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(ग़ज़ल) सर ये जिस दर न झुके दर है कहाँ

2122 - 1122 - 112/22

(बह्र - रमल मुसद्दस मख़्बून मह्ज़ूफ़) 

सर ये जिस दर न झुके दर है कहाँ

हर कहीं पर जो झुके सर है कहाँ 

हौसलों से जो भरे ऊँची उड़ान

गिर के मरने का उसे डर है कहाँ 

अम्न-ओ-इन्साफ़ जो राइज कर दे

आज के दौर का 'हैदर' है कहाँ 

देखते हैं यूँ हिक़ारत से मुझे 

हम कहाँ और ये अहक़र है कहाँ 

यूँ अज़ीज़ों से किनाराकश हूँ

मुझसे पूछेंगे तेरा घर है कहाँ

फिर…

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Added by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on August 7, 2021 at 3:41pm — 3 Comments

नहीं कर कुन्द पाओगे कलम की धार नेता जी

१२२२/१२२२/१२२२/१२२



तुम्हारी कुर्सी का  जब  है  यही  आधार नेता जी

कहो फिर देश की जनता लगे क्यों भार नेता जी।१।

*

सिकुड़ती देश की सीमा तुम्हें दिखती नहीं है पर

लगे करने में कुनबे  का  सदा अभिसार नेता जी।२।

*

जिताकर वोट से जनता बनाती दास से मालिक

जताते क्यों नहीं उस का  कभी आभार नेता जी।३।

*

बने केवल धनी का ही सहारा…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 7, 2021 at 5:30am — 14 Comments

ये लोग मुझे कुछ भी तो करने नहीं देते....( ग़ज़ल :- सालिक गणवीर)

221-1221-1221-122

ये लोग मुझे कुछ भी तो करने नहीं देते

मुश्किल है बहुत जीना ये मरने नहीं देते (1)

खोदा था कुआँ सहरा में हमने कभी मिल कर

कुछ लोग घड़े हमको वाँ भरने नहीं देते (2)

इक उम्र गुज़ारी है यहाँ मैंने सफ़र में

अब पाँव भी मंज़िल पे ठहरने नहीं देते (3)

उसने जो कहा है तो वो कर के ही रहेगा

वादे से उसूल उसको मुकरने नहीं देते (4)

छाता है कभी ज़ीस्त में जब ग़म का अँधेरा

डरता हूँ मगर दोस्त सिहरने…

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Added by सालिक गणवीर on August 6, 2021 at 11:01pm — 8 Comments

ग़ज़ल

2122, 2122, 2122



1)कर लिया हमने ख़सारा दो मिनट में

हो गया दिल ये पराया दो मिनट में

2)उम्र उसकी राह तकते कट गई है

आ रहा हूँ कह गया था दो मिनट में

3)थी उसे जल्दी तो मैं भी कुछ न बोला

हाल उसको क्या सुनाता दो मिनट में

4)जिस्म कैसे साथ दे अब उम्र भर तक

पक रहा है आज खाना दो मिनट में

5)होती है नाज़ुक बहुत रिश्तों की डोरी

टूट जाता है भरोसा दो मिनट…

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Added by Md. Anis arman on August 5, 2021 at 10:12am — 10 Comments

मन पर कुछ दोहे ......

मन पर कुछ दोहे : ......

मन को मन का मिल गया, मन में ही विश्वास ।

मन में भोग-विलास है, मन में है सन्यास ।।

मन में मन का सारथी, मन में मन का दास ।

मन में साँसें भोग की, मन में है बनवास ।।

मन माने तो भोर है, मन माने तो शाम ।

मन के सारे खेल हैं, मन के सब संग्राम । ।

मन मंथन करता रहा, मिला न मन का छोर ।

मन को मन ही छल गया, मन को मिली न भोर । ।

मन सागर है प्यास का, मन राँझे का तीर ।

मन में…

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Added by Sushil Sarna on August 3, 2021 at 9:28pm — 4 Comments

ग़ज़ल

2122     1212    22 / 112

आज  सोया है शहर घर कर के ! 

