हे जलधि, जब कोई ग़ोताखोर
तुम्हारे गर्भ में घुस,
मोती चुग-
दूर हो जायेंगा,
प्यार को वासनामयी
आँखों से देखा जायेंगा |
अगर- ग़ोता लगा,
गर्भ में ही लीन हो जायेंगा,
प्यार पूज्य हो जायेंगा |
फूल-सा चेहरा खिलेगा(जन्मेगा)
चमन में खुशबु महकेगी
किसी को कोई
आपत्ति नहीं होगी |
- लक्ष्मण लडीवाला, जयपुर
Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 5, 2012 at 11:30am — 5 Comments
हर इंसान की अपनी एक छोटी सी दुनिया है। जिसमें वह अपनी हैसियत के मुताबिक रहता है। एक खुशी की तलाश में वह यहां-वहां भटक रहा है। खुशी भी क्या, बस वह जी-तोड मेहनत के बाद मालूम चलता है कि आज यह कमी है, कल को इसका पूरा करना है। अगले दिन कोई और ही दुख सामने खड़ा दिखाई देता है। सिर्फ कहने भर की बातें होती है हम तुम्हारे साथ है, हम सब एक है। सच्चाई यह है कि कोई किसी के साथ नहीं है यहां तक कि वह भी जो उसके अपने होते है, जिनके साथ वह बचपन से खेलता-कूदता हुआ बड़ा हो जाता है। वह भी अपनी-अपनी छोटी दुनिया…
ContinueAdded by Harish Bhatt on July 5, 2012 at 10:45am — 4 Comments
तेरी भीगी निगाहों ने जब-जब छुआ है मुझे,
तेरा एहसास मिला तो कुछ-कुछ हुआ है मुझे,
फिसल कर छूट गया तेरा हाथ मेरे हाथों से,
सितम गर ज़माने से मिली बददुआ है मुझे,
लगी है ठोकर संभालना बहुत मुश्किल है,
घूंट चाहत का लग रहा अब कडुआ है मुझे,
तरसती- बेबाक नज़रें ताकती हैं रास्तों को,
दिखा तेरी सूरत के बदले सिर्फ धुँआ है मुझे....
Added by अरुन 'अनन्त' on July 5, 2012 at 10:30am — 4 Comments
मृगनयनी कैसी तू नारी ??
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मृगनयनी कजरारे नैना मोरनी जैसी चाल
पुन्केशर से जुल्फ तुम्हारे तू पराग की खान
तितली सी इतराती फिरती सब को नाच नचाती
तू पतंग सी उड़े आसमाँ लहर लहर बल खाती
कभी पास में कभी दूर हो मन को है तरसाती
इसे जिताती उसे हराती जिन्हें 'काट' ना आती
कभी उलझ जाती हो ‘दो’ से महिमा तेरी न्यारी
पल छिन हंसती लहराती औंधे-मुंह गिर जाती
कटी पड़ी भी जंग कराती - दांव लगाती
'समरथ' के हाथों में पड़ के लुटती हंसती…
Added by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on July 5, 2012 at 6:30am — 25 Comments
वेदना संवेदना अपाटव कपट
को त्याग बढ़ चली हूँ मैं
हर तिमिर की आहटों का पथ
बदल अब ना रुकी हूँ मैं
साथ दो न प्राण लो अब
चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये ।
निश्चल हृदय की वेदना को
छुपते हुए क्यों ले चली मैं
प्राण ये चंचल अलौकिक
सोचते तुझको प्रतिदिन
आह विरह का त्यजन कर
चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये ।
अपरिमित अजेय का पल
मृदुल मन में ले चली मैं
तुम हो दीपक जलो प्रतिपल
प्रकाश गौरव बन चलो अब
चलने दो मुझे ओ प्राण…
Added by deepti sharma on July 5, 2012 at 1:00am — 49 Comments
नीले नभ पर .,
Added by Rekha Joshi on July 4, 2012 at 2:56pm — 19 Comments
आँखों से मौत के निशाने निकल पड़े,
दिल पे चोट खाए दिवाने निकल पड़े,
बसती है तेरी चाहत सनम मेरी रूह में,
सूखे लबों की प्यास बुझाने निकल पड़े,
चाहतों के मामले फसानों में कैद है,
इल्जामों का पिटारा दिखाने निकल पड़े,
यादों का तेरे मौसम जब - जब आया है,
अश्को में बीते सारे ज़माने निकल पड़े,
होता है दर्द अक्सर तेरे बदले मिजाज़ से,
आज अपने साथ तुझको मिटाने निकल पड़े,
उल्फत की जिंदगी मैं जी-जी कर हारा हूँ,
समंदर में…
Added by अरुन 'अनन्त' on July 4, 2012 at 11:00am — 9 Comments
Added by Dr.Prachi Singh on July 3, 2012 at 3:00pm — 17 Comments
सदा हिजाब में रहते हो माज़रा क्या है?
बड़े रुबाब में रहते हो माज़रा क्या है?
बना दिया आखिर मुझे गुलशन पसंद....
हरेक गुलाब में रहते हो माज़रा क्या है?
