तूती
अफ्सर की कवि पत्नी मंच संचालिका बन और मोटा लिफ़ाफ़ा पाकर खुश थी |
विभाग-मंत्री अपनी स्तुति से खुश थे |
अफ्सर का दिल ज़ोरों से बल्लियाँ मार रहा था |अब कुछ रोज़ दोनों जगह उसकी तूती बजेगी |
सोमेश कुमार (मौलिक एवं प्रकाशित )
Added by somesh kumar on November 14, 2014 at 8:09pm — No Comments
ग़ज़ल
2122 1212 22
सब दुआ का असर है क्या कहिए
बेबसी दर ब दर है क्या कहिए
याद करके तुझे महकता हूँ
फूल का तू शज़र है क्या कहिए
की जमा मैंने दौलतें ताउम्र
साथ आखिर सिफर है क्या कहिए
खत लिखे थे जिसे कभी तुमने
अब भी वो बेखबर है क्या कहिए
है सुकूं ये कि मैं भी जिन्दा हूँ
ज़िन्दगी मुख़्तसर है क्या कहिए
खार राहों के कह रहे गुमनाम
अब तेरा घर ही घर है क्या कहिए
गुमनाम पिथौरागढ़ी…
Added by gumnaam pithoragarhi on November 14, 2014 at 6:43pm — 6 Comments
नाटिका
ग्राम –महोत्सव गरिमा बिखेर रहा था । लक –दक सजावट, बार –बालाओं की अठखेलियाँ, हास्य कलाकारों के करतब गज़ब ढाये हुए थे । सोम –रस की सरिता जन से लेकर प्रतिनिधि तक को सराबोर किये थी । शीत ऋतु में उष्णता का अहसास ऐसा ही होता है। तन आधे –अधूरे ढँके होने से क्या? मन की उमंगों पर कोई लगाम न होनी चाहिए । हर तरफ मादकता छितरायी –सी जाती है, जो जितना लपक -झटक ले। एक पत्रकार ने नेताजी से मुखातिब हो सलाम ठोंका । नेताजी मुँह बिचकाते –बिचकाते रह गये ।कैमरे…
ContinueAdded by Manan Kumar singh on November 14, 2014 at 7:54am — 3 Comments
मन धीरे धीरे रो ले,
कोई नहीं है अपना,
मुख आँसुओं से धो ले !
मन धीरे धीरे रो ले.....
मात –पिता के मृदुल बंधन में,
था जीवन सुखमय जाता !
ज्ञात नहीं भावी जीवन हित ,
क्या रच रहे थे विधाता !
अन भिज्ञ जगत के उथल पुथल,
क्या परिवर्तन वो निष्ठुर करता,
लख वर्तमान फूलों सी फिरती,
सखियों संग बाहें खोले !
मन धीरे धीरे रो ले.....
शुभ घड़ी बनी मम मात पिता ने,
वर संग बंधन ब्याह रचाया !
सजी पालकी लिए…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on November 14, 2014 at 2:30am — 5 Comments
हथेली
अभी –अभी बुद्धिजीवियों की नगरी में सत्ता का चुनाव हुआ । किसी दल को जरूरी बहुमत नहीं हासिल हुआ । सत्ता –दल धूल फाँकता नजर आया ।वह चुने हुए प्रतिनिधियों की संख्या के आधार पर तीसरे स्थान पर रहा । पहले सबसे बड़े दल की उम्मीदों पर झाडू फिर गया, हसरतों का फूल मुरझाते –मुरझाते बचा । । एक नवोदित दल को सदन में संख्या के अनुसार दूसरा दर्जा प्राप्त हुआ । अब सरकार बने तो कैसे ? शासन –कार्य कौन देखेगा ?सत्ता –च्युत दल ने विपक्ष में बैठने की अपनी बात कही । दूसरे दर्जे वाले…
ContinueAdded by Manan Kumar singh on November 13, 2014 at 9:02am — 11 Comments
प्रतियोगिता
“ सर ,प्रतियोगिता में तो 24 प्रतिभागी आने थे पर हमें लेकर केवल 11 हैं | मज़ा नहीं आएगा |” वो थोड़ा निराश था |
“ये प्रतियोगिता है मेला नहीं ,वैसे भी पहले तीन ही जाने जाते हैं बाकी गिनतियों के बारे में कोई नहीं सोचता |येन-तेन प्रकारेण भवः विजयते |”
उनका कुटिल ज्ञान उसकी नसों में सुईयाँ चुभो रहा था |
सोमेश कुमार (मौलिक एवं प्रकाशित )
Added by somesh kumar on November 13, 2014 at 8:03am — No Comments
सनन्-सनन् चली पवन
ले के पिया मेरा मन
बंधने लगा प्रेम में
देखो पिया धरती गगन !!
