मैं , ओ बी ओ हूँ ...
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मैं , ओ बी ओ हूँ ...
मेरी छाया में हर विधा प्राण पाती रही ..
कितने ही शून्य आये
रहे
सीखे
और शून्य से अनगिनत हो गये
फर्श अर्श हुये
पर, मैं नहीं बदली , वही हूँ
वही रहूँगी
यही तो तय किया था मैंने
लेकिन, क्या ये सच नहीं
कि साज़िन्दे अगर सो जायें
बेसुरे हो ही जाते हैं गवैये ?
कितने भी सुरीले हों..
आज
मुझे सोचना पड़ रहा है ..
शब्द…
Added by गिरिराज भंडारी on April 13, 2017 at 6:30am — 2 Comments
2122 2122 212
धारणायें हों मुखर, तो चुप रहें
सच न पाये जब डगर, तो चुप रहें
शब्द ज़िद्दी और अड़ियल जब लगें
और ढूँढें, अर्थ अगर तो चुप रहें
जब धरा भी दूर हो आकाश भी
आप लटके हों अधर, तो चुप रहें
कृष्ण हो जाये किशन, स्वीकार हो
शह्र पर जब हो समर तो चुप रहें
सीखने वालों पे यारों पिल पड़ें
जब ग़लत हो नामवर, तो चुप रहें
तेल औ’र पानी मिलाने के लिये
कोशिशें देखें…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 9, 2017 at 8:00am — 24 Comments
2122 2122 2122 212
कट गये सर वो मगर शमशीर को समझे नहीं
घर जला, पर आग की तासीर को समझे नहीं
ख़्वाब ए आज़ादी कभी ताबीर तक पहुँचे भी क्यूँ
सबको समझे वो मगर जंजीर को समझे नहीं
वो मुसव्विर पर सभी तुहमत लगाने लग गये
जो उभरते मुल्क़ की तस्वीर को समझे नहीं
मजहबों में बाँट, वो नफरत दिलों में बो गये
और हम भी उनकी इस तदबीर को समझे नहीं
उनका दावा है, वो चार: दर्द का करते रहे
हमको शिकवा है…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 6, 2017 at 9:00am — 23 Comments
22 22 22 22 22 2
हर चहरे पर चहरा कोई जीता है
और बदलने की भी खूब सुभीता है
सांप, सांप को खाये, तो क्यों अचरज हो
इंसा भी जब ख़ूँ इंसा का पीता है
अर्थ लगाने की है सबको आज़ादी
चुप कह के, क़ुरआन, बाइबिल गीता है
भेड़, बकरियों, खर , खच्चर , हर सूरत में
अब जंगल में जीता केवल चीता है
बादल तो बरसा था सबके आँगन में
उल्टा बर्तन रीता था, वो रीता है
फर्क हुआ क्या नाम बदल के सोचो…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on March 23, 2017 at 8:57am — 6 Comments
22 22 22 22 22 2
छिपे हुये फिर सारे बाहर निकले हैं
फिर शब्दों के लेकर ख़ंज़र निकले हैं
मोम चढ़े चहरे गर्मी में जब आये
सबके अंदर केवल पत्थर निकले हैं
आइनों से जो भी नफ़रत करते थे
जेबों मे सब ले के पत्थर निकले हैं
बाहर दवा छिड़क भी लें तो क्या होगा
इंसाँ दीमक जैसे अन्दर निकले हैं
अपनी गलती बून्दों सी दिखलाये, पर्
जब नापे तो सारे सागर निकले हैं
औंधे पड़े हुये हैं सागर…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on March 21, 2017 at 9:48am — 16 Comments
221 2121 1221 212
मंज़र न जाने कौन उसे क्या दिखा गया
या आइना था, जो उसे पत्थर बना गया
तू भी तवाफ ए दश्त में चलता, ऐ शह’र ! तो
कहता यही, सुकून मेरे दिल को आ गया
हँसने की कोशिशों से निकल आये अश्क़ क्यूँ
ये किसका दर्द रूह में मेरी समा गया
गिनते रहे वो रोटियाँ थाली में डाल कर
भूखा उसी समय ही जाँ अपनी लुटा गया
लाठी नुमा रहा था जो अंधे के साथ साथ
पत्थर समझ के राह का, कोई हटा…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on March 7, 2017 at 12:54pm — 20 Comments
1212 1122 1212 22 /122
सुनें वो गर नहीं,तो बार बार कह दूँ क्या
है बोलने का मुझे इख़्तियार, कह दूँ क्या
शज़र उदास है , पत्ते हैं ज़र्द रू , सूखे