खूब  रोया  खुदा  महर  कर के  !!

क्या बुरा हो गया  सनम मुझ से

देखता कब है वो नज़र कर के  !

ज़हरीला बन गया हरेक रिश्ता याँ 

खत्म हो हर अजाब मर कर के  !

हम हैं मारे उसी की बेरुखी के

जिसको देखा नज़र वो भर कर के !

कोई है बात जो लगी दिल को

मिलता कोई नहीं खबर  कर के !

क्या करू मिल के ज़िन्दगी से मैं

खौलता  खून  है …

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Added by Chetan Prakash on August 3, 2021 at 12:46am — 2 Comments

अहसास

यूँ तो अपना था वो कहने को

पर वो अपना हो ऐसा एहसास कहाँ,

उनके दिल में उतर कर देखा जो ख़ुद को

तो जाना उनके दिल में अपना ठौर कहाँ,

ख़ुद तजुर्बा ये मैने है पाया

इस दुनिया में वफ़ा का मोल कहाँ,

झूठे वादों पर चलती है दुनिया

सच का तो अब है मौन यहाँ,

यूँ तो अपना था वो कहने को

पर वो भी अपना हो ऐसा एहसास…

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Added by रोहित डोबरियाल "मल्हार" on August 2, 2021 at 11:30pm — 12 Comments

'कि भाई भाई का दुश्मन है क्या किया जाए'

ग़ज़ल

1212 1122 1212 22 / 112

यही समाज की उलझन है क्या किया जाए

कि भाई भाई का दुश्मन है क्या किया जाए

हर एक शख़्स गरानी के दौर में देखो

ख़ुद अपने आप से बदज़न है क्या किया जाए

सभी ये कहते हैं यारो हम आशिक़ों के लिये

ये शब अज़ल ही से बैरन है क्या किया जाए

सफ़र प जाने से पहले ये सोचना है हमें

हर एक गाम प रहज़न है क्या किया जाए

जो तू नहीं है तो…

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Added by Samar kabeer on August 2, 2021 at 3:59pm — 23 Comments

मौसम को .......

मौसम को .....

सुइयाँ

अपनी रफ्तार से चलती रहीं

समय

घड़ी के बाहर खड़ा खड़ा काँपता रहा

मौसम

समय के काँधे पर

अपनी उपस्थिति की दस्तक देता रहा

बदले मौसम की बयार को छूकर

झुकी टहनियाँ

स्मृतियों में

पिछले मौसम के स्पर्श का रोमांच

सुनाती रहीं

मौसम को

वायु वेग से

रेत पर छोड़े पाँव के निशान

उड़- उड़ कर

अपनी व्यथा सुनाने लगे

मौसम को

झील के पानी में निस्तब्धता

दिखाती रही…

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Added by Sushil Sarna on August 2, 2021 at 1:59pm — 17 Comments

एक सजनिया चली अकेली

संग न कोई सखी सहेली,

रूप छुपाए लाजन से।

एक सजनिया चली अकेली,

मिलने अपने साजन से।

मधुर मिलन की आस सँजोए,

वह जब कदम बढ़ाती है।

जल थल नभ की नीरवता से,

आहट तम की आती है।

चार पहर की कठिन डगरिया,

पर इठलाती नाजन से।

एक सजनिया चली अकेली,

मिलने अपने साजन से।

धवल चाँदनी बिखरी नभ में,

खिली यामिनी धरती पर।

बसंत बहार कहीं मल्हार,

मधुर रागिनी जगती पर।

आतुर हो बढ़ती वह जैसे,

राधा मुरली बाजन से।…

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Added by Dharmendra Kumar Yadav on August 1, 2021 at 2:24pm — 6 Comments