सनन्-सनन् चली पवन
नैन का कजरा तेरा
भडकाने लगा प्रेम अगन
उसपे तेरे हाथ…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on November 13, 2014 at 1:30am — 2 Comments
Added by pooja yadav on November 12, 2014 at 1:00pm — 10 Comments
खेतों की हरियाली गुम है
गाँवों की खुशहाली गुम है
बंद जहाँ है खुशियाँ सारी
उस ताले की ताली गुम है
जाने किस जंगल में गुम हूं
दुनिया देखी भाली गुम है
कैसी फ़सलें बोयी माधो
बूटे गायब बाली गुम है
शहरों में मजदूरी करते
बागों के सब माली गुम है
झूलों वाला सावन गुमसुम
अमुवे वाली डाली गुम है
क्यूं पलकें ‘खुरशीद’ हुई नम
वो अलकें घुँघराली गुम है
मौलिक व…
ContinueAdded by khursheed khairadi on November 12, 2014 at 9:30am — 7 Comments
एक छईण्टी आलू
बात पुरानी है , गाँव से जुड़ी हुई । बटेसर के काका यानि पिताजी विद्या बोले जाते थे । सब उनको बाबा कहते तथा बटेसर को काका । लिखने –पढ़ने के नाम पर बाबा का बस अंगूठे के निशान से ही काम चल जाता था , पर अच्छे –अच्छों को बातों में धूल चटा देना उनके बायें हाथ का खेल था ।बथान में बैलों को सानी (खाना –पानी ) दे रहे बटेसर से बात करते –करते भोला को कुछ याद आया, तो वह कुएँ से पानी निकलते बाबा की ओर मुड़कर बोला , ‘ बाबा ! उ महेसर भाई के आलू…
ContinueAdded by Manan Kumar singh on November 12, 2014 at 9:00am — 7 Comments
“बेटा, 20 हज़ार में क्या होगा ? कुछ और कोशिश कर, आखिर तेरी दीदी की शादी है !“
“सुना है भईया ने 5 हज़ार देकर हाथ खड़े कर लिए हैं | वो उनकी बहन नहीं है क्या ?“
वो बढ़ते बोझ और थकान से टूटने लगा था |
“बेटा ! लंगड़े और बिदकने वाले घोड़ो को रेस में नहीं रखा जाता |“
पक्षपात माँ की बेबसी थी |
.
सोमेश कुमार (मौलिक एवं अप्रकाशित)
Added by somesh kumar on November 12, 2014 at 9:00am — 6 Comments
ठूँठ
था हराभरा मेरा संसार
खुशियाँ लगती थी मेरे द्वार
हरी हरी मेरी शाखायें
फूल पत्ते भरकर इठलाये||
मेरा जीवन उनसे था और
उन सब से ही में जीता था
छांव पथिक सुस्ता लेता था
थकन अपनी बिसरा देता था||
समय ने ऐसा खेल दिखाया
दूर हो गयी मेरी ही छाया
छोड़ गये सब मुझको मेरे
एक एक कर देर सबेरे||
कद मेरा यूँ हुआ बढ़ा
रह गया आज अकेला खड़ा
रूप…
ContinueAdded by sarita panthi on November 12, 2014 at 7:49am — 10 Comments
तुम
मेरी प्रतीक्षा करना
उस मोड़ पर
मुड जाता है जो
मेरे घर की ओर
मैं दौड़ कर पहुचुंगा
तब भी
जबकि मैं जानता हूँ
सड़क भी अब…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on November 11, 2014 at 9:00pm — 18 Comments
"अरे वो पेड़ कहा गया , गिर गया क्या ?"
"नहीं चाची , ठूँठ था तो काट दिया लोगों ने "|
बेऔलाद चाची को कुछ चुभा और वो तेजी से आगे बढ़ गयीं |
.
( मौलिक एवम अप्रकाशित )
Added by विनय कुमार on November 11, 2014 at 7:30pm — 14 Comments
2122 2122 2122 212
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तंग सी तेरी गली की याद वो जाती नहीं
मुद्दतों से वो तेरी तस्वीर धुँधलाती नहीं
..
बे-जबाबी हो चुके हैं ला-ज़बाबी ख़त मेरे
क्या मेरी चिट्ठी तेरे अब दिल को धड़काती नहीं
..
खत्म होने को चला है सिलसिला तेरा मेरा
बेव़फाई पर तेरी क्यों आके पछताती नहीं
..
