सलुम्बर की वह काव्य संध्या
आप हाड़ी रानी की कथा से कितने परिचित हैं , नहीं जानती .. मैं स्वयं भी कितना जानती थी , इस रानी को ! लेकिन इस नाम से पहला परिचय झुंझुनू शहर में जोशी अंकल द्वारा हुआ था . उन दिनों हम कक्षा नौ में थे . पापा की पोस्टिंग इस शहर में हुई ही थी. नए मित्र , नया परिवेश . मन में कई उलझनें थीं. जोशी अंकल हमारे पड़ोसी थे. बेटियां तो उनकी छोटी -छोटी थीं पर अंकल खासे बुज़ुर्ग लगते थे .. उनमें कुछ ऐसा था कि देखते ही…
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Added by Aparna Bhatnagar on September 28, 2010 at 9:21pm —
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हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई,
आपस में सब भाई-भाई ।
बहकावे में आ जाते हैं,
हम में है बस यही बुराई ।
अब नहीं बहकेंगे हम भईया,
हम ने है ये क़सम उठाई ।
मिलजुल कर हम सदा रहेंगे,
हमें नहीं करनी है लड़ाई ।
देश करेगा ख़ूब तरक़्क़ी,
हर घर से आवाज़ ये आई ।
Added by moin shamsi on September 28, 2010 at 3:30pm —
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हास्य कविता:
कान बनाम नाक
संजीव 'सलिल'
*
शिक्षक खींचे छात्र के साधिकार क्यों कान?
कहा नाक ने- 'मानते क्यों अछूत श्रीमान?
क्यों अछूत श्रीमान, न क्यों कर मुझे खींचते?
क्यों कानों को लाड़-क्रोध से आप मींचते??
शिक्षक बोला- "छात्र की अगर खींच दूँ नाक,
कौन करेगा साफ़ यदि बह आयेगी नाक?
बह आयेगी नाक, नाक पर मक्खी बैठे.
ऊँची नाक हुई नीची, तो हुए फजीते..
नाक एक है कान दो, बहुमत का है राज.
जिसकी संख्या अधिक हो, सजे शीश…
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Added by sanjiv verma 'salil' on September 28, 2010 at 10:30am —
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मेरा इक छोटा सा सपना
कब होगा वो पूरा अपना
देखो ये बरसाती मौसम
छत का मेरी टप-टप करना
बचपन की सब बातें मुझको
लगती मुझको जैसे सपना
राही भटका राहों में है
कोइ घट न जाए घटना
लम्बी तानू सोना चाहूं
मेरा इक छोटा सा सपना
Added by abhinav on September 27, 2010 at 7:30pm —
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तुम चले क्यों गये
मुझको रस्ता दिखा के, मेरी मन्ज़िल बता के
तुम चले क्यों गये
तुमने जीने का अन्दाज़ मुझको दिया
ज़िन्दगी का नया साज़ मुझको दिया
मैं तो मायूस ही हो गया था, मगर
इक भरोसा-ए-परवाज़ मुझको दिया.
फिर कहो तो भला
मेरी क्या थी ख़ता
मेरे दिल में समा के, मुझे अपना बना के
तुम चले क्यों गये
साथ तुम थे तो इक हौसला था जवाँ
जोश रग-रग में लेता था अंगड़ाइयाँ
मन उमंगों से लबरेज़ था उन दिनों
मिट चुका था मेरे ग़म का…
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Added by moin shamsi on September 27, 2010 at 5:56pm —
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मैं भारत देश का एक जिम्मेवार और कर्त्वयानिस्थ नागरिक होने के नाते मैं इस देश के तमाम लोगो से एक आग्रह करना चाहूँगा की---
कल देश के इतिहाश में एक नया अध्याय जुड़ने वाला है ,मेरा मतलब है की कल अयोध्या मामले पर माननीय अल्लाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा फैसला दिया जाने वाला है.