ग़ज़ल-है कहाँ

2122 2122 2122 212

1

उनकी आँखों में उतर कर ख़ुद को देखा है कहाँ

हक़ अभी तक उनके दिल पर इतना अपना है कहाँ

2

आदतें यूँ तो मिलेंगी एक सी लोगों में पर

उनके दिल में एक सा एहसास होता है कहाँ

3

है लड़ाई ख़ुद से अपनी है बग़ावत ख़ुद ही से

बात इतनी सी ज़माना भी समझता है कहाँ

4

चारदीवारी में घर की साथ तो रहते हैं सब

ज़ाविया पर उनके दिल का एक जैसा है कहाँ

5

देख लिया गल कर पसीने में भी हमने…

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Added by Rachna Bhatia on July 31, 2021 at 11:21pm — 11 Comments

हमने तो देखा बीज न खेतों में डालकर -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१/२१२१/१२२१/२१२



शीशा भी लाया आज वो लोहे में ढालकर

बोलो करोगे आप  क्या पत्थर उछाल कर।१।

*

जिन्दा ही दफ्न सत्य जो कल था किया गया

लानत समय  ने  आज  दी  मुर्दा  निकालकर।२।

*

वो बिक  गयी  है  वस्तु  सी  बेहाल भूख से

अब क्या रखोगे बोलिए उस को सँभालकर।३।

*

केवल किसान  जानता  मौसम की मार को

हम ने तो  देखा  बीज  न  खेतों  में डालकर।४।

*

रोटी का मोल  जानते  बचपन  से ही बहुत

माँ ने …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 31, 2021 at 1:18pm — 15 Comments

नज़्म



उदास तारा

1212, 1122, 1212, 22



न बदली  छाई थी कोई न कुहरा छाया था

लपेटे चाँदनी अपनी  क़मर भी निकला था 

सजा था रात सितारों से आसमाँ सारा

उन्हीं के बीच था गुमसुम उदास इक तारा 

उदास देख उसे दिल मेरा मचलने लगा

कि बात करने का उससे ख़याल पलने लगा 

बुलाया मैंने इशारे से फिर क़रीब उसे

कहा बता तू ज़रा  हाल ऐ हबीब मुझे …

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Added by Md. Anis arman on July 31, 2021 at 10:11am — 6 Comments

आजकल इस देश में-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२१२२/२१२२/२१२२/२१२



ये शिवालों से दुखी है आजकल इस देश में

वो हवाओं से दुखी है आजकल इस देश में।१।
.

भूखे रहने की  सलाहें  दे  रहा  भूखों को वो

जो निवालों से दुखी है आजकल इस देश में।२।

**

जिस को उत्तर सारे  के  सारे  पता हैं दोस्तो

वो सवालों से दुखी  है  आजकल इस देश में।३।

**

जो अँधेरों से बचा लाया था अपने-आप को

वो उजालों से दुखी  है आजकल इस देश…
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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 30, 2021 at 12:30pm — 12 Comments

जाति गणना

'हम जातीय आधार पर विकास की योजनाएं बनाएंगे।'

'क्या अमीर -गरीब जाति के आधार पर होते हैं?' बाबा ने सवाल ठोका।

'नहीं,पर पता तो चले कि किस जाति में कितने गरीब हैं।'

'कमीने!जिससे तुमलोगों को अपनी कारस्तानी फैलाने का मौका मिले,यही न? वोटजात ससुर!भागता है कि नहीं हियां से?'गांव के बूढ़े बाबा ने विधायक प्रतिनिधि को खदेड़ा।

"मौलिक व अप्रकाशित"

Added by Manan Kumar singh on July 29, 2021 at 7:00am — 4 Comments

सावन के दोहे : ..........

सावन के दोहे :.........

