बस चला जा रहा हूँ ...
मैं
समय के हाथ पर
चलता हुआ
गहन और निस्पंद एकांत में
तुम्हारे संकेत को
हृदय की
गहन कंदराओं में
अपने अंतर् के
चक्षुओं में समेटे
बस चला जा रहा हूँ
मैं
समय के हाथ पर
मधुरतम क्षणों का आभास
स्वयं का
अबोले संकेत में
विलय का विशवास
अपने अंतर् के
चक्षुओं में समेटे
बस चला जा रहा हूँ
मैं
समय के हाथ पर
वाह्य जगत के
कल ,आज और कल के
भेद…
Added by Sushil Sarna on April 15, 2017 at 7:16pm — 12 Comments
अभिलाषाओं के ...
थक जाते हैं
कदम
ग्रीष्म ऋतु की ऊषणता से
मगर
तप्ती राहें
कहाँ थकती हैं
अभिलाषाओं की तृषा
पल पल
हर पल
ग्रीष्म की ऊषणता को
धत्ता देती
अपने पूर्ण वेग से
बढ़ती रहती है
ज़िंदगी
सिर्फ़ छाँव की
अमानत नहीं
उस पर
धूप का भी अधिकार है
जाने क्यूँ
धूप का यथार्थ
जीव को स्वीकार्य नहीं
भ्रम की छाया में
यथार्थ के निवाले
भूल जाता है…
Added by Sushil Sarna on April 14, 2017 at 3:44pm — 4 Comments
लम्हों की कैद में ......
लम्हे
जो शिलाओं पे गुजारे
पाषाण हो गए
स्पर्श
कम्पित देह के
विरह-निशा के
प्राण हो गए
शशांक
अवसन्न सा
मूक दर्शक बना
झील की सतह पर बैठ
काल की निष्ठुरता
देखता रहा
वो
देखता रहा
शिलाओं पर झरे हुए
स्वप्न पराग कणों को
वो
देखता रहा
संयोग वियोग की घाटियों में
विलीन होती
पगडंडियों को
जिनपर
मधुपलों की सुधियाँ
अबोली श्वासों…
Added by Sushil Sarna on April 12, 2017 at 6:00pm — 6 Comments
मैं चुप रही ....
रात के पिछले पहर
पलकों की शाखाओं पर
कुछ कोपलें
ख़्वाबों की उग आई थीं
याद है तुम्हें
तुम ने
चुपके से
मेरे ख्वाबों की
कुछ कोपलें
चुराई थीं
मैं चुप रही
तुमने
अपने स्पर्श से
उनमें बैचैनी का
सैलाब भर दिया
मैं चुप रही
तुमने
मेरी पलकों की
शाखाओं पर
अपने अधरों से
सुप्त तृष्णा को
जागृत किया
मैं चुप रही
रात की उम्र
ढलती रही…
Added by Sushil Sarna on April 5, 2017 at 5:50pm — 14 Comments
व्यर्थ है......
व्यर्थ है
कुछ भी कहना
बस
मौन रहकर
देखते रहो
दुनिया को
तमाशाई नज़रों से
पूरे दिन
व्यर्थ है
कुछ भी सुनना
अर्थहीन शब्दों के
कोलाहल में
भटकते भावों की
तरलता में लुप्त
संवेदना के
स्पंदन को
व्यर्थ है
कुछ भी ढूंढना
इस नश्वर संसार में
आदि और अंत का
भेद पाने के लिए
स्वयं में
स्वयं से
मिलने का
प्रयास करना …
Added by Sushil Sarna on April 5, 2017 at 3:30pm — 8 Comments
ख़्वाब ...
नींद से आगे की मंज़िल
भला
कौन देख पाया है
बस
टूटे हुए ख़्वाबों की
बिखरी हुई
किर्चियाँ हैं
अफ़सुर्दा सी राहें हैं
सहर का ख़ौफ़ है
सिर्फ
मोड़ ही मोड़ हैं
न शब् के साथ
न सहर के बाद
कौन जान पाया है
कब आता है
कब चला जाता है
ज़िस्म की
रगों में
हकीकत सा बहता है
अर्श और फ़र्श का
फ़र्क मिटा जाता है
सहर से पहले
जीता है
सहर से पहले ही
मर जाता है…
Added by Sushil Sarna on March 27, 2017 at 7:06pm — 5 Comments
सुकून .......
