आज तक वो नही मिली ,जिसकी दरकार थी ,
झूठी निकली मेरी तमन्ना ,पीड़ मिली हार बार थी ॥
तिनका -तिनका जोड़ परिंदों ने, घर अपना बना लिया ,
ना मिला कोई मेरे घर को,वैसे इनकी भरमार थी ॥
जब तक उसने मुड कर देखा ,तब तक हम दूर थे ,
मुड कर उन तक जा ना सके ,पैर बहुत मजबूर थे ॥
जिसको लेकर वो उलझे थे ,उनकी ग़लतफ़हमी थी ,
जिसे वो जीत समझे थे , वास्तव में उनकी हार थी ॥
''कमलेश''इन उल्फतों को क्या नाम देंगे आप सब ,
जिसे आप समझ बैठे ''हाँ ''वह उनकी…                      
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                                                        Added by कमलेश  भगवती  प्रसाद  वर्मा on June 8, 2010 at 10:59pm                            —
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                      याद तेरी आये तो ग़ज़ल कहता हूँ
रात दिन मुझको सताए तो ग़ज़ल कहता हूँ
होंठ स अपने पिलाए तो ग़ज़ल कहता हूँ
आँखों स आँख मिलाये तो ग़ज़ल कहता हूँ
चांदनी रात में तनहा मै कभी होता हूँ
याद में नींद न आये तो ग़ज़ल कहता हूँ
जब कोई होंठ पर मुस्कान सजा कर अपने
शर्म स आँख झुखाये तो ग़ज़ल कहता हूँ
पढ़ के अशार को "अलीम" के अगर कोई भी
मेरी हिम्मत को बढाए तो ग़ज़ल कहता हूँ                                          
                    
                                                        Added by aleem azmi on June 8, 2010 at 6:10pm                            —
                                                            4 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      पुल नहीं , तो वोट नहीं
रोड नहीं ,तो वोट नहीं ॥
सुनकर वोटरों की ये चिल्लाहट
बढ़ी नेताजी की घबराहट ॥
उड़ चले वो
वोटरों के गाँव
पहले खेला जाती का दावँ
जब वोटर न हुए
टस से मस
तब उन्होनें सवाल दागा
कितने लोगों के पास है
ट्रक्टर / ट्रक और बस
वोटर थे सब चुप ॥
फिर बोले .....
तब रोड का क्या फायदा
ऊँची जाती वालो के पास है
ट्रक्टर , ट्रक और बस
उनके ट्रक का चक्का टूटने दो
थोडा उनको और गरीब होने दो
फिर…                      
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                                                        Added by baban pandey on June 8, 2010 at 6:10pm                            —
                                                            6 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      देखा है जब से आपको हमने हिजाब में
लगता नहीं हमारा दिल अब किताब में
पी कर तुम्हरी आँख से महसूस यह किया
मस्ती न कुछ दिखी है खालिस शराब में
क्या तुमको मुझसे प्यार है पुछा था एक सवाल
मुस्कान लब पे रख दिया उसने जवाब में
शायद वो हमसे प्यार अब करने लगा जनाब
वो आप आप कहता है हमको खिताब में
मै क्यों न अपनी जान को तुम पर करू निसार
कयामत छुपी आपके "अलीम" शबाब में                                          
                    
