1
माना होता है समय, भाई रे बलवान
लेकिन उसको साध कर, बनते कई महान
बनते कई महान, विचारें इसकी महता
यह नदिया की धार, न जीवन उनका बहता
सतविंदर कह भाग्य, समय को ही क्यों जाना
नहीं सही भगवान, तुल्य यदि इसको माना।
2
होते तीन सही नकद, तेरह नहीं उधार
लेकिन साच्चा हो हृदय, पक्का हो व्यवहार
पक्का हो व्यवहार, तभी है दुनिया दारी
कभी पड़े जब भीड़, चले है तभी उधारी
सतविंदर छल पाल, व्यक्ति रिश्तों को खोते
उनका चलता कार्य, खरे जो मन के…
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on December 19, 2018 at 3:30pm — 4 Comments
2122 2122 212
हर ख़ुशी का इक ज़रीआ चाहिए
ठीक हो वह ध्यान पूरा चाहिए।
दर्द को भी झेलता है खेल में
दिल भी होना एक बच्चा चाहिए।
जान लेना राह को हाँ ठीक है
पर इरादा भी तो पक्का चाहिये।
टूट कर शीशा जुड़ा है क्या कभी
टूट जाए तो न रोना चाहिए।
झूठ की बुनियाद पर है जो टिका
वो महल हमको तो कचरा चाहिए।
विष वमन कर जो हवा दूषित करे
उस जुबाँ पर ठोस ताला चाहिए।
मौलिक एवं…
ContinueAdded by सतविन्द्र कुमार राणा on December 17, 2018 at 6:30am — 10 Comments
1222 1222 122
न जाने क्या हुई हमसे ख़ता है
हमारा यार जो हमसे खफ़ा है।
यूँ ही बदनाम हाकिम को हैं करते
यहाँ प्यादा भी जब जालिम बड़ा है।
जरा सींचो भरोसा तुम जड़ों में
शज़र रिश्तों का इन पर ही खड़ा है।
उसी ने छू लिया है आसमाँ को
परिंदा जो गिरा, गिर कर उठा है।
नहीं हमदर्द होता आदमी जो
सहारा गलतियों में दे रहा है।
अमा की रात में महताब आया
तुम आये तो हमे ऐसा लगा है।
मौलिक…
ContinueAdded by सतविन्द्र कुमार राणा on November 28, 2018 at 6:30pm — 10 Comments
122 122 122 122
सुना ठीक है सिरफिरा आदमी हूँ
उसूलों का पाला हुआ आदमी हूँ।
हमेशा ही जिसने सही बेवफ़ाई
जमाने में वो बावफ़ा आदमी हूँ।
कि मौजें मुझे दूर खुद से करेंगी
अभी मैं भँवर में फँसा आदमी हूँ।
डिगायेगी कैसे मुझे कोई आफ़त
मैं चट्टान जैसा खड़ा आदमी हूँ।
रहा साथ जिसके जरूरत में अक्सर
कहा है उसी ने बुरा आदमी…
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on November 26, 2018 at 10:00am — 9 Comments
कुछ मुक्तक
1.
आग सीने में मगर आँखों में पानी चाहिए
साथ गुस्से के मुहब्बत की रवानी चाहिए
हाथ सेवा भी करें और' उठ चलें ये वक्त पर
ज़ुल्मतों से जा भिड़े ऐसी जवानी चाहिए।
2.
शेर की औक़ात गीदड़ की कहानी देख लो
नब्ज में जमता नहीं किसका है पानी देख लो
दुम दबाना सीखता जो क्या करेगा वो भला
हौसले का नाम ही होता जवानी देख लो।
3.