निजाम ए बाग़ है पूछे , बहार कह दूँ क्या
कहाँ तलाश करूँ रूह के मरासिम मैं
लिपट रहे हैं महज़ जिस्म, प्यार कह दूँ क्या
यूँ तो मैं जीत गया मामला अदालत में
शिकश्ता घर मुझे पूछे है, हार कह दूँ क्या
यूँ मुश्तहर तो हुआ पैरहन ज़माने में
हुआ है ज़िस्म का…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on February 27, 2017 at 7:30am — 25 Comments
1222 1222 122
सुखनवर से वो पहले आदमी है
गलत क्या है अगर नीयत बुरी है
किताबों से कमाई कम हुई तो
सुना है, रूह उसने बेच दी है
अचानक आइने के बर हुये हैं
इसी कारण बदन में झुरझुरी है
लगावट खून से, होती है अंधी
वो काला भी, हरा ही देखती है
चली तो है पहाड़ों से नदी पर
सियासी बांध रस्ता रोकती है
दिवारें लाख मज़हब की उठा लें
अगर बैठी, तो कोयल , कूकती है…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on February 23, 2017 at 7:30am — 6 Comments
2122 2122 2122
हर हथेली, क़ातिलों की जान ए जाँ है
ज़ह्र उस पे, मुंसिफों सा हर बयाँ है
बाइस ए हाल ए तबाही हैं, उन्हें भी --
बाइस ए तामीर होने का गुमाँ है
एक अंधा एक लंगड़ा हैं सफर में
प्रश्न ये है, कौन किसपे मेह्रबाँ है
किस तरह कोई मुख़ालिफ़ तब रहेगा
जब कि हर इक, दूसरे का राज दाँ है
जिन चराग़ों ने पिया ख़ुर्शीद सारा
उन चराग़ों में भला अब क्यूँ धुआँ है
जब…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on February 19, 2017 at 9:30am — 20 Comments
( अज़ीम शायर मुहतरम जनाब कैफ़ी आज़मी साहब की ज़मीन पर एक प्रयास )
221 2121 1221 212
मुझको कहाँ अज़ीज़ है कुछ भी चमन के बाद
क्या मांगता ख़ुदा से मैं हुब्ब-ए-वतन के बाद
तहज़ीब को जो देते हैं गंग-ओ-जमुन का नाम
ये उनसे जाके पूछिये , गंग-ओ-जमन के बाद ?
वो लम्स-ए-गुल हो, या हो कोई और शय मगर
दिल को भला लगे भी क्या तेरी छुवन के बाद
वो चिल्मनों की ओट से देखा किये असर
बातों के तीर छोड़ के हर इक चुभन के…
Added by गिरिराज भंडारी on February 5, 2017 at 7:46am — 24 Comments
22 22 22 22 22 2 ( बहरे मीर )
किसी हाथ में अब तक खंज़र ज़िन्दा है
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सबके अंदर एक सिकंदर ज़िन्दा है
इसीलिये हर ओर बवंडर ज़िन्दा है
सब शर्मिन्दा होंगे, जब ये जानेंगे
अभी जानवर सबके अंदर ज़िन्दा है
मरा मरा सा बगुला है बे होशी में
लेकिन अभी दिमाग़ी बन्दर ज़िन्दा है
फूलों वाला हाथ दिखा असमंजस में
किसी हाथ में अब तक खंज़र ज़िन्दा है
परख नली की बातों…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on February 2, 2017 at 8:30am — 15 Comments
2122 2122 212
दिल से जब नाम-ए ख़ुदा जाता रहा
दरमियानी मो’जिजा जाता रहा
ख़ुद पे आयीं मुश्किलें तो, शेख जी
क्यूँ भला हर फल्सफ़ा जाता रहा
जो इधर थे हो गये जब से उधर
कह दिये , हर वास्ता जाता रहा
अब ख़बर में वाक़िया कुछ और है
था जो कल का हादसा जाता रहा
गर हुजूम –ए शहर का है साथ , तो
जो किया तुमने बुरा जाता रहा
आँखों में पट्टी, तराजू हाथ में
जब दिखे, तो…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on January 25, 2017 at 8:18am — 27 Comments
2122 1212 22
गर वो करता है बात बेपर की ?
क्या ज़रूरत नहीं है पत्थर की
क्या हुकूमत लगा रही है अब ?
कीमत उस फतवे से किसी सर की
सिर्फ तहरीर में मिले भाई
सुन कहानी तू दाउ- गिरधर की
जिनके अजदाद आज ज़िन्दा हों
वो करें बात गुज़रे मंज़र की
क्या मुहल्ला तुझे बतायेगा ?
