सिष्य से प्राचार्य बना देंगे जानलो |



गुरुवर बोंले ये कर्म योगी का…

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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 4, 2012 at 5:30am — 14 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
मन को जरा टटोलो जी .......

स्वर में अमृत घोलो जी

फिर अधरों को खोलो जी |



नहीं खर्च कुछ होने का

मीठा – मीठा बोलो जी |.



देने वाला कैसे दे ?

हाथ मलिन…

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Added by अरुण कुमार निगम on September 3, 2012 at 9:30pm — 15 Comments

शिक्षक दिवस पर विशेष.......

गुरुओं से संसार है, गुरुवर शब्द विराट |

गुरु को पा के बन गया, चन्द्रगुप्त सम्राट ||



विद्या दो हे विद्यादाता | करूँ नमन नित शीश झुकाता ||

आन पड़ा हूँ शरण तिहारे | घने हुए मन के अँधियारे ||

दुखित ह्रदय नहीं दिखे उजाला | रोके रथ अज्ञान विशाला ||

कुछ न सूझे भरम है भारी | लागे मोहि मत गई मारी ||

दीन-हीन आया हूँ द्वारे | उर में आस की ज्योति धारे ||

ज्ञान मिलेगा यहाँ अपारा | निर्झरणी सम शीतल धारा ||

धार कलम की तेज बनाओ | कृपा…
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Added by कुमार गौरव अजीतेन्दु on September 3, 2012 at 9:00pm — 20 Comments

टूटा शीशा(लघुकथा)

जब मैं बाजार से लौटकर आया तो देखा कि पड़ोसी के बच्चे मेरी खिड़की के पास खड़े हैं।

"लगता है इन कमबख्तों ने खिड़की का शीशा तोड़ दिया,इनके बाप से वसूलता शीशे का दाम"-मैंने सोचा।

जब मैं खिड़की के पास पहुंचा तो देखा कि वास्तव में शीशा टूटा हुआ है।अब तो मेरा रोष सातवें आसमान पर पहुंच गया।

मैंने डपटकर पूछा-"किसने तोड़ा है इसे?.........मेरा मुंह क्या देख रहो सब? जवाब दो।"सभी बच्चे डर गये।

तब तक मेरी नजर वहीं पास खड़े मेरे अपने बेटे मनीष पर गई,मैं डर गया कि "कहीं इसने तो नहीं तोड़ा,फिर मैं… Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on September 3, 2012 at 6:30pm — 24 Comments

"जिन्दगी का कोरा सच

"जिन्दगी का कोरा सच "



सच

जिन्दगी का

कभी ग़ज़ल बना

कभी नज्म

कभी रुबाइयाँ

लिखते रहे

गुनगुनाते रहे

सुनते रहे

सुनाते रहे

क्या क्या न लिखा

धुप छाँव

राह, मंजिल

पड़ाव

गुल, गुलशन

खार

कभी जिन्दगी

इक भार 

दोस्त, यार

फिर दुनिया में

भ्रष्टाचार

हाहाकार

कभी सम्मान

कभी तिरस्कार

कभी लगती रही 

ये व्यापार

खुद दुकानदार

कभी नफरत

तो कभी प्यार

बार बार

लेकिन

हर…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on September 3, 2012 at 4:19pm — 19 Comments

माननीय शिक्षकों को शालिनी का प्रणाम

Successfu...

अर्पण करते स्व-जीवन शिक्षा की अलख जगाने में ,

रत रहते प्रतिपल-प्रतिदिन  शिक्षा की राह बनाने में .

Teacher : teacher with a group of high school students in classroom

आओ मिलकर करें स्मरण नमन करें इनको मिलकर ,

जिनका जीवन हुआ सहायक हमको सफल बनाने में…

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Added by shalini kaushik on September 3, 2012 at 1:58pm — 5 Comments

कवित्त पर एक प्रयास.

मारा गया फ़कीर जो गया वह रोटी लाने,
बहती थी नदिया वेग तेज बहुत था /
मचा हाहाकार कोहराम कोई नहि जाने,
हुआ पानी लहू का वेग तेज बहुत था /

दीप बुझे कई देखो बाती जैसे टूट गई,
यों बही पुरवाई झोंका तेज बहुत था /
सिमट गए मानव मूल्य माता रूठ गई,
पश्चिम की आंधी का झोंका तेज बहुत था /

Added by Ashok Kumar Raktale on September 3, 2012 at 1:30pm — 8 Comments

सब नश्वर है

सब कुछ जग में है, नश्वर

एक ही सबका हैं, ईश्वर

हिन्दू ,मुश्लिम, सिख, ईसाई

अनेक धर्मो में बट गया जग

फिर भी मन में है, भटकन l

सच जीवन का दर्पण है                    

वेद पुराण में वर्णन है

समाहित कर जग कल्याण को

गीता जग में उपस्थित है

मन में फिर क्यूँ भटकन है l

कभी खिलखिला हँसता जब

ओरो को दुःख देकर

कभी असहाय बन

खुद रोता तड़प तड़प कर

कृत्य अपने स्मरण कर  l

रात्रि गुजारता करवटे बदल

कभी…

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Added by PHOOL SINGH on September 3, 2012 at 11:13am — 8 Comments

गुरु (शिक्षक)

गुरु ऐसा दीजिये प्रभु,चेला बने महान II

गुरु की भी अटकी रहे,चेले में ही जान II

चेले में ही जान,काम ऐसे कर जाए I

खुद का जो हो नाम,मशहूर गुरु हो जाए II

चेला ले गुरु नाम,सदा इश्वर के जैसा I

होवे बेड़ा पार, मिले जीवन गुरु ऐसा II





शिक्षा सदा वशिष्ठ से, पाते हैं श्रीराम I


और है श्रीकृष्ण से,सांदिपनी का नाम II

सांदिपनी का नाम, इश्वर भाग्य विधाता I

चतुर चाणक्य नाम,याद बरबस आ जाता II…

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Added by Ashok Kumar Raktale on September 3, 2012 at 8:30am — 10 Comments

हाइगा (एक प्रयास)

प्रस्तुत चित्र मेरे द्वारा बनाया गया है.........