जहा तक मेरा सोच है ---फैसला चाहे जो भी ,जिसके पछ में आये .....हम जो भी है ,जिस धरम से है ,जिस जाती से है ,पर सबसे पहले हम इंसान है ,और हमें इन्सानियत का फ़र्ज़ सबसे पहले अदा करना होगा .
इसलिए कृपया अपने विचारो…
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Added by Ratnesh Raman Pathak on September 27, 2010 at 5:00pm —
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मतलब कठिन शब्दों काः-
1.तुर्बत = कब्र, 2.इख़्तिलात = मेलजोल, 3.इशरत = अहसास,
4.निस्बत = लगाव
ये कितना खुदगर्ज हुआ जरूरत में आदमी
जिस कदर बेखबर रहे तुर्बत1 में आदमी
इख़्तिलात2 किसी से न पेशे खिदमतगारी है
बेखुदी का परस्तिश है वहशत में आदमी
रहे सबको इशरत3 फकत् अपने सांसो की
नहीं सिवा इसके अब फुर्सत में आदमी
काटे सर गैरों की इलत्तिजाये ज़िन्दगी में
करे है दरिंदगी अपने निस्बत4 में आदमी
ढुंढ़े नहीं मिले नियाजे5 अदब वफाये…
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Added by Subodh kumar on September 27, 2010 at 2:00pm —
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मुखौटे
हर तरफ मुखौटे..
इसके-उसके हर चहरे पर
चेहरों के अनुरूप
चेहरों से सटे
व्यक्तित्व से अँटे
ज़िन्दा.. ताज़ा.. छल के माकूल..।
मुखौटे जो अब नहीं दीखाते -
तीखे-लम्बे दाँत, या -
उलझे-बिखरे बाल, चौरस-भोथर होंठ
नहीं दीखती लोलुप जिह्वा
निरंतर षडयंत्र बुनता मन
उलझा लेने को वैचारिक जाल..
..... शैवाल.. शैवाल.. शैवाल..
तत्पर छल, ठगी तक निर्भय
आभासी रिश्तों का क्रय-विक्रय
होनी तक में अनबुझ व्यतिक्रम
अनहोनी का…
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Added by Saurabh Pandey on September 27, 2010 at 1:00pm —
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तुम्ही पहचान हो मेरी,
तुम ही बस जान हो मेरी,
यह तुम हो जिससे हम 'हम' हैं
यह हम हैं जिसके रग-रग मे,
बसे बस तुम हो, तुम ही हो .
तुम्हारा नाम लेकर ही,
मेरी हर सांस आती है....
तुम्हारे बिन
मेरी साँसें न आती हैं ...न जाती हैं
तुम्ही हो मायने अबतक,
हमारे ज़िंदा रहने के.....
तुम्ही कारण बनोगे,
मौत मेरी जब भी आएगी
नही मालूम मुझको,
ज़िंदगी से चाहिए क्या अब ?
तुम्हारे प्यार और दीदार का बस
आसरा हो… Continue
Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on September 27, 2010 at 5:30am —
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कुछ समय में यहाँ से चले जायेंगे,
इक नयी ज़िन्दगी को फिर अपनाएंगे|
याद आएगा कुछ, कुछ भूलेगा नहीं,
बाँध यादों की गठरी को ले जायेंगे|
क्या पता होगा अपना ठिकाना कहाँ,
क्या करें तय की हमको है जाना कहाँ|
मंजिल सामने होके आवाज देगी,
वक़्त के रास्ते हमको आजमाएंगे|
कुछ समय में .......................