समंदर भी गमों के पी जो जाएँ
बहुत ही ख़ास हैं जिनकी अदाएँ
कहाँ हैं मौन ये खामोशियाँ भी
ज़रा तू देख तो…
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on November 12, 2018 at 11:00pm — 6 Comments
1222 1222 1222 1222
रहेगी इश्क में बिस्मिल हमारी बेबसी कब तक
हमारा टूटना कब तक और' उनकी दिल्लगी कब तक।
सिमटकर इक परिंदा जान अपनी दे ही बैठा है
शिकारी! तू पकड़ इस पे रखेगा यूँ कसी कब तक।
यहाँ लोमड़ बने बुद्धू, चले तरकीब गीदड़ की
चलेंगी और ये बातें बताओ बे तुकी कब तक।
अवामी सोच बढ़ने पर असर झूठा हुआ इनका
ये जुमलों की अरे साहब!, लगेगी यूँ झड़ी कब तक।
बड़ा तूफ़ान आयेगा लगा…
ContinueAdded by सतविन्द्र कुमार राणा on November 11, 2018 at 10:30pm — 7 Comments
1222 1222 1222 1222
हमेशा तो नहीं होती बुरी तकरार की बातें
इसी तकरार से अक्सर निकलतीं प्यार की बातें।
नज़र मंजिल पे रक्खो तुम बढ़ाओ फिर कदम आगे
नहीं अच्छी लगा करतीं हमेेशा हार की बातें।
अँधेरे में चरागों-सा उजाला इनसे मिल जाता
गुनी जाएं तज्रिबे के सही गर सार की बातें।
अलग हैं रास्ते चाहे है मंजिल एक पर सबकी
जो ढूंढें खोट औरों में करे वो रार की…
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on November 5, 2018 at 8:30pm — 17 Comments
2122 1212 22/112
हो खुदा पर यकीं अगर यारो
फिर न पैदा हो कोई डर यारो।
जिंदगी ये मिली हमें जिनसे
हों न देखो वे दर-ब-दर यारो।
ख़ार से जो भरी रहे हर दम
इश्क है ऐसी ही डगर यारो।
दर्द लगता दवा के जैसा अब
ये मुहब्बत का है असर यारो।
जो न मंजिल भी दे सके शायद
वो ख़ुशी दे रहा सफ़र यारो।
मौलिक अप्रकाशित
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on October 20, 2018 at 5:56pm — 8 Comments
डायरी का अंतिम पृष्ठ
एक अरसे बाद, आज मेरे आवरण ने किसी के हाथों की छुअन महसूस की, जो मेरे लिए अजनबी थे। कुछ सख्त और उम्रदराज़ हाथ। मेरे पृष्ठों को उनके द्वारा पलटा जा रहा था। दो आँखें गौर से हर शब्द के बोल सुन रही थीं। मेरे अंतिम लिखित पृष्ठ पर आते ही ये ठिठक गईं। पृष्ठ पर लिखे शब्दों में से आकाश का चेहरा उभर आया। सहमा-सा चेहरा। उसने भारी आवाज़ में बोलना शुरू किया, "एक रिटायर्ड फ़ौजी, मेरे पापा। चेहरे पर हमेशा रौब, मगर दिल के नरम। आज उनकी बहुत याद आ रही है। जानता…
ContinueAdded by सतविन्द्र कुमार राणा on July 22, 2018 at 9:51pm — 10 Comments
2122 1212 22/112/211
कुछ नहीं सूझता कई दिन से
जाने क्या हो रहा कई दिन से?
है अलग ये जुबाँ निगाहें अलग
क्यों नहीं राबता कई दिन से।
हो लबों पे हँसी भले कितनी
मन रहा डगमगा कई दिन से।
जल रहा दिल कोई सही में कहीं
गर्म लगती हवा कई दिन से।
खुद पे खुद का नहीं रहा काबू
यूँ चढ़ा है नशा, कई दिन से।
मौलिक अप्रकाशित
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on June 11, 2018 at 11:00pm — 13 Comments
222222 2
नाम बड़ा है उस घर का
पहरा जिस पर है डर का
प्यास बुझाना प्यासे की
कब है काम समंदर का
बिना बात बजते बर्तन
दृश्य यही अब घर-घर का
बोल कहे और जय चाहे
क्या है काम सुख़नवर का?
महल दुमहले जिसके हैं
वही भिखारी दर-दर का।
'राणा' सच कहते रहना
रंग न छूूटे तेवर का।
मौलिक/अप्रकाशित
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on April 23, 2018 at 6:30am — 12 Comments
122 122 122 122
वफ़ा की क्यों उम्मीद मैनें लगाई
लिखी मेरी किस्मत में थी बेवफाई
जमीं पर मिटे वो जो चाहे जमीं को
जमीं में ही माँ जिसको देती दिखाई
दिखाई नहीं वार देता जुबाँ का
सलीके से उसने अदावत निभाई
अटकता नहीं है कोई काम उसका
रही मन में जिसके सभी की भलाई
जो हारे वही जीत जाता हो जिसमें
बता कौन-सी ऐसी होती लड़ाई
मौलिक अप्रकाशित
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on March 22, 2018 at 6:52pm — 6 Comments
यह वर्ष नया मंगलमय हो
कोंपल फूटी है तरुवर पर
नव पल्लव का निर्माण हुआ
टेसू की लाली उभरी है
पुलकित हर तन, हर प्राण हुआ
हर मन से बाहर हर भय हो
यह वर्ष नया मंगलमय हो।
गेंहूँ बाली पूरी होकर
अब लहर लहर लहराती है
सरसों पर पीला रंग चढ़ा
भवरों को यह ललचाती है
भँवरों के गीतों-सी लय हो
यह वर्ष नया मंगलमय हो।
जाड़े को विदा किया हमने
गर्मी को दिया बुलावा है
हर चीज नई-सी लगती है
जब साल नया यह आया…
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on March 18, 2018 at 8:50am — 10 Comments
हल्की फुल्की गीतिका(गजल)(16-16)
सर्दी की हैं जान पकौड़े
और बारिश की शान पकौड़े
पढ़-लिखकर अब क्या करना है?
