रूपमाला छंद पर एक छोटा सा प्रयास
हैं अचल पर चल रही हैं, पटरियाँ पुरजोर
दौड़ती हैं साथ महि के, ये क्षितिज की ओर
अनवरत चलना यही तो, जिन्दगी का नाम
दो कदम के बीच ही बस, है इन्हें आराम
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by शिज्जु "शकूर" on January 26, 2015 at 8:30am — 8 Comments
2122 1212 22
झूठ ही बन गया है आँचल क्या
धूप लगने लगी है अफ़्ज़ल क्या (अफ़्ज़ल –भला)
अक्ल की बंद खिड़कियाँ खोलो
टाट लगने लगा है मखमल क्या
जो मुहब्बत दिखा रहे हो आज
दिल में कायम रहेगा ये कल क्या
किस्से कुछ और थे हकीकत और
ये रवायात बदलीं पल-पल क्या
छटपटाहट सी क्यूँ है चेहरे पर
मच उठी दिल में कोई हलचल क्या
फर्ज़ अपना भुला दिया…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on January 23, 2015 at 10:16pm — 14 Comments
2122- 1212- 1212- 22 /112
कोई सूरत तो हो कि तुझपे ऐ’तबार आये
क्या पता दिलफ़रेब बन के ग़मग़ुसार आये
मैं तुझे भूलने की कोशिशों में हूँ बेचैन
पर मुझे तेरा ही खयाल बार-बार आये
ज़ीस्त गुज़री ख़मोशियों के दरमियान मगर
ये हुआ वक़्ते मर्ग लोग बेशुमार आये
दिल नज़ारा ए रंगो गुल को कब से तरसे है
ऐ खुशी काश तू मिसाले नौबहार आये
कौन सा दह्र है ये कौन सी जगह है जहाँ
दूर तक बस नज़र गुबार ही गुबार…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on January 14, 2015 at 9:02am — 33 Comments
नये साल की ये सुबह, सुन कोयल का गान ।
मन में ऊर्जा भर गई, तन में आई जान ।।
सर्द हवा की ले छुअन, मुख से निकले भाप।
भला-भला सा लग रहा, अंगारों का ताप।।
समय वक्र की ऊर्ध्व गति, अधो उम्र की चाल।
जीवन जो है हाथ में, गड्ढे में ना डाल।।
बीत गया जो वर्ष तो, देखें ना लाचार।
अपने सपनों को मिले, एक नया आधार।।
मोहक आँखों को लगे, एक सुहाना दृश्य।
पीछे क्या सौंदर्य के, हो मालूम…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on January 4, 2015 at 12:30pm — 18 Comments
221 2121 1221 212
लिखता हूँ हर्फ़-हर्फ़ मैं जो तेरे नाम से
जज़्बात, दर्द, अश्क़ के हर एहतमाम से
क्या हो गया जो कोई उन्हें जानता नहीं
मक़बूलियत अदीब की है उनके काम से
मिल ही गया मुकाम उसे आखिरश कहीं
बेजा भटक रहा था मुसाफिर जो शाम से
शाइस्तगी न बज़्म में थी कोई मस्लहत
टकरा रहे थे लोग जहाँ जाम, जाम से
गुरबत बिकी थी लाख टके में मगर “शकूर”
गुरबत फ़रोश जी न सका एहतराम…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on December 30, 2014 at 9:57am — 9 Comments
मजदूरों की बस्ती में दो कँपकँपाती हुई आवाज़ें
“सुना है घर वापसी के 5 लाख दे रहे हैं”
“हाँ भाई मैं भी सुना”
“हम तो घर में ही रहते हैं, कुछ हमें भी दे देते”
-मौलिक व अप्रकाशित
Added by शिज्जु "शकूर" on December 28, 2014 at 6:56pm — 24 Comments
2122 1212 22/112
तू मुहब्बत न आजमा मेरी
है तेरे वास्ते वफ़ा मेरी
यूँ कहे पर न जा ज़माने के
गाह चौखट तलक तो आ मेरी
अश्क़ चाहें निकलना आँखों से
रोकती है उन्हें अना मेरी
कौन रखता हिसाब ज़ख़्मों का
खुद मैं कातिब हयात का मेरी
रेत में दफ़्न हो गया कतरा
जो ज़बीं से अभी गिरा मेरी
ज़ख़्म देते हैं वो मुझे पहले
फिर वही करते हैं दवा मेरी
हर सफर में उदास राहों…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on December 28, 2014 at 9:00am — 20 Comments