झूठ से तकदीर लिखना खूब आता है तुझे
लूटकर तू दिल किसी का लौट कर आती नहीं
..
खौफ़ हावी हो चुका है आज तेरा शहर में
कत्ल करके भी तेरी…
Added by umesh katara on November 11, 2014 at 6:45pm — 8 Comments
परिचय हुआ जब दर्पण से ….
परिचय हुआ जब दर्पण से
तो चंचल दृग शरमाने लगे
अधरों में कंपन होने लगी
अंगड़ाई के मौसम .छाने लगे
परिचय हुआ जब दर्पण से ….
ऊषा की लाली गालों पर
प्रणयकाल दर्शाने लगी
पलकों को अंजन भाने लगा
भ्रमर आसक्ति दर्शाने लगे
परिचय हुआ जब दर्पण से …
पलकों के पनघट पर अक्सर
कुछ स्वप्न अंजाने आने लगे
बेमतलब नभ के तारों से…
Added by Sushil Sarna on November 11, 2014 at 1:30pm — 8 Comments
दिल्ली के दावेदारों तुम , देहातों में जाकर देखो
तकलीफ़ों की लहरें देखो ,गम का गहरा सागर देखो
सूरज अंधा चंदा अंधा , दीप बुझे हैं आशाओं के
रातें काली हैं सदियों से , और दुपहरें धूसर देखो
निर्धन की झोली में है दुख ,मौज दलालों के हिस्से में
कुटिया देखो दुखिया की तुम ,वैभव मुखिया के घर देखो
मोती निपजाने वाले तन ,धोती को तरसे बेचारे
गोदामों में सड़ता गेंहूं , भूखे बेबस हलधर देखो
आँसू गाँवों के भरते हो ,…
ContinueAdded by khursheed khairadi on November 11, 2014 at 9:00am — 8 Comments
जलावन
शहर की सरकारी डिस्पेंसरी में छांटे गए पेड़ो की टहनियों ने उसकी आँखों में चमक पैदा की |हर चौथे रोज़ वो छोटे सिलिंडर में 100 रुपया की गैस भराती थी और अगर काम मिले तो एक रोज़ की मजूरी थी-250 रुपया | यानि इतना जलावन मतलब 800 रुपया |तीनों बच्चों के सरदी के पुराने कपड़े वो नए पटरी बज़ार से खरीद लेगी यानि कि उनकी दिवाली |वैसे भी उसका बेवड़ा-निठल्ला पति रोज़ उसकी गरिमा को तार-तार करता था फिर चौकीदार को तो उन जलावन का हिसाब भी देना होता है आखिर सर्दीयां आ रही थीं |
सोमेश कुमार (मौलिक एवं…
ContinueAdded by somesh kumar on November 11, 2014 at 8:00am — 5 Comments
महज 12 वर्ष की कच्ची उम्र मेँ ही परिस्थितियोँ मेँ ढल गया था वो। जिस उम्र मेँ बच्चोँ को खेल खिलौनोँ सैर सपाटोँ का शौक होता है उस उम्र मेँ मोहन को बस एक ही शौक था- पढ़ने का। पढ़ाई मेँ तेज मोहन बड़ा ही महत्वाकांक्षी बालक था। लेकिन वक्त की ये टेढी-मेढी गलियाँ कब, किसे, ज़िन्दगी का कौन सा मोड़ दिखा देँ कौन जाने ? ऐसी ही किसी गली के मोड़ पर मोहन ने वो गरीबी देखी जिसमेँ दो जून का भोजन भी मुश्किल होता था और स्कूल तो दूर-दूर तक दिखाई न पड़ता था। पर मोहन भला कैसे हार मानता ? उसे तो बड़ा आदमी बनना था। इस सुखद…
ContinueAdded by pooja yadav on November 11, 2014 at 1:00am — 15 Comments
मुक्त हो गयी आत्मा !
अपने शरीर के बन्धनों से !!
स्तब्ध रह गयी निशा
मृत शरीर के क्रन्दनो से
मुक्त हो गयी आत्मा !
अपने शरीर के बन्धनों से !!
दूर हो गयी आत्मा
अतीत के स्पन्दनो से
राख हो गया शरीर
जलते हुये चन्दनों से
मुक्त हो गयी आत्मा !
अपने शरीर के बन्धनों से !!
शरीर आसक्त हो गया
प्रिया में अंतर्नयनों से
आत्मा छल गयी उसे
अनासक्ति के प्रपंचों से
मुक्त हो गयी आत्मा…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on November 10, 2014 at 7:00pm — 6 Comments
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