आग भड़की थी कैसे उस घर की
दीन ओ ईमाँ की बात करता है
क्या हवा लग न पायी बाहर की
रोशनी आज…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on January 18, 2017 at 8:30am — 15 Comments
122 122 12 2 122
जिधर भी मैं जाऊँ डगर आपकी है
हवा मे फज़ा में ख़बर आपकी है
महज़ रात थी आपके हक़ में लेकिन
सुना है कि अब हर पहर आपकी है
हरिक पुत्र को मुफ़्त मिलती है ममता
तो, ममता भी अब उम्र भर आपकी है
रपट कौन लिक्खे सभी आपके हैं
कि सरकार भी मोतबर आपकी है
ज़ियारत करें ना करें आप लेकिन
सियासत पे टेढ़ी नज़र आपकी है
नज़ीर आपकी अब मैं दूँ भी तो कैसे
हरी-सावनी सी नज़र आपकी…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on January 12, 2017 at 10:30am — 13 Comments
221 2121 1221 212
तंग आ गया हूँ हालते क़ल्ब-ओ-ज़िगर से मैं
उकता गया हूँ ज़िंदगी, तेरे सफर से मैं
होश ओ हवास ओ-बेख़ुदी की जंग में फ़ँसे
दिल सोचने लगा है कि जाऊँ किधर से मैं
मंज़िल मेरी उमीद में जीती है आज भी
पर इलतिजाएँ कर न सका रहगुज़र से मैं
ऐसा नहीं गमों से है नाराज़गी कोई
उनकी ख़बर तो लेता हूँ शाम-ओ-सहर से मैं
अब नफरतों, की शक़्ल भी आतिश फिशाँ हुईं
डर है झुलस न जाऊँ कहीं इस शरर से…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on January 8, 2017 at 10:00am — 19 Comments
2122 2122 2122
बात कहने का सही लहज़ा नहीं है
या जो रिश्ता था कभी, वैसा नहीं है
वो ये कह लें, उनमें तो धोखा नहीं है
पर हक़ीकत है, उन्हें मौक़ा नहीं है
गर दशानन आज भी है आदमी में
औरतों में क्या कहीं सुरसा नहीं है ?
जो न चल पाया कभी इक गाम अब तक
उसका दावा है कि वो भटका नहीं है
ज़ुर्म की गंगा सियासत से है निकली
लाख कह लें, वो कि सच ऐसा नहीं है
योजनायें उच्च –निम्नों…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on January 3, 2017 at 9:30am — 30 Comments
2122 1212 22 /112
कर के उल्टी, कभी नहीं कहते
ख़ुद की हो गंदगी ...नहीं कहते
कितने बे ख़ौफ हो गये हैं सब
चाँद को चाँद भी नहीं कहते
सादगी देख कर भी पागल में
हम उसे सादगी नहीं कहते
फाइदा तो लिये उजालों का
पर उसे रोशनी नहीं कहते
जब से इमदाद-ए-पाक पाये हैं
हम उन्हें आदमी नहीं कहते
क़त्ल करतें हैं ले के नाम–ए-ख़ुदा
हम उसे बंदगी नहीं कहते
तुम इसे मौत कह…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on December 6, 2016 at 10:30am — 7 Comments
221 2121 1221 212
जो खोजते हैं रोज़ कोई मुद्दआ मिले
तफ़्सील में गये तो वो ख़ुद से ख़फ़ा मिले
नफरत मिली है देखिये नफरत से इस तरह
मजबूरियों में तेल ज्यूँ पानी से जा मिले
हारे हुए मिलेंगे जहाँ खार कुछ तुम्हें
मुमकिन है उस जगह से मिरा भी पता मिले"
हम दिल से चाहते हैं उन्हें दाद हो अता
जो नेवले की जात हो, साँपों से जा मिले
बादल बरस के साथ ही ऐलान कर गया
क़िस्मत ही फैसला करे, अब तुझको क्या…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on December 2, 2016 at 9:30am — 28 Comments
1222 1222 1222
उसे कह दो जहाँ हूँ मैं वहाँ समझे
ज़मीं हूँ मैं, न मुझको आसमाँ समझे
हो किससे गुफ़्तगू इस दश्ते वीराँ में
कोई तो हो, जो मेरी भी ज़बाँ समझे
हक़ीक़त आशना है क्यूँ भला वो भी
है राहे संग उसको कहकशाँ समझे
छिनी रोटी तो छायी बद हवासी है
मुझे मयख़्वार क्यूँ सारा जहाँ समझे
मुहज़्ज़ब जो दबा लेता है नफरत, को
सही समझे अगर, आतिशफ़िशाँ समझे
तू वो ही है , जो सच में है तेरे…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on November 23, 2016 at 11:05am — 26 Comments
122 122 122 122
ये माना कि हर सम्त कुछ बेबसी है
मगर हौसलों की बची ज़िन्दगी है
बुझेगी नहीं चाहे आंधी भी आये
ये अंदर से आयी है वो रोशनी है
लकीरें हथेली की सारी थीं झूठी
जो कहती थीं आगे खुशी ही खुशी है
वो भूँके या काटे, डसे आस्तीं को
अगर आदमी था, तो वो आदमी है
बिना ज़हर वाले बने हैं गिज़ा सब
ये क़ीमत चुकाई यहाँ सादगी है
घराना उजालों का था जिनका, उनका
सुना…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on November 10, 2016 at 9:33am — 5 Comments
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