जब देते सम्मान पकौड़े।
रोटी गर तुम पाना चाहो
तलो कढ़ाई तान पकौड़े।
बख्श के इज्जत हम लोगों को
करते हैं अहसान पकौड़े।
तेज मसाला प्याज हो महँगा
खा ले क्या इंसान पकौड़े।
'राणा' मय के साथी अच्छे
बस जुमला ना मान…
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on February 25, 2018 at 12:30pm — 3 Comments
गजल
1222 1222 1222 1222
बताना है सभी को हम हलाली का ही खाते हैं
कि है जो कर्ज़ माटी का लहू देकर चुकाते हैं
सियासत भी है अच्छी शय जिसे अक्सर बुरा माना
भले कुछ रहनुमा भी हैं जो सबके काम आते हैं
दिशा दक्षिण में सर्दी चल पड़ी मधुमास आते ही
चमन में गुल महक उट्ठे भ्रमर भी गुनगुनाते हैं
समझना है जरा मुश्किल भरोसा किस पे करलें हम
कभी अपने उठाते हैं कभी अपने गिराते हैं
सलामत किस तरह दुनिया रहेगी आज 'राणा' बोल
भुलाकर लोग…
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on January 30, 2018 at 7:00am — 15 Comments
1222 1222 122
बढ़े तो दर्द अक्सर टूटता है
अबस आँखों से झर कर टूटता है
गुमाँ ने कस लिया जिस पर शिकंजा
भटकता है वो दर-दर,टूटता है
नहीं गम घर मेरे आता अकेले
कि वो तो कोह बनकर टूटता है
सुने गर चीख बच्चे की तो देखो
रहा जो सख़्त पत्थर टूटता है
बजें बर्तन हमेशा साथ रह कर
भला इनसेे कभी घर टूटता है
मौलिक अप्रकाशित
अबस:बेबस
कोह:पहाड़
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on January 21, 2018 at 9:00pm — 10 Comments
1222 1222 122
बहाना ही बहाना चल रहा है
बहाने पर ज़माना चल रहा है
बदलना रंग है फ़ितरत जहाँ की
अटल सच पर दिवाना चल रहा है
नही गम में हँसा जाता है फिर भी
अबस इक मुस्कुराना चल रहा है
निवाला बन गया अपमान मेरा
ये कैसा आबो दाना चल रहा है
वफा मेरी मुनासिब है तो फिर क्यों
अगन सेआजमाना चल रहा है
नहीं रिश्ता है पहले-सा हमारा
मग़र मिलना-मिलाना चल रहा है
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on January 17, 2018 at 6:16pm — 8 Comments
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on January 15, 2018 at 9:31am — 8 Comments
2122 2122 2122
इश्क में, व्यापार में या दोस्ती में
दिल दिया है हमने अपना पेशगी में
बूँद भर भी आब काफी तिश्नगी में
एक जुगनू भी है दीपक तीरगी में
ठोकरें खाकर नहीं सीखा सँभलना
क्या मज़ा आएगा ऐसी जिन्दगी में
दर्द,आंसू,बेबसी के बाद भी क्यों
मन रमा रहता हमेशा आशिकी में
किस जमाने…
ContinueAdded by सतविन्द्र कुमार राणा on January 9, 2018 at 8:30pm — 10 Comments
16,16 पर यति,चार पद, दो-दो पद समतुकांत
बढ़ती जाती है आबादी,रोजगार की मजबूरी है
पैसे की खातिर देख बढ़ी,किस-किस से किसकी दूरी है
उस बड़े शहर में जा बैठे, घर जहाँ बहुत ही छोटे हैं
विचार महीन उन लोगों के, जो दिखते तन के मोटे हैं
पहले गाँवों में बसते थे,घर आँगन मन था खुला-खुला
थोड़े में भी खुश रहते थे,हर इक विपदा को सभी भुला
कोई कठिनाई अड़ी नहीं,मिल उसका नाम मिटाते थे
जो रूखा-सूखा होता था,सब साथ बाँट कर खाते थे
तब धमा चौकड़ी होती…
ContinueAdded by सतविन्द्र कुमार राणा on December 25, 2017 at 2:21pm — 12 Comments
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