गुन -गुन गाएँ धड़कनें, सावन में मल्हार ।

पलक झरोखों में दिखे, प्यारी सी मनुहार ।।

सावन में अक्सर करे , दिल मिलने की आस।

हर गर्जन पर मेघ की, यादें करती रास ।।

अन्तस में झंकृत हुए, सुप्त सभी स्वीकार।

तन पर सावन की करे, वृृष्टि   मधुर  शृंगार ।।

सावन में अच्छे लगें, मौन मधुर स्वीकार ।

मुदित नयन में हो गई, प्रतिबन्धों की हार।।

अन्तर्मन को छू गये, अनुरोधों के ज्वार ।

इन्कारों…

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Added by Sushil Sarna on July 28, 2021 at 3:30pm — 6 Comments

वो बेकार है

  1212     1122     1212      22 / 112

 तमाम उम्र सहेजी मगर वो बेकार है 

 अजीब बात है शाइर डगर वो बेकार है

सुहाने चाँद की रातों सफर वो बेकार है

लो अब कहूँ तो कहूँ क्या असर वो बेकार है

बिना किताब बिना बिम्ब काव्य की सर्जना 

जो खोलता है मआनी नगर वो बेकार है

नयी - नयी है ये दुल्हन बहार सावनी अब

नया चलन है सो सहवास घर वो बेकार है 

हमारे गुरू जी अभी सुन बहुत बड़ी जीत हैं

हवा  चहक  तो  रही…

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Added by Chetan Prakash on July 27, 2021 at 8:30am — No Comments

प्रश्न .....

प्रश्न ......

प्रश्न प्रश्न प्रश्न

स्वयं को तलाशते

सैंकड़ों प्रश्न

क्या मैं

सदियों से वीरान किसी पूजा गृह की

काल धूल के आवरण से लिपटी

कोई खंडित प्रतिमा हूँ

या फिर

किसी हवन कुंड में

किसी मनोरथ की सिद्धि के लिए

झोंकी जाने वाली सामग्री हूँ

या फिर

विषधरों के दंश झेलता

कोई चंदन का विटप हूँ

या फिर

काल की आँधी में अपने अस्तित्व से जूझता

धीरे-धीरे विघटित होता

शिला खंड…

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Added by Sushil Sarna on July 26, 2021 at 12:54pm — 6 Comments

अहसास की ग़ज़ल : मनोज अहसास

221    2121    1221     212

वो सिलसिला मिला ही नहीं जो जुड़ा रहे।

हम सबके होके दोस्तो सबसे जुदा रहे।

दीवारें आंधियों का असर सह रही है पर,

ये देखना है घर मेरा कब तक खड़ा रहे।

टुकड़े तुम्हारी याद के दिल में समेटकर,

सारे जहां के रिश्तों से हम बावफ़ा रहे।

बचपन से ही उदास रही है मेरी नज़र,

दो चार रोज साथ तेरे खुशनुमा रहे।

तेरे क़रीब कौन है इसका मलाल क्या,

मेरे लबों पर बस तेरे हक़ में दुआ…

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Added by मनोज अहसास on July 25, 2021 at 11:35pm — 2 Comments

ग़ज़ल (परछाईयाँ)

221 - 2121 - 1221 - 212

आईं   हैं  जब  से   रास  ये  तन्हाईयाँ  हमें 

अपनी  ही  अजनबी  लगें  परछाईयाँ  हमें

ख़ल्वत के अँधेरों  में था  हासिल हमें सुकूँ 

तड़पा  रहीं  हैं  कितना   ये  रानाइयाँ  हमें 

देखा न जाता हमसे किसी को भी ग़मज़दा 

भातीं  नहीं  किसी  की  भी रुस्वाईयाँ  हमें 

जिसको  दिया  सहारा  उसी ने दग़ा किया 

कितना  सता  रहीं   हैं  ये  अच्छाईयाँ  हमें 

रानाइयों   से  दूर   निकल  आए …

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Added by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on July 25, 2021 at 4:46pm — 4 Comments

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