ढूंढता हूँ
अपने सुकून को
स्वयं की
गहराईयों में
छुपे हैं जहां
न जाने
कितने ही
जन्मों के जज़ीरे
अंधे -अक़ीदे
तसव्वुर में तैरते
कुछ धुंधले से
साये
साँसों के मोहताज़
अधूरी तिश्नगी के
कुछ लम्हे
ज़िस्म पर आहट देते
ख़ौफ़ज़दा
कुछ लम्स
खो के रह गया हूँ मैं
ग़ुमशुदा दौर के शानों पर ग़ुम
अपने सुकून को ढूंढते ढूंढते
क्या
कर सकूंगा…
Added by Sushil Sarna on March 23, 2017 at 10:00pm — 4 Comments
ई-मौजी ...
आज के दौर में
क्या हम ई-मौजी वाले
स्टीकर नहीं हो गए ?
भावहीन चेहरे हैं
संवेदनाएं
मृतप्रायः सी जीवित है
अब अश्क
अविरल नहीं बहते
शून्य संवेदनाओं ने
उन्हीं भी
बिन बहे जीना
सिखा दिया है
हर मौसम में
सम भाव से
जीने का
करीना सिखा दिया है
अब कहकहा
ई-मौजी वाली
मुस्कान का नाम है
ई-मौजी सा ग़म है
ई-मौजी से चहरे हैं
ई-मौजी से…
Added by Sushil Sarna on March 21, 2017 at 5:30pm — 8 Comments
एक शब्द ....
एक शब्द टूट गया
एक शब्द रूठ गया
एक शब्द खो गया
एक शब्द सो गया
एक शब्द आस था
एक शब्द उदास था
एक शब्द देह था
एक शब्द अदेह था
एक शब्द में अगन थी
एक शब्द में लगन थी
एक शब्द जनम था
एक शब्द मरण था
एक शब्द प्यास था
एक शब्द मधुमास था
एक शब्द चन्दन था
एक शब्द क्रंदन था
एक शब्द मोह था
एक शब्द विछोह था
शब्दों की भीड़ थी
हर शब्द में पीर थी
नीर था शब्दों में
शब्द शब्द…
Added by Sushil Sarna on March 19, 2017 at 4:20pm — 8 Comments
यादें......
यादें !
आज पर भारी
बीते कल की बातें
वर्तमान को अतीत करती
कुछ गहरी कुछ हल्की
धुंधलके में खोई
वो बिछुड़ी मुलाकातें
हाँ !
यही तो हैं यादें
ये भीड़ में तन्हाई का
अहसास कराती हैं
आँखों से अश्कों की
बरसात कराती हैं
सफर की हर चुभन
याद दिलाती हैं
जब भी आती हैं
ज़ख़्म कुरेद जाती हैं
अहसासों के शानों पर
ये कहकहे लगाती हैं
ज़हन की तारीकियों में…
Added by Sushil Sarna on March 18, 2017 at 9:30pm — 6 Comments
चला गया ...
हवा
शयन कक्ष के परदों से
खेलती रही
टेबल पर पड़ी मैग्ज़ीन के पन्ने
वायु वेग से
बार बार
फड़फड़ाते रहे
तन्हा से पड़े
काफी के मग
खाली होते हुए भी
अपने में
बहुत कुछ समेटे थे
समेटे थे
अपने अंदर
अकेलेपन से बातें करते
वो क्षण
जो काफी के मग को
अधरों से लगाए
कनखियों से निहारते हुए
आँखों ने आँखों में
बिताये थे
समेटे थे…
ContinueAdded by Sushil Sarna on March 15, 2017 at 10:00pm — 10 Comments
पावन हो …….
सुना था
मतलब के लिए
जमीनों और घरों के
बंटवारे हो जाते हैं
इस धन लोलुप दुनिया में
जीते जी
जिन्दा रिश्तों के
बंटवारे हो जाते हैं
अपने स्वार्थ के लिए
इंसान के जहाँ में
इंसानों के बंटवारे हो जाते हैं
मगर ये क्या
आज अखबार के
एक कालम ने
दिल को द्रवित कर दिया
अपने को श्रवण कुमार
साबित करने के लिए
अपने मृत जन्म दाता को
श्रद्धान्जली देने के लिए
अखबार में अलग अलग विज्ञापन दे दिये…
Added by Sushil Sarna on March 7, 2017 at 9:08pm — 10 Comments
दर्द के निशाँ ....
दर
खुला रहा
तमाम शब
किसी के
इंतज़ार में
पलकें
खुली रहीं
तमाम शब्
किसी के
इंतज़ार में
कान
बैचैन रहे
तमाम शब्
तारीकियों में ग़ुम
किसी की
आहटों के
इंतज़ार में
शब्
करती रही
इंतज़ार
तमाम शब्
वस्ले-सहर का
मगर
वाह रे ऊपर वाले
वस्ल से पहले ही
तू
ज़ीस्त को
इंतज़ार का हासिल
बता देता है
मंज़िल से पहले…
Added by Sushil Sarna on March 3, 2017 at 1:39pm — 6 Comments
अनबहा समंदर ....