Added by कुमार गौरव अजीतेन्दु on September 3, 2012 at 8:07am — 10 Comments

"ज़मीं"

ये कहाँ खो गई इशरतों की ज़मीं;

मेरी मासूम सी ख़ाहिशों की ज़मीं; (१)



फिर कहानी सुनाओ वही मुझको माँ,

चाँद की रौशनी, बादलों की ज़मीं; (२)



वक़्त की मार ने सब भुला ही दिया,

आसमां ख़ाब का, हसरतों की ज़मीं; (३)



जुगनुओं-तितलियों को मैं ढूंढूं कहाँ,

शह्र ही खा गए जंगलों की ज़मीं; (४)



दौड़ती-भागती ज़िंदगी में कभी,

है मुयस्सर कहाँ, फ़ुर्सतों की ज़मीं; (५)



गेंहू-चावल उगाती थी पहले कभी,

बन गई आज ये असलहों…

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Added by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on September 3, 2012 at 3:00am — 32 Comments

मिठास रिश्तों की

अरे ! कहाँ गई !

अभी तो यहीं थी !

लगता है कहीं गिर ही गई

इस आपाधापी में,

हो सकता है कुचल दी गई होगी

किन्हीं कदमों के तले,

या फिर उड़ा ले गया उसे

झोंका कोई हवा का ;

चाहे चुरा ले गया होगा चोर कोई,

लेकिन चुराएगा कौन !

चीज तो काफी पुरानी थी

फटी-चिटी, धूल-धूसरित,

बहुत संभव है फेंक दिया होगा

किसी ने बेकार समझ के

और ले गया होगा कोई

आउटडेटेड आदमी अपने

स्वभाव के झोपड़े में लगाने के लिए ;

कहीं कहानी लिखनेवाले

तो उठा नहीं ले गये…

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Added by कुमार गौरव अजीतेन्दु on September 2, 2012 at 7:23pm — 16 Comments

छ मुक्तक

किस्मत ने हमको रोका, कहा ! मुसुकुराए क्यूँ हो 
हारे हो तुम तो मुझसे लेकिन हराए क्यूँ हो
इतना तो तुमसे सीखा , कभी यूँ न डगमगाना 
कैसी भी  हो डगर पर , सदा तुम सा मुस्कुराना 
_________________________________________
आगोश में हमारे , आना मगर संभलना 
जुल्फों से खेलें हम भी , बूंदों सा तुम बरसना 
देखो तो देखो ऐसे ,  जैसे धरती निहारे बादल 
बस…
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Added by Ashish Srivastava on September 2, 2012 at 7:05pm — 4 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
साँचा विद्वान (दोहावली )

प्रेम कसूरी उर बसै, वन उपवन मत भाग ,

मृग दृग अन्तः ओर कर, महक उठेंगे भाग ll1ll

**************************************************

आत्मान्वेषण है सहज, यही मुक्ति का द्वार,

बाहर खोजे जग मुआ, भीतर सच संसार ll2ll

**************************************************

पूरक रेचक साध कर, जो कुम्भक ठहराय ,

द्विजता तज अद्वैत की, सीढ़ी वो चढ़ जाय ll3ll

*************************************************

वर्तमान ही सत्य है, शाश्वत इसके पाँव ,

नित्यवान के शीश पर, वक्त…

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Added by Dr.Prachi Singh on September 2, 2012 at 7:00pm — 14 Comments

चार मुक्तक

तुम छोड़ क्या गए हो रूठा है जमाना 

कहते है लोग मुझसे झूठा है ये फ़साना 

मैं पूछता हु उनसे पूजते हो क्यों तुम 

राधिका का था प्रेमी कृष्ण था दीवाना !!



तुम पर हमने कितना ऐतवार किया 

खुद को भूला, इतना बेज़ार किया

शक तुम्हारा कब छोड़ेगा तुम्हारा साथ

हद की हद हो गई इतना इंतज़ार किया



आइना बदलने से , सूरत नहीं बदलती 

जो पत्थर के बने, मूरत नहीं बदलती 

ईमान, खूलूश से जो जीने का हुनर रखते है

हालात…
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Added by yogesh shivhare on September 2, 2012 at 3:30pm — 2 Comments

एक ख्वाहिश जलने की

कभी चिराग बनकर जला

कभी आग बनकर जला

जली हो चाहे किसी की भी खुशियाँ 

लेकिन मैं ही दाग बनकर जला...01

.

सुलग-२ जल रहा जिस्म ये मेरा..

तपते आशियाने ही रहा अब मेरा डेरा..

कभी किसी ने तरस खाकर छोड़ा,

तो कभी किसी के लिए हिसाब बनकर जला....02

.

धोका देकर मुझे…

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Added by Pradeep Kumar Kesarwani on September 2, 2012 at 3:30pm — 2 Comments

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