“अब्बास ये आतंकवादी दीन और ईमान की बात करते हैं, आतंकवादियों का कोई दीन कोई मजहब होता है क्या? बंदूक के ज़ोर पर आतंक फैलाकर कौन सा दीन कायम करना चाहते हैं ?“
अब्बास टी वी की तरफ इशारा करते हुये- “ये बंदूकवाले आतंकवादी खुद मारते और मरते हैं पर कुछ आतंकवादी सिर्फ ज़ुबान चला कर आतंक फैलाते हैं, खुद नहीं मरते मारते ये काम दूसरों से करवाते हैं, दीनो ईमान इनका भी नहीं होता।”
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by शिज्जु "शकूर" on December 18, 2014 at 9:00am — 20 Comments
2122 2122
ये भी जीने की अदा है
ग़म खुशी में मुब्तला है
रात भी है चाँद भी और
चाँदनी की ये रिदा है
नेस्त हो जाएगा इक दिन
रेत पर जो घर बना है
हादसों के दरमियाँ इक
ज़िन्दगी का सिलसिला है
मखमली सा लम्स तेरा
सर्द जैसे ये सबा है
तुझमें है यूँ अक्स मेरा
तू कि जैसे आइना है
मैं नहीं तन्हा सफ़र में
साथ अपनो की दुआ है
छोर पर नाकामियों…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on December 11, 2014 at 10:15pm — 23 Comments
एक गमले में रोपा गया पौधा
उसका दायरा क्या है
बस वो गमला
जब तक वो गमले में है
कभी वृक्ष नहीं बन सकता
उस पौधे की जड़ों को
गमले से बाहर आना होगा
परिन्दों को उड़ना हो
तो उनकी सीमा क्या है
कोई नहीं
असीम आकाश फैला हुआ है
उन्हें अपने पर खोलने होंगे
हमें जीना हो तो
पूरी कायनात पड़ी है
हमें
ख़्वाहिशों को परवाज़ देना होगा
सपनो को
उम्मीदों का आकाश देना…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on November 18, 2014 at 9:44pm — 11 Comments
2122 1122 22
खुद से यूँ आप वफ़ा कर चलिये
गाह सच को न छुपा कर चलिये
मैं इबादत में करूँ सजदे आप
दैर पर शीश नवा कर चलिये
दिल में भर जाये सड़न ही न कहीं
नफ़रतें दिल से हटा कर चलिये
चलिये महका के ज़माने भर को
प्यार का फूल खिला कर चलिये
कीजिये अम्न की कोशिश यों भी
हक़ में इंसाँ के दुआ कर चलिये
क्यूँ रहे हुस्न ही पर्दे में जनाब
आप भी नज़रें झुका कर…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on October 26, 2014 at 8:00pm — 26 Comments
1222- 1222- 1222
मुनव्वर शाम के रंगीं नज़ारों में
नुमायाँ फूल हों जैसे बहारों में
कहीं कम हो न जाये बज़्म की रौनक
लगा दो कुछ दिये भी चाँद तारों में
फ़रोग़े शम्अ महफिल में लगे है यूँ
झलकता हुस्न हो जैसे हज़ारों में
लकीरें धूप की झाँके दरीचे से
सवेरा छुप के बैठा है दरारों में
न जाने रंग कितने रोज़ भर जाये
ये नूरे शम्स झीलों कोहसारों में
हवा के सामने शिद्दत से जलती…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on October 18, 2014 at 8:59am — 12 Comments
जीते जी जिन्दगी खत्म नहीं होती
सिर्फ एक अध्याय खत्म होता है
जब तक एक भी साँस है
हौसले हैं
तब तक रास्ते हैं
कहीं भी, किसी पल
किसी भी मोड़ पर
नई शुरूआत हो सकती है
मिटा देता है वक्त गुज़रते-गुज़रते
पुरानी लिखावट को
और एक कोरा पन्ना छोड़ जाता है
आते-आते
वही वक्त एक और मौका देता है
कि उसी कोरे पन्ने पर
फिर अपनी ज़िन्दगी लिखें
फिर शुरूआत करें
(मौलिक व…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on October 14, 2014 at 9:33pm — 12 Comments
1212 1122 1212 112/22
सफर ये राहगुज़र और ये मुकाम नया
हयात देती है अक्सर मुझे यूँ काम नया
अगर नसीब से बच पाये तो गनीमत है
यहाँ हर एक कदम पर है एक दाम नया (दाम=जाल)
न जी सके अभी तक चलिये कोई बात नहीं
