अपरिचय, संवेदना है, भावना है ,
उसे क्या जो पुष्प से पत्थर बना है !
मिले उनको हर्ष के बादल घनेरे ,
एक बंजर-व्योम तो हम पर तना है !
चित्र है उत्कीर्ण कोई चित्त पर ,
ठहर जाती जहां जाकर कल्पना है !
सूर्य की ये रश्मियाँ बंधक बनीं हैं
एक अंधी कोठरी मे ठहरना है !
रास्ते अब स्वयं ही थकने लगे हैं
पूछता गंतव्य मन क्यों अनमना है ?
_______________________प्रो. विश्वम्भर…
Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 30, 2013 at 10:57pm — 22 Comments
शौक है , अजीब लगता है,
दर्द कोई रकीब लगता है !
रोज तरसा है मुस्कुराने को
चेहरे-चेहरा गरीब लगता है !
ये गम हैं कि छोड़ते ही…
ContinueAdded by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 29, 2013 at 7:30pm — 11 Comments
भक्तों के मुख मलिन हैं ,पूजा-गृह में गर्द ,
प्रभु अपने किससे कहें देव-भूमि का दर्द !
हुई न ऐसी त्रासदी जैसी है इस बार ,
प्रभु ने झेली आपदा बदरी क्या केदार !
बादल,बारिश,मृत्यु के कारण बने पहाड़ ,
धरती काँपी,मनुज के थर-थर काँपे हाड़…
ContinueAdded by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 24, 2013 at 10:30pm — 13 Comments
Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 23, 2013 at 10:30pm — 7 Comments
हेलीकाप्टर से उड़ान हुई ,
संवेदना उनकी महान हुई !
घूमे ,फिरे ,खेले ,खाए ,
किस कदर थकान हुई !
ये जो मौत के मंज़र देखे,
कुदरत है ,मेहरबान हुई…
ContinueAdded by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 22, 2013 at 11:00pm — 9 Comments
एक निर्झर नदी सी बहो
खिलखिलाती हुई कुछ कहो
फासले अब नहीं दरमियां
आंच है,उम्र है,गरमियां
अब तो सम्बन्ध हैं इस तरह
जैसे हों झील में मछलियां
थाम लेंगे…
ContinueAdded by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 22, 2013 at 12:23am — 7 Comments
ये आह पानी ,वो वाह पानी ,
कर गया आखिर तबाह पानी !
कभी बादलों से रही शिकायत ,
जिधर डालिए अब निगाह पानी !
दिखे ऐसे मंजर,उतराती लाशें
उठे दर्द,चीखें,कराह पानी !
जहां ज़िंदगी मांगने को गए थे,
कर के गया सब सियाह पानी !
रहम करनेवाला खुद ही परीशां
माँगी है तुझसे पनाह पानी !
____________प्रो.विश्वम्भर शुक्ल ,लखनऊ
(मौलिक और अप्रकाशित…
ContinueAdded by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 20, 2013 at 11:00pm — 10 Comments
ज़िंदगी किताब ,आइये पढ़ें
दर्द बे-हिसाब,आइये पढ़ें
हंसते चेहरों पे जमी गर्द
आँखों में सैलाब ,आइये पढ़ें
सिर्फ काँटों की…
ContinueAdded by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 19, 2013 at 10:30pm — 8 Comments
Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 18, 2013 at 11:00pm — 11 Comments
कभी हम यूँ भी अकेले होंगे ,
भीड़ होगी ,तन्हाई के मेले होंगे ,
याद आएगा एक वह आँगन
जिसमे हम मौज से खेले होंगे !
*
आंधियां,तूफ़ान हों ,ये चाहते हैं हम,…
Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 17, 2013 at 11:12pm — 12 Comments
लो हँसी दूब
बादल जो छलके
बहुत खूब
*
नेह की बूँद
मन पांखुरी पर
गिरी अब,लो
*
मन विभोर
कर गए बदरा
जी सराबोर
*
मुंह चिढाया …
Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 16, 2013 at 11:04pm — 9 Comments
देखकर लोग बहुत दंग,पूत ,
ढोल बजते औ मृदंग,पूत !
तुमसे अब कौन मुक़ाबिल है
जीत लेते हो खूब जंग ,पूत !
एक बिल्ली थी वो भाग गई,
तुम तो निकले दबंग,पूत !
कौन तुमसे हिसाब मांगेगा ?
डाल दी है कुएं में भंग,पूत !…
ContinueAdded by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 15, 2013 at 11:37pm — 4 Comments
वो दिखे ही नहीं इन दिनों
दूज का चन्द्रमा हो गए
इतने बीमार हम भी नहीं
अपनी खुद ही दवा हो गए
हैं सु-फल आपकी दृष्टि के
क्या थे हम और क्या हो…
ContinueAdded by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 14, 2013 at 11:51pm — 13 Comments
सुना भगवानों के पास धन बहुत,
और अपने देश में निर्धन-बहुत !
मंदिरों में जमा है अकूत सोना ,
वहीँ द्वार पर भूखी भीड़,दो,ना !
…
ContinueAdded by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 12, 2013 at 9:30pm — 8 Comments
गिरा दे बूँदें
प्रतीक्षारत हम
नयन मूंदे
*
और न कस
हर कोई बेबस
अब बरस
*
चली जो हवा
उड़ गए बादल
हम नि:शब्द
*
मन बहका
आवारा बादल सा
उड़ गया लो
*
बरसे धार
बढे -उमड़े प्यार
हर्ष अपार
*
सब है वृथा
काश, घन सुनते
हमारी व्यथा
*
सलोने घन
या तो डुबो देते हैं
या जाते डूब
*
आये बौछार
बजें मन के…
ContinueAdded by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 11, 2013 at 2:27pm — 7 Comments
ज़िंदगी इतने दिन तूफ़ान रही,
कभी बारिश,कभी मुस्कान रही
मिर्च थी खूब,मसाले भी बहुत
सौदा-सुलुफ की ये दुकान रही
लोग चेहरे लगाये ,आये ,गए
कौन रिश्ते थे बस पहचान रही
आसमां पर निरी सलाखें थीं
अपनी आँगन में ही उड़ान रही
खूब ढोया है उम्र को हमने
इसलिए दोस्त,कुछ थकान…
Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 10, 2013 at 10:55pm — 12 Comments
गाँव बदले हुए हैं ,शहर हो गए ,
स्वार्थ की आत्म-केंद्रित नहर हो गए,
सूर्य में थीं यहीं नेह की रश्मियाँ
रिश्ते सब गर्म अब दोपहर हो गए !
*
आओ मिलकर मोड दें पन्ने किताब के ,
और ढूँढें फूल कुछ सूखे गुलाब के ,
सकपकाई उम्र ,वो बारिश सवालों की
खूबसूरत झूठ ,वो किस्से जवाब के !
*
दर्द को खूब लिखा ,
गहरे जा डूब लिखा ,
पाँव जब जलने लगे
पथ को हरी दूब लिखा !
*
रूप की एक नदी बहती है,,
खूबसूरत ए हंसी लगती है,
फूल,घाटी…
Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 9, 2013 at 10:00pm — 8 Comments
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