1222 1222 1222 1222
हमारी प्यास ले जाओ, जरा सूरज घटाओं तक
समय इतना नहीं बाकी, खबर भेजें हवाओं तक
तुम्हारी कोशिशें थी नित, यहाँ केवल दवाओं तक
हमारा भाग भा खोटा, न जा पाया दुआओं तक
कहाँ से भेजता रब भी, मदद को रहमतें अपनी
पहुचनें ही न पायी जब, सदा मेरी खलाओं तक
कहो तुम चाँद से इतना, सितारों रोशनी मकसद
रहा मत कर सदा इतना, सिमटकर तूँ कलाओं तक
सुना है हो गये हो अब, खुदा तुम भी मुहब्बत के
हमारी हद सहन तक ही,…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 23, 2014 at 7:30am — 12 Comments
आत्मकथन
जब जब बनाना चाहा
शब्दों को मिसरी
कुछ पूर्वाग्रह
घोल गये कड़ुवाहट
नहीं बना पाया मैं
खुद को मधुमक्खी
तब कैसे होते मधु
मेरे कहे गये शब्द
मैंने चाहा दिखना
बगुले सा धवल
तब कहां से आती
कोयल सी मधुरता
काक होकर भी
कहां निभा पाया
काक का धर्म
बस जमाये रखी
गिद्ध दृष्टि
हर जीवित-मृत पर
समझ सकते हैं आप
कितना तुच्छ जीव
बनकर रह गया हूं मैं…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 19, 2014 at 6:00am — 18 Comments
सभी सम्माननीय पाठकवृंदों को नववर्ष कि शुभकामनाओं सहित
**************************************************************
1222 / 1221 / 1212 / 1222
*******************************
सुबह उसकी महक लेकर , हवा मेला सजाती है,
उदासी जुल्फ से उसकी , चुरा के शाम लाती है
वो जब काँपती अंगुली , मेरी लट में फिराती है
यादे बूढ़ी माई की , वो फिर से मन जगाती है
पहुचता हूँ जो उस तक मैं , गुजरती साँझ बेला को
वो दिन भर की कथा…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 2, 2014 at 8:00am — 6 Comments
गरीब का पेट
बड़ा जालिम होता है
गरीब का पेट
नहीं देता देखने
सुन्दर-सुन्दर सपने
गरीबी के दिनों में
छीन लेता है वह
सपना देखने का हक
जब कभी
देखना चाहती है आंख
सुंदर सा सपना
मागने लगता है पेट
एक अदद सूखी रोटी
आंख ढूंढ ने लगती है तब
इधर उधर बिखरी जूठन
और फैल जाते हैं हाथ
मागने को निवाला
गरीबी के दिनों में
दूसरों के सम्मुख फैले हुए हाथ
सपना देखती आंख के
मददगार नहीं होते…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 25, 2013 at 6:30am — 10 Comments
हैं कपड़े साफ सुथरे से , पड़ा काँधे दुशाला है
शहर में भेडि़यों ने आ, बदल अब रूप डाला है
कहानी रोज पापों की, उघड़ कर सामने आती
किसी ने झूठ बोला था, ये दुनिया धर्मशाला है
समझ के आम जैसे ही, आमजन चूसे जाते नित
बनी ये सियासत अब, महज भ्रष्टों की खाला है
मथोगे गर मिलेगा नित, यहाँ अमृत भी पीने को
है सिन्धु सम जीवन, कहो मत विष का प्याला है
किया सुबह शाम झगड़ा , रखी वाणी में दुत्कारें
'मुसाफिर'…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 23, 2013 at 7:30am — 13 Comments
2112 2112 2112 112
**********************************************
दाग चंदा को लगे हैं, सूरज का क्या गया
ढूँढ लेगा रात को वो, फिर से कोई घर नया
बादलों को थी मनाही , कैसे करते बारिसें
उसके सूखे दामनों पर, आँसुओं ने की दया
कौन बोले, किसको बोले, इस सियासत में बुरा
सब हमामों के चरित्तर, शेष किसमें है हया
बाज के थे सहायक चील , कौवे औ’ उलूक
फिर अकेली बाज से, कब तलक लड़ती बया
सोच…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 20, 2013 at 7:00am — 8 Comments
1221 1221 1221 121
हमेशा राह में नदियों, बिछे पत्थर नहीं होते
मिला वनवास जिनको हो, उनके घर नहीं होते
.
किसी से बावफा तो, किसी से बेवफा क्यों दिल
कभी इन सवालों के, कोई उत्तर नहीं होते
.
कभी चलके, कभी तर के, जहाँ घूम लेते हैं
परिन्दे जिनके उड़ने को, वदन पे पर नहीं होते
.
चला देते हैं झट खन्जर, नीदों में भी साये पे
ये ना समझो जहन में कातिलों के डर नहीं होते
.
गर जीना हो भोलापन, रहो भीड़ से…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 3, 2013 at 11:00am — 11 Comments
बताई बात मिलने की अगर तूँने जमाने को
बचेगा पास मेरे क्या बताओ फिर गँवाने को
न दिल को लगने पाएगा ये गम जुदाई का
तुम्हारी याद जो होगी हमें हँसने-हँसाने को
लगी सूंघने दुनिया तेरी खुशबू हवाओं में
लिखी जब गयी चिट्ठी किताबों में छुपाने को
किया फौलाद जैसा दुखों ने पालकर तन से
खुशी एक ही काफी हमें जी भर रूलाने को
गिरे अनमोल मोती जो सुख की कड़ी टूटी
सहेजे दामनों ने हैं नयन में फिर सजाने को…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 17, 2013 at 7:00am — 8 Comments
मिली जब से पनाहें सच, यहां इल्जाम को घर में
लिए बदनामी संग फिरते, छुपाकर नाम को घर में
बुलाकर नेह को रखो, यहां सम्मान से तुम नित
मगर भूले से भी मत देना, “शरण काम को घर में
निपट लेगा फिर वन में, अकेली ताड़का से तो वो
यहां सौ-सौ लंकेश बैठे हैं, बुलाओ राम को घर में
सुना है सबसे रखवाया, वचन बेटी की इज्जत का
मगर बोलो कि कब दोगे, इसी अंजाम को घर में
अभी तो साथ चलनी है, कर्ज में लिपटी हुर्इ सुबहें
भला फिर कैसे रोकें हम, धुआंती…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 5, 2013 at 6:00am — 7 Comments
साथ जिसकी हर निशानी आज भी
हूँ न उस को राजधानी आज भी।।
काम में खटता है बचपन देश का
भूख से मरती जवानी आज भी।।
प्यासा पन्छी ढूँढता है हर तरफ
सूखी नदिया में रवानी आज भी।।
फूल सूखे पुस्तकों में कह रहे
नेह की बिसरी कहानी आज भी।।
जन के सेवक ठाठ करते देश में
बनके राजा और रानी आज भी।।…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 1, 2013 at 10:00pm — No Comments
2024
2023
2022
2021
2020
2019
2018
2017
2016
2015
2014
2013
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |