अंततः हम एकल ही थे
स्मृति में कहाँ रही सुरक्षित
जन्म लेने की अनुभूति
और ना होशो हवास में
मौत को जी पायेंगे
समस्त
कौतुहल विस्मय
अघात संताप
रणनीति कूटनीति तो
मध्य में स्थित
मध्यांतर की है
उसमे भी
जब तुमने
ज़मीन छीनकर ये कहा की
सारा आकाश तुम्हारा
मैंने पैरों का मोह त्याग दिया
और परों को उगाना सीख लिया
अब बाज़ी मेरे हाथ में थी
लेकिन हुकुम का इक्का
अब भी तुम्हारे…
ContinueAdded by Gul Sarika Thakur on January 2, 2013 at 9:33am — 12 Comments
छंद हरिगीतिका :
(चार चरण प्रत्येक में १६,१२ मात्राएँ चरणान्त में लघु-गुरु)
शुभकामना नववर्ष की सत,-संग औ सद्ज्ञान हो.
करिये कृपा माँ शारदा अब, दूर सब अज्ञान हो.
हर बालिका हो लक्ष्मी धन,-धान्य का वरदान हो.
सिरमौर हो यह देश अब हर, नारि का सम्मान हो.
सादर,
--अम्बरीष श्रीवास्तव
Added by Er. Ambarish Srivastava on January 1, 2013 at 10:00am — 28 Comments
तार-तार विश्वास, मगर जीवन चलता है.. .…
Added by Saurabh Pandey on December 31, 2012 at 7:30pm — 28 Comments
बालक-वृंद सुनैं, यह भारत-भूमि सदा सुख-साध भरी है
पावन चार नदी तट हैं, इतिहास कहे छलकी ’गगरी’ है
नासिक औ हरिद्वार-उजैन क घाट प बूँद ’अमी’ बिखरी है
धाम प्रयाग विशेष सदा जहँ धर्म-सुकर्म ध्वजा फहरी है
पुण्यधरा तपभूमि महान जो बारह साल प कुंभ सजावैं
तीनहुँ…
Added by Saurabh Pandey on December 26, 2012 at 12:30am — 48 Comments
Added by Abhinav Arun on December 19, 2012 at 9:48am — 28 Comments
तुम्हें चुप रहना है
सीं के रखने हैं होंठ अपने
तालू से चिपकाए रखना है जीभ
लहराना नहीं है उसे
और तलवे बनाए रखना है मखमल के
इन तलवों के नीचे नहीं पहननी कोई पनहियाँ
और न चप्पल
ना ही जीभ के सिरे तक पहुँचने देनी है सूरज की रौशनी
सुन लो ओ हरिया! ओ होरी! ओ हल्कू!
या कलुआ, मुलुआ, लल्लू जो भी हो!
चुप रहना है तुम्हें
जब तक नहीं जान जाते तुम
कि इस गोल दुनिया के कई दूसरे कोनों में
नहीं है ज्यादा फर्क कलम-मगज़ और तन घिसने वालों को…
Added by Dipak Mashal on December 14, 2012 at 3:03pm — 13 Comments
ज्यादा क्या कोई फर्क नहीं मिलता
हुक्के की गुड़गुड़ाहटों की आवाज़ में
चाहे वो आ रही हों फटी एड़ियों वाले ऊंची धोती पहने मतदाता के आँगन से
या कि लाल-नीली बत्तियों के भीतर के कोट-सूट से...
नहीं समझ आता ये कोरस है या एकल गान
जब अलापते हैं एक ही आवाज़ पाषाण युग के कायदे क़ानून की पगड़ियां या टाई बांधे
हाथ में डिग्री पकड़े और लाठी वाले भी
किसी बरगद या पीपल के गोल चबूतरे पर विराजकर
तो कोई आवाजरोधी शीशों वाले ए सी केबिन में..
गरियाना तालिबान को,…
ContinueAdded by Dipak Mashal on December 15, 2012 at 11:30pm — 7 Comments
मुझे जानो समझो
पर इतना न झकझोरो
कि मैं नग्न हो जाऊं
अपमानित फिरू !
यह जो पाने, न पाने के दायरे है
तुम्ही कहो, इन्हें मैं कैसे तोडू ?
अगर मुझे पूर्ण न कर सको
तो न समझने का भान करो !
पर इतना भी न झकझोरो
कि मैं नग्न हो जाऊं
अपमानित फिरू !
अन्वेषा....
हम सब के ह्रदय में कही न कही एक भिक्षुक छुपा हुआ है !
Added by Anwesha Anjushree on December 16, 2012 at 9:00am — 10 Comments
एक ग़ज़ल प्रस्तुत कर रहा हूँ ...... गुरुजनों से अनुरोध है कृपया मार्गदर्शन किजिए
चांदनी आज फिर विदा होगी
रोशनी आज फिर फना होंगी
जब कभी रंग रोशनी होंगे
आपके हाथ में हिना होगी
दर्द दे आज फिर हमें मौला
दर्द की आज इन्तहा होगी
हो गया एक नज़्म का सौदा
शायरी देख कर खफा होगी
चूम लों आँख, सोख लों…
Added by अमि तेष on December 16, 2012 at 1:30pm — 9 Comments
अनुपम अद्दभुत कलाकृति है या द्रष्टि का छलावरण
जिसे देख विस्मयाभिभूत हैं द्रग और अंतःकरण
त्रण-त्रण चैतन्य औ चित्ताकर्षक रंगों का ज़खीरा
पहना सतरंगी वसन शिखर को कहाँ छुपा चितेरा
शीर्ष पर बरसते हैं रजत,कभी स्वर्णिम रुपहले कण
जिसे देख विस्मयाभिभूत हैं आँखें और अंतःकरण…
Added by rajesh kumari on December 16, 2012 at 10:30pm — 11 Comments
छू दो तुम.. . / फिर
सुनो अनश्वर !
थिर निश्चल
निरुपाय शिथिल सी
बिना कर्मचारी की मिल सी
गति-आवृति से
अभिसिंचित कर
कोलाहल भर
हलचल हल्की.. .
अँकुरा दो
प्रति विन्दु देह का
लिये तरंगें
अधर पटल पर.. . !
विन्दु-विन्दु जड़, विन्दु-विन्दु हिम
रिसूँ अबाधित
आशा अप्रतिम.. .
झल्लाये-से चौराहे पर
किन्तु चाहना की गति …
Added by Saurabh Pandey on December 17, 2012 at 6:00pm — 29 Comments
मुझको "तुम्हारी" ज़रूरत है!
दूर रह कर भी तुम सोच में मेरी इतनी पास रही,
छलक-छलक आई याद तुम्हारी हर पल हर घड़ी।
पर अब अनुभवों के अस्पष्ट सत्यों की पहचान
विश्लेषण करने को बाधित करती अविरत मुझको,
"पास" हो कर भी तुम व्यथा से मेरी अनजान हो कैसे
या, ख़्यालों के खतरनाक ज्वालामुखी पथ पर
कब किस चक्कर, किस चौराहे, किस मोड़ पर
पथ-भ्रष्ट-सा, दिशाहीन हो कर बिखर गया मैं
और तुम भी कहाँ, क्यूँ और कैसे झर गई…
Added by vijay nikore on December 19, 2012 at 12:00pm — 9 Comments
गीत
संजीव 'सलिल'
*
क्षितिज-स्लेट पर
लिखा हुआ क्या?...
*
रजनी की कालिमा परखकर,
ऊषा की लालिमा निरख कर,
तारों शशि रवि से बातें कर-
कहदो हासिल तुम्हें हुआ क्या?
क्षितिज-स्लेट पर
लिखा हुआ क्या?...
*
राजहंस, वक, सारस, तोते
क्या कह जाते?, कब चुप होते?
नहीं जोड़ते, विहँस छोड़ते-
लड़ने खोजें कभी खुआ क्या?
क्षितिज-स्लेट पर
लिखा हुआ क्या?...