तब तमाम ऑफिस के छोड़ कर मामले,
जी होगा साथ दोस्तों के कॉलेज चलें|
तब न होंगे ये दिन, ये समय, ये घडी,
गर होंगे तो ये दिन ही नज़र…
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Added by आशीष यादव on September 26, 2010 at 11:00pm —
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कोई भी बात दिल से न अपने लगाइये,
अब तो ख़ुद अपने दिल से भी कुछ दिल लगाइये ।
दिल के मुआमले न कभी दिल पे लीजिये,
दिल टूट भी गया है तो फिर दिल लगाइये ।
दिल जल रहा हो गर तो जलन दूर कीजिये,
दिलबर नया तलाशिये और दिल लगाइये ।
तस्कीन-ए-दिल की चाह में मिलता है दर्द-ए-दिल,
दिलफेंक दिलरुबा से नहीं दिल लगाइये ।
दिल हारने की बात तो दिल को दुखाएगी,
दिल जीतने की सोच के ही दिल लगाइये ।
बे-दिल, न मुर्दा-दिल, न ही संगदिल, न…
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Added by moin shamsi on September 26, 2010 at 5:30pm —
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अब कहाँ किसी में रही सोचने कि फुरसत ,
देखी गई हैं अक्सर इन्सान की ये फितरत ,
जाने कहाँ चली गई इंसानों से इंसानियत ,
यही हैं यही हैं यही हैं असलियत ,
अबलाओ पे अत्याचार चोर बन गए पहरेदार ,
होने लगी है अक्सर अपनों में ही तकरार ,
देखो यारो बदली कैसी इंसानियत कि सूरत ,
अंधी हो गई अपनी इंसाफ कि ये मूरत ,
यही हैं यही हैं यही हैं असलियत ,
आप रहो अब होशियार जानने को तैयार ,
अजब लगेगा आपको लोगो का व्यवहार ,
क्या न करवाए सब कुछ पाने कि…
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Added by Rash Bihari Ravi on September 26, 2010 at 5:00pm —
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दहेज का दानव बहुत बड़ा है
मुँह विकराल किये खड़ा है ,
कितना भी रोको नही रुकता यह,
रक्तबीज जैसा अपना आकार किया,
पिताओं की पगड़ी इसने उछाली है,
बेटियों के अरमानो को तार तार किया,
कई बेटियों को इस दानव ने जला दिया,
ताने सुन सुन कर जीना हुआ मुहाल,
जो बेटी दहेज न लेकर आई ससुराल,
उस बेटी का क्या था कसूर,
मारकर घर से उसे निकाल दिया,
कैसी परंपरा जो है सब मजबूर,
देश के युवा अब करो कुछ तुम्ही उपाय,
दहेज दानव जल्द से जल्द मारा…
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Added by Pooja Singh on September 26, 2010 at 8:30am —
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::: गुलिस्तान ::: © (मेरी नयी क्षणिका )
कहने को तो तुम्हें दे देने थे, यह फूल मगर, ज़माने को यह गवारा न था !!
सूख चुके हैं फूल मगर, अब भी तत्पर हूँ देने को यह गुलिस्तान तुम्हें .. !!
जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 25 सितम्बर 2010 )
.
Added by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on September 26, 2010 at 1:00am —
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चंद अश'आर:
तितलियाँ
--- संजीव 'सलिल'
*
तितलियाँ जां निसार कर देंगीं.
हम चराग-ए-रौशनी तो बन जाएँ..
*
तितलियों की चाह में दौड़ो न तुम.
फूल बन महको तो खुद आयेंगी ये..
*
तितलियों को देख भँवरे ने कहा.
'भटकतीं दर-दर न क्यों एक घर किया'?
*
कहा तितली ने 'मिले सब दिल जले.
कोई न ऐसा जहाँ जा दिल खिले'..
*
पिता के आँगन में खेलीं तितलियाँ.
गयीं तो बगिया उजड़ सूनी हुई..
*
बागवां के गले लगकर…
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Added by sanjiv verma 'salil' on September 25, 2010 at 10:00pm —
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न सोंच दिल कि तुम्हारी खता कहाँ थी
कर ले ख़्याल इतना हमारी वफा कहाँ थी
भड़कती नहीं चिंगारियां संग और आब से
रंजिश में तेरी भी दिलक़श ब्यां कहाँ थी
गै़र की बदसुलूकी से आज तुं क्यूं परेशां
बेअदबी पर खुद की शर्मो हया कहाँ थी
गै़र की करतुतो पर दिलों में शुगबूगाहट
अपनी ख़ता का दिल में चर्चा कहाँ थी
औरों से चाहत तेरी तमन्ना तहजीब की
ईमानदारी तेरी पेशगी में जवां कहाँ थी
इक वजह अदावत की दुनिया में खुदगर्जी
जब बनी थी कायनात…
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Added by Subodh kumar on September 25, 2010 at 4:53pm —
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ज़मीर इसका कभी का मर गया है ,
न जाने कौन है किस पर गया है.
दीवारें घर के भीतर बन गयीं हैं,
सियासतदां सियासत कर गया है.
तरक्की का नया नारा न दो अब ,
खिलौनों से मेरा मन भर गया है.
कोई स्कूल की घंटी बजा दे,
ये बच्चा बंदिशों से डर गया है.
बहुत है क्रूर अपसंस्कृति का रावण ,
हमारे मन की सीता हर गया है.
शहर से आयी है बेटे की चिट्ठी,
कलेजा माँ का फिर से तर गया है.
Added by Abhinav Arun on September 25, 2010 at 3:30pm —
8 Comments
खुदाई जिनको आजमा रही है,
उन्हें रोटी दिखाई जा रही है.
शजर कैसे तरक्की का हरा हो,
जड़ें दीमक ही खाए जा रही है.
राम उनके भी मुंह फबने लगे हैं,
बगल में जिनके छुरी भा रही है .
कहाँ से आयी है कैसी हवा है ,
हमारी अस्मिता को खा रही है.
तिलक गांधी की चेरी जो कभी थी ,
सियासत माफिया को भा रही है.
हाई-ब्रिड बीज सी पश्चिम की संस्कृति ,
ज़हर भी साथ अपने ला रही है .
शेयर बाज़ार ने हमको दिया क्या ,
गरीबी और बढती…
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Added by Abhinav Arun on September 25, 2010 at 3:00pm —
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नवगीत:
बरसो राम धड़ाके से
संजीव 'सलिल'
*
*
बरसो राम धड़ाके से !
मरे न दुनिया फाके से !
लोकतंत्र की
जमीं पर, लोभतंत्र के पैर
अंगद जैसे जम गए अब कैसे हो खैर?
अपनेपन की आड़ ले, भुना
रहे हैं बैर
देश पड़ोसी मगर बन- कहें मछरिया तैर
मारो इन्हें कड़ाके से, बरसो राम
धड़ाके से !
मरे न दुनिया फाके से !
कर विनाश
मिल, कह रहे, बेहद हुआ विकास
तम की कर आराधना- उल्लू कहें उजास
भाँग कुएँ में घोलकर,…
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Added by sanjiv verma 'salil' on September 25, 2010 at 10:30am —
7 Comments
पीड़ा का इक पल दर्पण
टूटा पल मे, पल मे बिखर गया |
इक मोती सा विश्वास मगर,
अन्तस मे कहीं ठहर गया |
उमडाया ये खालीपन,
गहराया ये सूनापन,
एकान्त अकेला कहीं गुजर गया |
मन ने वीणा के फ़िर तार कसे
उठो, कोई चुपके से ये कह गया |
विचलित होता अन्त:मन,
उभरा हर क्षण ये चिन्तन,
मन अनजाने ये किधर गया |
ह्र्द्य मे अपना सा एह्सास लिये
भींगी आंखो मे जो उभर गया |
करता पल पल ये क्रन्दन,
धडका बूंद बूंद ये जीवन,
छांव ममता…
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Added by Rajesh srivastava on September 25, 2010 at 9:00am —
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