हुदूद कोई बना लो हुस्न-ए-शबनम की....
खुले शबाब में रहते हो माज़रा क्या है?
कभी दुआ कभी मुराद में महसूस किया....
कभी अज़ाब में रहते हो माज़रा क्या है?
शकाफत भरा है तुम्हारा कोहिनूर बदन....
हया-ओ-आब में रहते हो माज़रा क्या है?
जबसे दीदार…
Added by Shayar Raj Bajpai on July 3, 2012 at 12:48pm — 7 Comments
मरासिम उनसे था मेरा सूफियाना सा
गा भी लेते थे हम
सुना भी लेते थे हम
इबादत उनकी किया करते थे
खुदा से रूठ जाते थे
मना भी लेते थे हम
वक़्त-ए-फुरकत
उनसे वादा किया था
एक कतरा न गिरेगा कभी
ये आब-ए-जमजम
मेरी आँखों से
तो पाकीजा आब से भरे ये प्याले
रोज भरते तो हैं
पर छलकते कभी नहीं
और लोग हमें संगदिल सनम कहते हैं
ये कैसा वादा लेकर वो गए हैं
उस दिन से लेकर आज तक…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 2, 2012 at 5:37pm — 5 Comments
जिस प्रकार के भवन की कल्पना बादशाह ने की थी यह भवन उससे भी कहीं अधिक सुन्दर बना था, जिसकी भव्यता देखकर बादशाह की आँखें चौंधिया सी गईं थीं. चहुँ ओर भवन निर्माण करने वाले शिल्पकार की मुक्तकंठ से प्रशंसा हो रही थी. जिसे सुनकर शिल्पकार भी फूला नहीं समा रहा था. लेकिन तभी अचानक बादशाह ने शिल्पकार के दोनों हाथ काट देने का आदेश दे दिया ताकि शिल्पकार पुन: ऐसी…
ContinueAdded by योगराज प्रभाकर on July 2, 2012 at 11:47am — 31 Comments
वो बच्चा
बीनता कचरा
कूड़े के ढेर से
लादे पीठ पर बोरी;
फटी निकर में
बदन उघारे,
सूखे-भूरे बाल
बेतरतीब,
रुखी त्वचा
सनी धूल-मिटटी से,
पतली उँगलियाँ
निकला पेट;
भिनभिनाती मक्खियाँ
घूमते आवारा कुत्ते
सबके बीच
मशगूल अपने काम में,
कोई घृणा नहीं
कोई उद्वेग नहीं
चित्त शांत
निर्विचार, स्थिर;
कदाचित
मान लिया खुद को भी
उसी का एक हिस्सा
रोज का किस्सा,
चीजें अपने मतलब की
डाल बोरी में
चल पड़ता…
Added by कुमार गौरव अजीतेन्दु on July 2, 2012 at 9:24am — 20 Comments
चलो जी चलो कलम उठाएं;चलो जी चलो कलम उठाएं.
लिख के कविता लेख कहानी,हम लेखक बन जाएं
तदुपरांत वो बकरा ढूंढें जिसको लिखा सुनाएं
चलो जी चलो कलम उठाएं.चलो जी चलो कलम उठाएं.
-०-०-०--०-०-०-०-०-०-०-०-
कागज़ कलम ; डाक खर्चे की ;पहले युक्ति लगाएं,
लिख लिख रचनाएँ अपनी ;अख़बारों को भिजवाएं .…
Added by DEEP ZIRVI on July 2, 2012 at 8:32am — 6 Comments
हुश्न को माह कहते हो कमाल करते हो
आदमी को खुदा बुत को जमाल करते हो
चश्म में डूब कर उनका जबाब देते हैं
मौन पलकें झुका के जो सवाल करते हो
नोट में वोट दे ईमान बेच कर तुम ही
बात सुनते नहीं नेता बबाल करते हो
इश्क की आग में सूखा जला हुआ तन्हा
तुम उसे दीद दे ताज़ा निहाल करते हो
है हकीकत जमाने की तुझे पता लेकिन
ढूँढने को ख़ुशी क्या क्या ख़याल करते हो
छोड़ के हाथ जिसने तोड़ दिया हर रिश्ता
साथ…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 1, 2012 at 3:38pm — 6 Comments
Added by AVINASH S BAGDE on July 1, 2012 at 3:30pm — 13 Comments
वो देखो सखी
फिर रक्ताभ हुआ नील गगन
बढ़ रही हिय की धड़कन
विदीर्ण हो रहा हैमेरा मन
बाँध दो इन उखड़ी साँसों को ,
अपनी श्यामल अलकों से
भींच लूँ कुछ भी ना देखूं
मैं अपनी इन पलकों से
झील के जल में भी देखो
लाल लहू की है ललाई
कैसे तैर रही है देखो
म्रत्यु दूत की परछाई
थाम लो मुझको बाहों में
जडवत हो रही हूँ मैं
दे दो सहारा काँधे का
सुधबुध खो रही हूँ…
ContinueAdded by rajesh kumari on July 1, 2012 at 10:37am — 18 Comments
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