करें अब के कोई जीने का एहतमाम नया
ये ज़िन्दगी हो फ़ना रोज़ और रोज़ शुरू
ग़ुरूबे शम्स हो तो चाँद निकले शाम नया
बहुत हुये गमे दौराँ की…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on October 12, 2014 at 10:22am — 12 Comments
ये गाथा मजदूर की, जिसके नाना रूप।
पत्थर तोड़े हाथ से, बारिश हो या धूप।।
कड़ी धूप में पिस रही, रोटी की ले आस।
पानी की दो घूँट से, बुझा रही है प्यास।।
सर पर ईंटें पीठ पर, लादे अपना लाल।
मानवता कुछ ढूँढती, लेकर कई सवाल।।
वे भी जन इस देश के, करते हैं निर्माण।
पर खुद जीने के लिये, झोंके अपने प्राण।।
उनको हो सबकी तरह, जीने का अधिकार।
उनके कर्मठ हाथ हैं, विकास का आधार
-मौलिक व…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on September 27, 2014 at 8:04am — 10 Comments
221 2121 1221 212
हर सम्त आस पास गुलिस्तान बन गये
ये माहो शम्स गुल मेरी पहचान बन गये
जो लोग शह्र फूँक के नादान बन गये
बदकिस्मती से आज निगहबान बन गये
आँखों में धूल झोंक के लोगों की देख लो
मतलब परस्त मुल्क के सुल्तान बन गये
चमके तो मेह्र बन गये जो आसमान की
वो आँखों में उतरते ही अरमान बन गये
जिनकी ज़बाँ उगलती रही ज़ह्र अब तलक
कैसे ये मान लूँ कि वो इंसान बन गये
सूरत बदल गई…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on September 25, 2014 at 7:54am — 20 Comments
2122/ 2122/ 212
घर से बाहर तो निकल कर देखिये
ज़िन्दगी के साथ चल कर देखिये
आपको अंधा न कर दे वो चमक
शम्स को थोड़ा सँभल कर देखिये
आजमाया है मुझे ही अब तलक
इक दफा खुद को बदल कर देखिये
चार सू बस आप ही होंगे जनाब
शम्अ की मानिन्द जल कर देखिये
आसमाँ के है मुकाबिल हस्ती क्या
देखना हो तो उछल कर देखिये
तर्क़े ताल्लुक तो बहुत आसान है
कालिबे निस्बत में ढल कर…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on August 23, 2014 at 7:00pm — 17 Comments
221 2121 1221 212
जाने पड़ा हुआ है तू किसके खुमार में
दिल ही न टूट जाये कहीं ऐतबार में
मैं नाम लौहे दिल पे यूँ लिखता गया तेरा
इसके सिवा रहा नहीं कुछ इख़्तियार में
वो कारवाने वक्त गुज़र…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on August 17, 2014 at 2:00pm — 12 Comments
212/ 212/ 212/ 212
मुझको तन्हाई अक्सर बुलाती रही
बारहा पास आकर सताती रही
क्या कहूँ आँसुओं का सबब मैं तुझे
तल्खी तेरी ज़बाँ की रुलाती रही
रात भर मैं हवा के मुकाबिल खड़ा
लौ जलाता रहा वो बुझाती रही
आइना अक्स मेरा बदलता रहा
ज़िन्दगी खुद से मुझको छुपाती रही
मैं न समझा कभी सच यही था मगर
ये ख़िज़ाँ राह मेरी बनाती रही
बादबाँ खुल गये चल पड़ी नाव भी
मेरी…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on August 1, 2014 at 11:55pm — 23 Comments
1222/ 1222/ 1222
बहुत सोचा तुम्हें आखिर भुला दूँ मैं
जले लौ तो उसे खुद ही हवा दूँ मैं
उदासी का सबब गर पूछ लें मुझसे
अज़ीयत के निशाँ उनको दिखा दूँ मैं
कभी सागर कभी सहरा कभी जंगल
यूँ क्या-क्या बेख़याली में बना दूँ मैं
हक़ीकत तो बदल सकती नहीं फिर क्यों
गुजश्ता उन पलों को अब सदा दूँ मैं
तुम्हारी कुर्बतों के छाँटकर लम्हे
किताबों का हर इक पन्ना सजा दूँ मैं
इन आँखों से…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on July 27, 2014 at 11:00am — 16 Comments
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