                                                        Added by aleem azmi on June 8, 2010 at 5:52pm                            —
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                      बिहार के मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार ६ जून को भागलपुर के नवगछिया प्रखंड में धरहरा गाँव में गए थे. इस गाँव की परम्परा उन्हें वहाँ खींच ले गयी थी. मुझे याद है, मैं अपनी एक कहानी में लिखा था कि परम्परा इंसान के लिए बनी है - इंसान परम्परा के लिए नहीं बना है. धरहरा गाँव की परम्परा अदभुत है, मैं सलाम करता हूँ इस रिवाज़ को. सचमुच यह परम्परा इंसान के लिए बनी है. इस गाँव में बेटी के जन्म लेने पर पेड़ लगाने की परम्परा है. बेटी और पर्यावरण के प्रति इस गाँव के लोगों का प्यार वाकई सराहनीय है. इस गाँव के…                      
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                                                        Added by satish mapatpuri on June 8, 2010 at 4:23pm                            —
                                                            4 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      गीत :
भाग्य निज पल-पल सराहूँ.....
संजीव 'सलिल'
*
भाग्य निज पल-पल सराहूँ,
जीत तुमसे, मीत हारूँ.
अंक में सर धर तुम्हारे,
एक टक तुमको निहारूँ.....
नयन उन्मीलित, अधर कम्पित,
कहें अनकही गाथा.
तप्त अधरों की छुअन ने,
किया मन को सरगमाथा.
दीप-शिख बन मैं प्रिये!
नीराजना तेरी उतारूँ...
हुआ किंशुक-कुसुम सा तन,
मदिर महुआ मन हुआ…                      
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                                                        Added by sanjiv verma 'salil' on June 8, 2010 at 1:00am                            —
                                                            8 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      यदि एकलव्य से विद्यार्थी नहीं होते
तो द्रोणाचार्य कभी स्वार्थी नहीं होते
कहीं पे भाव का अनुवाद छूट जाता है
कहीं पे शब्द समानार्थी नहीं होते
न जाने कौन सा बनवास है की बंजारे
किसी नगर में भी शरणार्थी नहीं होते
न आज है कोई अर्जुन न है महाभारत
तभी तो कृष्ण कहीं सारथि नहीं होते
विनम्रता से क्षमा याचना जो करते हैं
सदा ह्रदय से क्षमाप्रार्थी नहीं होते                                          
                    
                                                        Added by fauzan on June 8, 2010 at 12:00am                            —
                                                            7 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      ऐ कवि-शायर! कहाँ तुम छिप कर बैठे हो. ज़रा बाहर निकल कर देख तेरी कल्पना क्या है.
कहाँ निर्भीक वह यौवन, जिसे तुम शोख कहते हो.
कहाँ जलता हुआ सौन्दर्य, जिसको ज्योति कहते हो .
कहाँ कंचनमयी काया, कहाँ है जुल्फ बादल सा.
किधर चन्दन सा है वह तन, कहाँ है नैन काजल सा.
हाँ देखा है सड़क पर शर्म से झुकती जवानी को, सुना कोठे की मैली सेज पर लुटती जवानी को.
इसी मजबूर यौवन पर लगाकर शब्द का पर्दा, सच्चाई को छिपाने का तेरा यह बचपना है क्या.
ज़रा बाहर निकल कर देख तेरी कल्पना है…                      
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                                                        Added by satish mapatpuri on June 7, 2010 at 4:56pm                            —
                                                            7 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      हवा मिस- झुक -लुक -लुक -छुप
डार-डार से करे अंखियां चार
कस्तूरी हुई गुलाब की साँसें
केवड़ा,पलाश करे श्रृंगार
छूते ही गिर जाये पात लजीले
इठलाती-मदमाती सी बयार
सुन केकि-पिक की कुहूक-हूक
बौरे रसाल घिर आये कचनार
अम्बर पट से छाये पयोधर
सुमनों पर मधुकर गुंजार
कुंजर,कुरंग,मराल मस्ती में
मनोहर,मनभावन…                      
Continue
                                          