थी
गीली
तुम्हारी भी
आंखें
थी
गीली
हमारी भी
आंखें
बस
फ़र्क ये रहा
कि तुमने कह दी
अपने दिल की बात
हम पर गिरा के
जज़्बातों से लबरेज़
लावे सा गर्म
एक आंसू
और
हमें
न मिल सका
वक़्ते रुख़सत से
एक लम्हा
अपने जज़्बात
चश्म से
बयाँ करने का
चल दिए
अफ़सुर्दा सी आँखों में समेटे
जज़्बातों का
अनबहा
समंदर
सुशील सरना…
ContinueAdded by Sushil Sarna on March 1, 2017 at 1:05pm — 8 Comments
अस्तित्व को ....
जगाते हैं
सारी सारी रात
तेरे प्रेम में भीगे
वो शब्द
जो तेरे उँगलियों ने
अपने स्पर्श से
मेरे ज़िस्म पर
छोड़े थे
ढूंढती हूँ
तब से आज तक
तेरे बाहुपाश में
विलीन हुए
अपने
अस्तित्व को
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on February 28, 2017 at 5:50pm — 6 Comments
देर तक .....
जब तुम
जब अंतर तट पर
अपने समर्पण की सुनामी
लेकर आये थे
मेरी देह
कंपकपाई थी
देर तक
जब तुम ने
रक्ताभ अधरों को
तृषा का
सन्देश दिया था
मेरे अधर की
हर रेख
मुस्कुराई थी
देर तक
जब तुम ने
अपनी बंजारी नज़रों से
मुझे निहारा था
मेरी निशा
तुम्हारी बंजारन बन
थरथराई थी
देर तक
जब तुम
मेरी प्रतीक्षा की
प्रथम आहट बने थे
मेरी…
Added by Sushil Sarna on February 26, 2017 at 12:30pm — 2 Comments
कुछ फ़र्द मंच की नज़्र :
न सही तेरी नज़रों को मुहब्बत की तमन्ना मगर !
तेरी नज़रें , नज़रों की हमराज़ तो बन सकती थीं !!1!!
माना करीबी दिल को ख़ुशगवार लगती है !
मगर दूरी में भी कम दिलकशी नहीं होती !!2!!
जाने क्यूँ आ गयी शर्म घटाओं को आज !
शायद किसी ने रुख़ पे ज़ुल्फें बिखेर दीं !!3!!
क्यूँ अँधेरे भी उजले से लगने लगे !
शायद, प्यार रूठा लौट आया है !!4!!
आये न थे तो चश्म तर-बतर थी !
गए पलट के तो कयामत ढा गए…
Added by Sushil Sarna on February 25, 2017 at 2:00pm — 2 Comments
एक सूरज ...
सो गया
थक कर
सिंधु के क्षितिज़ पे
ख़ुदा के दर पे
ज़मीं के
बशर के लिए
चैन-ओ-अमन की
फरियाद लिए
जलता हुआ
एक सूरज
संचार हुआ
नव जीवन का
भर दिया
ख़ुदा के नूर को
ज़मीं के ज़र्रे ज़र्रे में
करता रहा भस्म
स्वयं को
स्वयं की अग्नि में
बशर के
चैन-ओ-अमन
के लिए
एक सूरज
रो पड़ा
देखकर
बशर की फितरत
नूरे बख़्शीश को
समझ न सका
ग़ुरूर में…
ContinueAdded by Sushil Sarna on February 21, 2017 at 2:04pm — 9 Comments
नज़्र ....
सहर हुई
तो ख़बर हुई
शब्
सिर्फ
बातों को
नज़्र हुई
रहते ख़ामोश
नज़रों को
जुबां देते
रात यूँ ही
नज़रों के
दरमियाँ गुज़ार देते
लम्स करते बयाँ
सफर निगाहों का
फिर
न सहर की
खबर होती
न शब्
लफ़्ज़ों को
नज़्र होती
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on February 20, 2017 at 1:34pm — 12 Comments
बे-आवाज़ ....
कहां होती है
रिश्ते के
टूटने की
आवाज़
बस
सिसकता है
देर तक
रुखसारों की ढलानों पर
खारी लकीरों पर
सोया
सोज़ में डूबा
बीते लम्हों का
इक साज़
बे-आवाज़
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on February 17, 2017 at 9:10pm — 10 Comments
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