*
मेघ जल-कलश खाली करता,
भरे किस तरह फ़िक्र न करता.…
Added by sanjiv verma 'salil' on December 6, 2012 at 1:00pm — 16 Comments
तेरे वादे कूट-पीस कर
अपने रग में घोल रही हूं
खबर सही है ठीक सुना है
मैं यमुना ही बोल रही हूं
पथ खोया पहचान भुलाई
बार-बार आवाज लगाई
महल गगन से ऊंचे चढ़कर
तुमने हरपल गाज गिराई
मेरे दर्द से तेरे ठहाके
जाने कब से तोल रही हूं
लिखना जनपथ रोज कहानी
मैं जख्मों को खोल रही हूं
ले लो सारे तीर्थ तुम्हारे
और फिरा दो मेरा पानी
या फिर बैठ मजे से लिखना
एक थी यमुना खूब था पानी
बड़े यत्न से तेरी…
Added by राजेश 'मृदु' on December 6, 2012 at 2:00pm — 17 Comments
Added by राजेश 'मृदु' on November 23, 2012 at 1:30pm — 12 Comments
मुक्तिका:
तनहा-तनहा
संजीव 'सलिल'
*
हम अभिमानी तनहा-तनहा।
वे बेमानी तनहा-तनहा।।
कम शिक्षित पर समझदार है
अकल सयानी तनहा-तनहा।।
दाना होकर भी करती मति
नित नादानी तनहा-तनहा।।
जीते जी ही करी मौत की
हँस अगवानी तनहा-तनहा।।
ईमां पर बेईमानी की-
नव निगरानी तनहा-तनहा।।
खीर-प्रथा बघराकर नववधु
चुप मुस्कानी तनहा-तनहा।।
उषा लुभानी सांझ सुहानी,
निशा न भानी तनहा-तनहा।।
सुरा-सुन्दरी का याचक…
Added by sanjiv verma 'salil' on November 14, 2012 at 11:51am — 9 Comments
****************************************
दवा ही बन गई है मर्ज़ इलाज क्या होगा;
उसे सुकून यक़ीनन बहुत मिला होगा; (१)
मैं नूरे-चश्म था जिसका कभी वो कहता है,
नज़र भी आये अगर तो बहुत बुरा होगा; (२)
हमारे बीच मसाइल हैं कुछ अभी बाक़ी,
ठनी है जी में यही, आज फ़ैसला होगा; (३)
जहाँ ख़ुलूस दिलों में है धड़कनों की तरह,
वहीं पे मंदिरों में जल रहा दिया होगा; (४)
तेरे गुनाह की पोशीदगी है दुनिया से,
मगर ख़ुदा की निगाहों से क्या छुपा होगा;…
ContinueAdded by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on November 14, 2012 at 2:30pm — 23 Comments
जब तेरी यादों की दरिया में उतर जाता हूँ मैं॥
कागज़ी कश्ती की तरहा फिर बिखर जाता हूँ मैं॥
कैसी वहशत है जुनूँ है और है दीवानपन,
तू ही तू हरसू नज़र आया जिधर जाता हूँ मैं॥
सारे मंज़र, तेरी यादें सब जुदा हो जाएंगी,
सोचकर तनहाई में अक्सर सिहर जाता हूँ मैं॥
किसकी नज़रों ने दुआ दी है, के तेरी बज़्म में,
बेहुनर हूँ जाने कैसे बाहुनर जाता हूँ मैं॥
तेरी यादों का ये जंगल मंज़िले ना रास्ते,
जिस्म अपना छोडकर जाने किधर जाता हूँ मैं॥
दर्द-ओ-ग़म के…
ContinueAdded by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on November 15, 2012 at 1:30am — 10 Comments
गिरती दीवारें सूने खलिहान है
गावों की अब यही पहचान है
चौपालों में बैठक और हंसी ठट्ठे
छोटे छोटे से मेरे अरमान है
जनता के हाथ आया यही भाग्य है
आँखों में सपने और दिल परेशान है
लें मोती आप औरों के लिये कंकड़
वादे झूठे मिली खोखली शान है
हम निकले हैं सफर में दुआ साथ है
मंजिल है दूर रस्ता बियाबान है
Added by नादिर ख़ान on November 16, 2012 at 4:30pm — 12 Comments
चन्द्रबदन!
तेरे कपोल पे तेरे नैनों का नीर
लागे जैसे सीप में मोती
शशी से भी तू सुन्दर लागे
जब ओढ़ चुनर तू है सोती
झरने सी तू चंचल है
सुन्दरता से भी सुन्दर है
सुगंध तेरी जैसे कोई संदल
चन्द्रबदन, चन्द्रबदन, हय तेरा चन्द्रबदन…
तेरे केशों में…
ContinueAdded by Ranveer Pratap Singh on November 16, 2012 at 10:30pm — 8 Comments
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