                                                        Added by asha pandey ojha on June 7, 2010 at 12:44pm                            —
                                                            11 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      बाल कविता :
गुड्डो-दादी
संजीव 'सलिल'
*
गुड्डो नन्हीं खेल कूदती.
खुशियाँ रोज लुटाती है.
मुस्काये तो फूल बरसते-
सबके मन को भाती है.
बात करे जब भी तुतलाकर
बोले कोयल सी बोली.
ठुमक-ठुमक चलती सब रीझें
बाल परी कितनी भोली.
दादी खों-खों करतीं, रोकें-
टोंकें सबको : 'जल्द उठो.
हुआ सवेरा अब मत सोओ-
काम बहुत हैं, मिलो-जुटो.
काँटें रुकते नहीं घड़ी के
आगे बढ़ते जायेंगे.
जो न करेंगे काम समय पर
जीवन भर…                      
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                                                        Added by sanjiv verma 'salil' on June 7, 2010 at 9:45am                            —
                                                            5 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      (जातिगत जनगणना को लेकर लिए गए फैसले के ऊपर )
अरे यार !!
कान में मत फुस्फुसाओ
खुलकर जाती पूछो ।
सरकारी लाइसेन्स ही मिल गया ..
.संसद के अन्दर
नेताओ की मुहर लग गयी यार ...
जातिगत जनगणना को लेकर ॥
अब इंटरवेऊ में
नहीं पूछा जाएगा
आपके रिसर्च का ज्ञान
भोतिक और रसायन विज्ञानं ॥
आपसे पूछा जाएगा ....
आपके जातिगत पेशे
कैसे दुहते हो गाय
कैसे कराते हो पूजा
कैसे बनाते हो जूता ...
पुनः लौटो यार
मनुवाद की ओर…                      
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                                                        Added by baban pandey on June 7, 2010 at 8:01am                            —
                                                            3 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      आसमान को
कौन छुना नहीं चाहता , मेरे दोस्त !!
तारे तोड़ने की ईच्छा
किसे नहीं होती ॥
परन्तु , आसमान छुने पर
दंभ मत भरना , मेरे दोस्त !!
हिमालय भी दंभ भरता था
अपनी ऊँचाई का .....
न जाने कितनी बार
तोड़ा गया उसका दंभ ॥
पहाड़ के शिखरों पर रखे
पथ्थरो की बिसात ही क्या
किसी भी दिन
कुचल दिए जायेगे
सडकों के नीचे
बड़े -बड़े मशीनों द्वारा ॥
और अंत में ....
यह भी याद रखना , मेरे दोस्त
दरखतो की उपरी…                      
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                                                        Added by baban pandey on June 6, 2010 at 9:54pm                            —
                                                            4 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      ब्लॉग के शीर्षक से आपको लगता होगा कि यह कहानी कोई खाने - खिलाने से सम्बंधित है ..मगर नहीं ..यह कहानी ..न्याय से सम्बंधित है ..यह कहानी मुझे पटना विश्वविद्यालय के एक प्रोफ़ेसर ने सुनाया था ..
प्रोफ़ेसर साहब एक बार भ्रमण के लिए रूस गए थे ... वहां उन्होंने नयायालय में हो रहे प्रकिरिया को देखना चाहा... वे एक न्यायलय में गए . एक नौकर ने अपने मालिक के घर से ४०० रुब्बल कि चोरी कर ली .थी . मालिक ने उस पर केश दर्ज करबा दिया था ..
जज ने नौकर से पूछा.." तुमने चोरी क्यों की"
नौकर ने कहा "…                      
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                                                        Added by baban pandey on June 6, 2010 at 12:18pm                            —
                                                            6 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      पुल .....
अर्थात ...मिलन
दो गांवों का /दो देशों का
और
नदियों को लांघने का एक संरचना ॥
रिश्तों का पुल बनता है
जब दो परिवार
शादी के बंधन में बंधते है ।
कुछ दिनों पहले पढ़ा था
एक तलाक शुदा दंपत्ति के
१२ वर्षीय पुत्र ने
माता -पिता के दिलो को जोड़ा
पुल बनकर ॥
प्रजातंत्र में भी
पुल बनाया जाता है
नेताओ और वोटरों के बीच
भाषणों का / आश्वासनों का
जो तुरंत ही ढह जाता है ॥
दरअसल…                      
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                                                        Added by baban pandey on June 6, 2010 at 11:50am                            —
                                                            5 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      गुमाँ का बोझ हटा तो संभल गया हूँ मैं
इसी यक़ीन के नीचे कुचल गया हूँ मैं
ये क्या कि मोम कि सूरत पिघल गया हूँ मैं
तेरे क़रीब की हर शय में ढल गया हूँ मैं
इस अंधकार की सीमा तलाशने के लिए
एक आफताब से आगे निकल गया हूँ मैं
अज़ीज़ दोस्त के चेहरे की अजनबी आँखें
बता रहीं हैं कि कितना बदल गया हूँ मैं
मेरा वजूद समंदर की रेत जैसा है
ख़याल छाओं का आते ही जल गया हूँ मैं                                          
                    
                                                        Added by fauzan on June 4, 2010 at 5:32pm                            —
                                                            7 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      तकदीर
गर रोने सी ही
बदल सकती तकदीर
यह ज़मीन बस सैलाब होती
गर अश्क बहाने सी होती
हर गम की तदबीर
यह नम आंखें
कभी बेआब न होती                                          
                    
                                                        Added by rajni chhabra on June 4, 2010 at 8:50am                            —
                                                            9 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      रक्त से सारा मरुस्थल तरबतर करते हुए
प्राण तो त्यागे मगर खुद को अमर करते हुए
सब्र की सारी हदों से कोई आगे बढ़ गया
अग्निपथ पे तिशनगी को अग्रसर करते हुए
उसके चेहरे के वरक़ को झुर्रियों से भर दिया
उम्र की रेखाओं ने हस्ताक्षर करते हुए
धीरे धीरे बोझ बुनियादों पे कम होता गया
वक़्त यूँ गुज़रा हवेली को खंडहर करते हुए
ज़िंदगी वो खेल है जिसका समापन ही नहीं
मौत आई खेल मे मध्यांतर करते हुए                                          
                    
                                                        Added by fauzan on June 3, 2010 at 9:47pm                            —
                                                            8 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      नेट पे होती है बाते ,
फिर होती है मुलाकाते ,
यारो दिल की सुनो ,
कहता हु दोस्ती के नाते,
ये तो सुनहरा मौका ,
देता हैं (ओ बी ओ )
प्यार से मिलो और ,
प्यार में ही जिओ ,
गुरु के संग गणेश जी ,
और सतीश जी ,
पावन स्थल पटना,
मंदिर महाबीर की ,
तीनो जो हम मिले ,
दोस्ती दिल के खिले ,
लगता नहीं था यारो ,
पहली बार हम मिले ,
बरसो की दोस्ती हो ,
हो बरसो से मिलते रहे ,
दिल में बहुत हैं बाते ,
और मैं क्या कहू…                      
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                                                        Added by Rash Bihari Ravi on June 3, 2010 at 4:00pm                            —
                                                            6 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      आज दिनांक 02/06/2010 को ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार के कुछ सदस्यो का मिलन पटना के पवित्र महावीर मंदिर के प्रांगण मे हुआ, जिसका चित्र यहाँ देखा जा सकता है |

पटना के पवित्र महावीर मंदिर

रवि कुमार "गुरु" और सतीश मापतपुरी जी


गनेश जी "बागी", रवि कुमार "गुरु" और सतीश मापतपुरी जी…
                      
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                                                        Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on June 2, 2010 at 10:32pm                            —
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                      सीना नहीं बना पाए तो क्या ..पेट तो फुला लिया .. अपराध मिटा न सके तो क्या .. अवरोधक तो बना लिया ....
पेट में जो चर्बी है सब आम जनता की अमानत है ..वापस लेना है की नहीं..
. इतनी चर्बी से ना जाने कितने घुप्प घरो के दिए रोशन हुए होते ..

                                          
                                                        Added by Anand Vats on June 2, 2010 at 12:09pm                            —
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